भाण

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नाट्यशास्त्रानुसार एक प्रकार का रूपक जो नाटकादि दस रूपकों के अतर्गत है।

भाण, एक अंक का होता है और इसमें हास्य रस की प्रधानता होती है। इसका नायक कोई निपुण पण्डित वा अन्य चतुर व्यक्ति होता है। इसमें नट आकाश की ओर देखकर आप ही आप सारी कहानी उक्ति-प्रत्युक्ति के रूप में कहता जाता है, मानो वह किसी से बात कर रहा हो। वह बीच-बीच में हँसता जाता और क्रोधादि करता जाता है। इसमें धूर्त के चरित्र का अनेक अवस्थाओं का महित वर्णन होता है। बीच बीच में कहीं-कहीं संगीत भी होता है। इसमें शौर्य और सौभाग्य द्वारा शृंगाररस होता है। संस्कृत भाणों में कौशिकी वृत्ति द्वारा कथा का वर्णन किया जाता है। यह दृश्यकाव्य है।

लक्षण[संपादित करें]

डॉ एस के डे (जे आर ए एस, 1926; पृ. 63-90) ने भरत के नाट्यशास्त्र के आधार पर भाण के निम्नलिखित लक्षण निश्चित किए हैं –

  • (1) भाण में ऐसी स्थितियों का वर्णन होता है जिनमें अपने अथवा दूसरे के साहसिक कार्यों का पता चलता हो;
  • (2) उसमें केवल एक अंक होता है और दो संधियाँ;
  • (3) भाण का नायक विट होता है;
  • (4) इसमें मुहजबानी संकेत आते हैं;
  • (5) भाण आकाश-भाषित सवाल-जवाब से आगे बढ़ता है; और
  • (6) इसमें लास्य का तो प्रयोग होता है पर शृंगार की द्योतक कैशिकीवृत्ति इसमें नहीं आती ।

दसवीं सदी के अन्त में धनंजय ने दशरूपक में भाण में भारतीवृत्ति तथा वीर और शृंगार रस के प्रयोग का आदेश दिया है। यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि भाणों में रस तो आता है पर वीर रस का कहीं पता नहीं चलता। यह एक विचित्र बात है कि भरत और धनञ्जय भाण में हास्य का कहीं उल्लेख नहीं करते। अभिनवगुप्त ने नाट्य-शास्त्र की टीका में भाण को प्रहसन माना है और उनके अनुसार उसमें करुण, हास्य और अद्भुत रस आने चाहिएँ ; शृंगार का उन्होंने उल्लेख नहीं किया है। दशरूपक के अनुसार भाण में भारतीवृत्ति का उल्लेख आने से उसका प्रहसन से संबंध होना चाहिए क्योंकि भारतीवृत्ति के चार अंगों में एक अंग प्रहसन भी था। इस वृत्ति का प्रयोग केवल पुरुषों की बातचीत में होता था और इसकी भाषा संस्कृत होती थी। विश्वनाथ के अनुसार भाण में भारतीवृत्ति के सिवा कैशिकीवृत्ति का भी प्रयोग होता था। इसके यह माने हुए कि भाण शृंगार रस के अनुकूल था और इसमें हास्य भी आ सकता था। संभव है कि कैशिकीवृत्ति का प्रयोग विश्वनाथ के युग के अनुरूप था।

प्रमुख भाण[संपादित करें]

  • अनङ्गब्रह्मविद्याविलास भाण (रचयिता : वरदार्य)
  • अनङ्ग(सं)जीवन भाण (रचयिता : वरदाचार्य)
  • अनङ्गविजय भाण (लेेखक जगन्‍नाथ पंडितकवी)
  • अनङ्गसर्वस्व भाण (रचयिता : लक्ष्मीनरसिंह)
  • आनन्दतिलक भाण
  • कन्दर्पदर्पण भाण-१ (लेखक व्यंकटकवी)
  • कन्दर्पदर्पण भाण-२ (लेखक श्रीकंठ)
  • कन्दर्पविजय भाण (लेखक धनगुरुवर्य)
  • कामविलास भाण (लेखका व्यंकप्पा)
  • कुसुमबाणविलास भाण (लेखक लीलामधुकर)
  • केरलाभरण भाण (लेखक रामचंद्र दीक्षित)
  • गोपलीलार्णव भाण (लेखक भट्टरंगाचार्यपुत्र गोविंद)
  • चन्द्ररेखाविलास भाण
  • पञ्चबाणविजय भाण (लेखक वाधूलगोत्रोत्पन्न रंगाचार्य)
  • पञ्चबाणविलास भाण
  • पञ्चायुधप्रपंचभाण (लेखक त्रिविक्रम पंडित)
  • मदनगोपालविलास भाण (लेखक गुरुराम कवी)
  • मदनभूषण भाण
  • मदनमहोत्सव भाण (लेखक श्रीकंठ ऊर्फ नंजुंद)
  • मदनसञ्जीवन भाण (लेखक घनश्याम)
  • माधवभूषण भाण (लेखक रंगेनाथ महादेशिक)
  • मालमङ्गल भाण उर्फ महिषमंगल भाण (लेखक पुरुवनम् महिषमंगलकवी)
  • रसविलास भाण (लेखक चोक्कनाथ)
  • रसिकरञ्जनभाण (लेखका श्रीनिवासाचार्य)
  • रसिकजन रसोल्लास भाण (लेखक वेदांतदेशिक पुत्र व्यंकट)
  • रससदन भाण
  • रसिकामृत भाण- (लेखक शंकरनारायण)
  • रसोल्लासभाण (लेखक श्रीनिवास वेदान्ताचार्य)
  • वसन्ततिलक भाण (लेखक अम्मलाचार्य)
  • शारदातिलक भाण (लेखक शंकर)
  • शारदानन्दन भाण (लेखक वरदाचार्यपुत्र श्रीनिवास)
  • शृंगारकोश भाण-१ (लेखक अभिनव कालिदास काश्यप)
  • शृंगारकोश भाण-२ (लेखक गीर्वाणेंद्र याचे पिता नीलकंठ दीक्षित)
  • शृंगारचंद्रिका भाण
  • शृंगारजीवन भाण
  • शृंगारतरङ्गिणी भाण-१ (लेखक रामभद्र)
  • शृंगारतरङ्गिणी भाण-२ (लेखक सरपूरचा व्यंकटाचार्य)
  • शृंगारतिलक भाण
  • शृंगारदीपक भाण (लेखक विंजीमूर राघवाचार्य)
  • शृंगारपावन भाण (लेखका कृष्णकविपुत्र वैद्यनाथ)
  • शृंगारमञ्जरी भाण- अथवा श्रीरंगराज भाण (लेखक जक्कुल व्यंकटेंद्र आणि वीरनाम्बा यांचा पुत्र गोपालराय)
  • शृंगारराजतिलक भाण (लेखका वंदवासी रामपुत्र अविनाशीश्वर)
  • शृंगार शृङ्गारतक भाण (लेखका श्री रंगनाथ)
  • शृंगारसर्वस्व भाण-१ (लेखक आनन्दराघव नाटकाचा कर्ता राजचूडामणि दीक्षित)
  • शृंगारसर्वस्व भाण-२ (लेखक स्वामिमिश्र अथवा स्वामिशास्त्री)
  • शृंगारसुधाकर भाण (लेखक रुक्मिणीपरिणय नाटकाचा कर्ता रामवर्मा युवराज)
  • शृंगारसुधार्णव भाण (लेखक रामचंद्र कोराड)
  • शृंगारस्तबक भाण (लेखका मदुरेचा रहिवाशी नृसिंह)
  • संपतकुमारविलास भाण अथवा माधवभूषण भाण (लेखक रंगेनाथ महादेशिक)
  • सरसकविकुलानन्द भाण (लेखक रामचंद्र)

चतुर्भाणी[संपादित करें]

  • (१) श्रीशूद्रकविरचितं पद्मप्राभृतकम्
  • (२) ईश्वरदत्तप्रणीतो धूर्तविटसंवादः
  • (३) वररुचिकृता उभयाभिसारिका
  • (४) महाकवि श्यामिलकविरचितं पादताडितकम् ।

श्री एम रायकृष्ण कवि और श्री एस के रामनाथ शास्त्री को चतुर्भाणी की एक प्रति त्रिचुर के श्रीनारायण नांबूदरीपाद के यहाँ से मिली जिसे उन्होंने बड़े परिश्रम से प्रकाशित किया (चतुर्भाणी; श्री एम रायकृष्ण कवि और श्री एस के रामनाथ शास्त्री द्वारा सम्पादित, शिवपुरी, 1922) । अपनी भूमिका का आरम्भ सम्पादकद्वय ने पद्मप्राभृतकम् के अन्त में आनेवाले श्लोक से किया है जिसमें वररुचि, ईश्वरदत्त, श्यामिलक और शूद्रक के भाणों की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि उनके सामने कालिदास की क्या हस्ती थी (वररुचिरीश्वरदत्तः श्यामिलकः शूद्रकश्चत्वारः । एते भाणान् बभणुः का शक्तिः कालिदासस्य ।)

टी बरो, पादताडितकम् का समय 410 और 415 ई. के बीच निर्धारित करते हैं (‘दी डेट ऑफ श्यामिलकस् पादताडितकम्’; जे आर ए एस, 1946, पृ. 46-53) । पद्मप्राभृतकम् और उभयाभिसारिका में दो ऐसे संकेत हैं जिनसे पता चलता है कि शायद ये दोनों भाण कुमारगुप्त के समय लिखे गये। पद्मप्राभृतकम् का स्थान उज्जयिनी, धूर्तविटसंवाद और उभयाभिसारिका का पाटलिपुत्र तथा पादताडितकम् का स्थान सार्वभौमनगर है जिसकी पहचान उज्जयिनी से की जा सकती है । पद्मप्राभृतकम् में मूलदेव का मित्र शश विट है - देवदत्ता के प्रेमी इस पात्र (मूलदेव) का उल्लेख भारतीय कथा-साहित्य में अनेक बार हुआ है । ऐसा पता चलता है कि मूलदेव के कर्णीसुत, मूलभद्र और कलांकुर नाम भी थे। चौर्यशास्त्र पर इसके एक ग्रंथ का भी उल्लेख है। कादम्बरी, अवन्तिसुन्दरीकथा, तथा हरिभद्र की दशवैकालिक सूत्र की टीका में इसका उल्लेख है। पद्मप्राभृतकम् का नायक भी देवदत्ता का प्रेमी कर्णीसुत मूलदेव है।

धूर्तविटसंवाद के विट का नाम देविलक है और उभयाभिसारिका के विट का नाम वैशिकाचल है। पादताडितकम् के विट का नाम नहीं मिलता।

चतुर्भाणी के सिवा निम्नलिखित भाणों का पता चलता है :

(1) वामनभट्ट का श्रृंगारभूषण,

(2) काशीपति कविराज का मुकुन्दानन्द,

(3) कांची के वरदाचार्य का वसन्त-तिलक,

(4) रामचन्द्र दीक्षित का श्रृंगार-तिलक,

(5) नल्लाकवि का श्रृंगार-सर्वस्व,

(6) केरल के युवराज का रस-सदन,

(7) महिषमंगल कवि का महिष-मंगल,

(8) रंगाचारी का पंचभाण-विजय,

(9) श्रीनिवासाचार्य का रसिक-रंजन,

(10) रामवर्मन की श्रृंगार-सुधा, तथा

(11) कालिंजर के वत्सराज का कर्पूरचरित

इन भाणों में कर्पूरचरित और मुकुन्दानन्द को छोड़कर बाकी के सब दक्षिण भारत के हैं । इनमें कर्पूरचरित तेरहवीं सदी के आरम्भ का है और शृंगार-भूषण चौदहवीं सदी के अन्त का। बाकी सब भाण सोलहवीं और सत्रहवीं सदी के हैं । इन भाणों में विट का नाम विलासशेखर, अनंगशेखर, भुजंगशेखर और श्रृंगारशेखर आता है।

चतुर्भाणी के पढ़ते ही यह बात साफ हो जाती है कि उनका उद्देश्य तत्कालीन समाज और उसके बड़े कहे जानेवालों की कामुकता का प्रदर्शन करते हुए उन पर फबतियाँ कसना और उनका मजाक उड़ाना था। चतुर्भाणी के विट जीते-जागते समाज के अंग हैं जिनका ध्येय हँसना-हँसाना ही है। इन भाणों में कहीं-कहीं अश्लीलता अवश्य आ गई है लेकिन विटों और आकाशभाषित पात्रों के संवाद की शैली इतनी मनोहर और चुटीली है कि जिसकी बराबरी संस्कृत-साहित्य में नहीं हो सकती ।

भाषा[संपादित करें]

पद्मप्राभृतकम् में दन्दशूकपुत्र दत्तकलशि नाम के एक वैयाकरण का उल्लेख है। उसकी बातचीत से पता चलता है कि कातंत्रिकों ने उसे तंग कर रखा था पर उसका उनपर जरा भी विश्वास नहीं था। उद्धरण इस बात का सूचक है कि जिस समय पद्मप्राभृतकम् की रचना हुई उस समय पाणिनीय और कातंत्रिक वैयाकरणों में काफी रगड़ रहती थी। बहुत संभव है कि इस विवाद का युग गुप्तकाल रहा हो जब बौद्धों में कातंत्र-व्याकरण का काफी प्रचार बढ़ा। कातंत्र, अथवा कौमार या कालाप शर्ववर्मन की रचना थी। विंटरनित्स के अनुसार कातंत्र की रचना ईसा की तीसरी सदी में हुई तथा बंगाल और कश्मीर में इसका विशेष प्रचार हुआ।

चतुर्भाणी की भाषा भी उसकी प्राचीनता पर प्रकाश डालती है। कम से कम जिस तरह की संस्कृत का भाणों में प्रयोग किया गया है वह कहीं दूसरी जगह नहीं मिलती। वह विटों की भाषा है जिसमें हँसी मजाक, नोक-झोंक, गाली-गलौज, तानाकशी और फूहरपन का अजीब सम्मिश्रण है। भाणों के विट तत्कालीन मुहावरों और कहावतों का बड़ी खूबी के साथ प्रयोग करते हैं। चतुर्भाणी को पढ़ते समय तो हमें ऐसा भास होता है कि मानो हम आधुनिक बनारस के दलालों, गुंडों और मनचलों की जीवित भाषा सुन रहे हों।

चतुर्भाणी के लेखकों का मुख्य उद्देश्य उस समय के समाज का जीता-जागता चित्र सामने लाना और ढोंग का भंडाफोड़ करना था। भाणों के पढ़ने से पता चलता है कि राजा, राजकुमार, ब्राह्मण, बड़े-बड़े सरकारी कर्मचारी, व्यापारी, कवि और यहाँ तक कि व्याकरणाचार्य, बौद्ध भिक्षु इत्यादि भी वेश में जाने से नहीं हिचकिचाते थे। भाणों के पात्र नाट्यशास्त्र के रूढ़िगत पात्र न होकर जीते-जागते स्त्री-पुरुष हैं। इसीलिए भाण बोलचाल की संस्कृत में लिखे गए हैं, पर वह बोलचाल की भाषा इतनी मंजी हुई और पैनी है तथा मजेदार सवाल-जवाबों से इतनी चोखी हो गई है कि पढ़ते ही बनता है। डॉ टामस के शब्दों में,

मैं समझता हूँ कि लोग मुझसे इस बात में सहमत होंगे कि इन भाणों में निम्न स्तर के पात्र होते हुए भी और कहीं-कहीं अश्लीलता होते हुए भी इनमें बहुत साहित्यिक गुण है। इनमें अपने ढंग के भारतीय हास्य और वक्रोक्तियों का ऐसा पुट है जिससे उन्हें बेन जॉन्सन अथवा मोलिए की स्पर्धा में भी डरने की आवश्यकता नहीं। इनकी भाषा तो संस्कृत का मथा हुआ अमृत ही है।

साधारण तरह से हम यही बात सोचते हैं कि संस्कृत साहित्य राजदरबारों और विद्वानों की भाषा में है और यह बात नाटकों तथा कादम्बरी की तो बात ही क्या दण्डी के दशकुमारचरित पर भी लागू होती है। पर इन भाणों में सीधी-सीधी बातचीत की संस्कृत का प्रयोग जीवन की दैनिक घटनाओं और छिद्रान्वेषण के लिए होता है।[1]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  • स्रोत : चतुर्भाणी (अथवा पद्मप्राभृतकम्, धूर्तविटसंवाद, उभयाभिसारिका, पादताडितकम् इन चार एकनट नाटकों का संग्रह), [गुप्तकालीन शृंगारहाट]; अनुवादक-संपादक : श्री मोतीचन्द्र और श्री वासुदेवशरण अग्रवाल, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय प्राइवेट लिमिटेड, बम्बई, 1959 । मोतीचन्द्र द्वारा लिखी गई इसी पुस्तक की भूमिका के कुछ चुनिन्दा अंश (मामूली फेरबदल के साथ) उद्धृत।