भारत में संघवाद
भारत, क्षेत्र और जनसंख्या की दृष्टि से अत्यधिक विशाल और बहुत अधिक विविधताओं से परिपूर्ण है, ऐसी स्थिति में भारत के लिए संघात्मक शासन व्यवस्था को ही अपनाना स्वाभाविक था और भारतीय संविधान के द्वारा ऐसा ही किया गया है। संविधान के प्रथम अनुच्छेद में कहा गया है कि ’’भारत, राज्यों का एक संघ होगा।’’ लेकिन संविधान-निर्माता संघीय शासन को अपनाते हुए भी भारतीय संघ व्यवस्था की दुर्बलताओं को दूर रखने के लिए उत्सुक थे और इस कारण भारत के संघीय शासन में एकात्मक शासन के कुछ लक्षणों को अपना लिया गया है। वास्तव में, भारतीय संविधान में संघीय-शासन के लक्षण प्रमुख रूप से और एकात्मक शासन के लक्षण गौण रूप से विद्यमान हैं।[1]
भारतीय संविधान के संघात्मक लक्षण[संपादित करें]
भारतीय संघ व्यवस्था में संघात्मक शासन के प्रमुख रूप से चार लक्षण कहे जा सकते हैं:
- (1) संविधान की सर्वोच्चता,
- (2) संविधान के द्वारा केन्द्रीय सरकार और इकाइयों की सरकारों में शक्तियों का विभाजन,
- (3) लिखित और कठोर संविधान,
- (4) स्वतन्त्र उच्चतम न्यायालय।
- (5) द्वि-सदनीय व्यवस्थापिका।
- (6) दोहरी शासन प्रणाली।
भारतीय संविधान में संघात्मक शासन के ये सभी प्रमुख लक्षण विद्यमान हैं।
भारतीय संविधान के एकात्मक लक्षण[संपादित करें]
भारत एक अत्यन्त विशाल और विविधतापूर्ण देश होने के कारण संविधान-निर्माताओं के द्वारा भारत में संघात्मक शासन की स्थापना करना उपयुक्त समझा गया, लेकिन संविधान-निर्माता भारतीय इतिहास के इस तथ्य से भी परिचित थे कि भारत में जब-जब केन्द्रीय सत्ता दुर्बल हो गयी, तब-तब भारत की एकता भंग हो गयी और उसे पराधीन होना पड़ा। संविधान के ये एकात्मक लक्षण प्रमुख रूप से निम्नलिखित हैं:
(1) शक्ति का विभाजन केन्द्र के पक्ष में
(2) इकहरी नागरिकता
(3) संघ और राज्यों के लिए एक ही संविधान
(4) एकीकृत न्याय-व्यवस्था
(5) संसद राज्यों की सीमाओं के परिवर्तन में समर्थ
(6) भारतीय संविधान संकटकाल में एकात्मक
(7) सामान्य काल में भी संघीय सरकार की असाधारण शक्तियां
(8) मूलभूत विषयों में एकरूपता
(9) राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा
(10) राज्य सभा में इकाईयों को समान प्रतिनिधित्व नहीं
(11) आर्थिक दृष्टि से राज्यों की केन्द्र पर निर्भरता
(12) संविधान के संशोधन में संघ को अधिक शक्तियां प्राप्त होना
(13) अन्तर्राज्य परिषद् और क्षेत्रीय परिषदें
(14) भारतीय संघ में संघीय क्षेत्र
भारतीय संघवाद की प्रवृत्तियाँ (Tendencies Of Indian Federalism)[संपादित करें]
भारतीय संघवाद, संविधानविद् के . सी . व्हीयर के शब्दों में ‘ अर्द्धसंघीय ‘ है। ग्रेनविले ऑस्टिन ने इसे सहयोगी संघवाद कहा है। भीमराव अम्बेडकर ने इसे कठोर संघीय ढाँचा मानने से इन्कार किया है। मोरिस जोन्स ने इसे सौदेबाजी वाला संघवाद माना है। परन्तु यह सत्य है कि भारतीय संघवाद विशुद्ध सैद्धान्तिक संघवाद नहीं है और विशिष्ट बहुलवादी परिस्थितियों में इसे एकात्मक शक्ति प्रदान की गई है। केन्द्र को अत्यधिक शक्तिशाली बनाया गया है। विधायी कार्यकारी और न्यायिक – आपातकालीन सभी क्षेत्रों में अन्तिम व निर्णायक भूमिका केन्द्र की ही रखी गई है। अखिल भारतीय सेवाएँ, आपातकालीन उपबंध (धारा 352, 356, 360), वित्त आयोग इत्यादि संस्थागत रूप से केन्द्रीकरण के माध्यम रहे है। किन्तु ये सेवाएँ संघ एवं राज्य दोनों के लिए सामान्य है।
संघ द्वारा नियुक्त भारतीय प्रशासनिक सेवा के सदस्य या तो संघ के किसी विभाग (जैसे – गृह अथवा प्रतिरक्षा) के अधीन नियोजित किए जा सकते हैं अथवा किसी राज्य सरकार के अधीन । लोक सेवकों की सेवाएँ अन्तरणीय होती है। संघ के अधीन नियोजित किए जाने पर भी वे प्रश्नगत विषय पर लागू होने वाली संघ एवं राज्य दोनों द्वारा निर्मित विधियों का प्रशासन करते हैं । राज्यों के अधीन सेवा करते हुए भी अखिल भारतीय सेवा के सदस्य को केवल संघीय सरकार द्वारा ही पद से हटाया जा सकता है । राज्य सरकार इस प्रयोजनार्थ अनुषंगी कार्यवाही शुरु करने हेतु सक्षम है । इस एकात्मक आत्मा वाले संघवाद का दूसरा पहलू यह भी है कि राज्यों को अनेक संस्थाओं के माध्यम से उचित महत्त्व और भागीदारी प्रदान की गई है ।
संन्दर्भ[संपादित करें]
- ↑ "भारतीय संघ व्यवस्था". मूल से 16 अक्तूबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 जून 2020.