भवाई

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
भारत भवन, भोपाल में भवाई का प्रदर्शन
भवाई कलाकार

भवाई, पश्चिमी भारत (विशेषकर गुजरात) का प्रसिद्ध लोकनाट्य है। इसे वेष' या 'स्वांग' भी कहते हैं। गुजरात के लोक रंगों से सराबोर भवाई नाट्य संगीत, नृत्य, अभिनय, संवाद, वेशभूषा, बोली यानी पूरा कलात्मक ताना-बाना इतना लुभावना है कि दर्शक देर तक इसकी आगोश में बंधे रहते हैं। भवाई का कथानक और उसकी प्रस्तुति इसके आकर्षण के मुख्य कारण हैं। भवाई के रंगमंच पर स्वप्न कथाओं और परियों की कहानियों से लेकर, पौराणिक ऐतिहासिक प्रसंग और आज के हालातों का बखान होता है। भवाई प्रदर्शन में 'प्रहसन' प्रमुख तत्व होता है। भवाई की मंडली को 'ढोकु', 'पेडु' तथा सौराष्ट्र में 'बेडा' कहा जाता है। भवाई की भाषा मुख्य रूप से गुजराती लोक बोली रही है। उस पर उर्दू, खड़ी बोली हिन्दी और मारवाड़ी का प्रभाव भी रहा। मुस्लिम चरित्र प्रधान वेशों में उर्दू और हिन्दी का प्रयोग किया जाता है।

गुजरात में आश्विन मास की नवरात्रि के अवसर से भवाई प्रदर्शन का आरम्भ होता है। दीपावली के बाद भवाई मंडलियां अपने नियत तथा आमंत्रित गांवों में जाती हैं। खुले रंगमंच पर रात भर गीत, संगीत और नृत्य के साथ क्रम से नाटिकाओं, वेशों का प्रदर्शन होता है। भवाई मंडली में 20 से अधिक सदस्य नहीं होते और 9 से कम कलाकार नहीं होते। बीस की संख्या अधिक आदर्श मानी गई है। इस मंडली में स्‍त्री पात्र, पुरुष पात्र, गायक नर्तक तथा सहयोगी कलाकारों का समावेश होता है। भवाई खेलने वाली विशिष्ट जाति तरगाला कहलाती है जो मुख्यतः उत्तर गुजरात में रहती है। इन में हर मंडली की वंश परंपरागत यजमान जाति तथा बधे हुए गांव होते हैं।

जन-श्रुति से ज्ञात होता है कि भवैया के यजमान किसी न किसी गांव में पटेल ही होते थे। भवैया की कला, उसका व्यवसाय यजमान समुदाय वंश परंपरा से ही प्राप्त करते हैं। वे वर्ष के चार माह छोड़कर सात या आठ माह गांवों में घूमकर भवाई का खेल प्रदर्शन करते हैं। लेकिन अब तो अन्य जातियां भी भवाई खेलने लगी और आज भवाई खेलने वाली तथा आयोजक, यजमान जातियां अनेकानेक हैं।

भवाई के पूर्वरंग के अंतर्गत सर्वप्रथम चाचर रचना तथा पूजा विधि का समावेश होता है। चाचर में देवी के प्रतीक रूप में दीपक तथा मशाल जलाने के बाद अंबिका तथा बहुचर आदि देवियों की जय जयकार की जाती है। उसके बाद नायक मंडली के सदस्यों को भवाई शुरू करने का आदेश देता है। भवाई का मुख्य वाद्य भूंगल बजाकर ग्राम्य देवता को आमंत्रित किया जाता है। भूंगल के साथ तबला, झांझ, ढोलक आदि बाजों को बजाया जाता है।

भवाई मुख्य रूप से तरगाला जाति का पेशा बना रहा परन्तु आज गुजरात में अनेक जातियों में भवाई खेलने की प्रथा है। ब्राह्यणों के अलावा पिछड़ी जातियों में भवाई खेली जाने लगी। इनमें से कुछ मंडलियां देवी अम्बा की पूजा तथा नवरात्रि के लिए तथा कुछ मंडलियां मात्र मनोरंजन के लिए तथा कुछ मंडलियां जीविका के लिए भवाई खेलती हैं। उदाहरण के लिए तुरी लोग के जीविका का माध्यम भवाई है। अधिकतर भवाइयों के यजमान पटेल बने रहे. इसके साथ ही कुछ भवाई मंडलियों के यजमान क्षत्रिय या राजपूत बनने लगे। खेड़ा जिले में क्षत्रियों के भवाइयों को मराठा कहा जाने लगा।

भवाई के रंगमंच को अधिक संसाधन की दरकार नहीं होती। यह ज़मीन पर भी खेला जा सकता है। इस फलक पर भी कोई भी दृश्य प्रभावी ढंग से रच देने का सामर्थ्य कलाकारों में होता है। पूर्वरंग से लेकर नाटक के अंतिम दृश्य तक एक सहज प्रवाह में प्रस्तुति संपन्न होती है।

मां भवानी, देवी सरस्वती, श्रीगणेश या छप्पन भैरव की आराधना के मंगलाचरण से प्रस्तुति शुरू होती है। गुजरात का उदात्त भक्ति संगीत, यहां प्रार्थना के पवित्र भावों का संचार करता कलाकारों में नई उर्जा और उत्साह जगाता है। कथानक सामाजिक, राजनैतिक या पौराणिक ही क्यों न हो, मुख्य पात्रों के बीच विदूषक की उपस्थिति प्रहसन का आनंद बिखेरती रहती है।

भवाई की परंपरा को विकसित करने में पुरुषों का ही योगदान प्रमुख रहा है। मंचन में भी पुरूष ही हिस्सा लेते हैं। वे ही स्त्री पात्रों की भूमिका का निर्वाह करते हैं। इन पुरूष कलाकारों के लिए भवाई आजीविका का ज़रिया भी र।. कलाकारों के दल गांव-गांव घूमकर भवाई के प्रदर्शन कर दान-दक्षिणा पाकर अपना जीवन यापन करते रहे हैं।

कथानक को समसामयिक घटना-प्रसंगों के अनुकूल बनाने के उद्देश्य से संवादों में परिवर्तन और तात्कालिक सूझ-बूझ से उन्हें गढ़ने का कौशल कलाकारों में देखते ही बनता है। पारंपरिक वाद्यों में तबला, ढोल, झांझ, छोटी शहनाई के साथ बैंजों का इस्तेमाल किया जाता है। गरबा के गीत और उसकी ख़ास लय-ताल भरा संगीत सौराष्ट्र की लोक-संस्कृति की महक बन जाता है। पारंपरिक वेशभूषा के बीच मुखौटों का इस्तेमाल भवाई की अपनी अलहदा सी पहचान है जो प्रस्तुति को और भी रोचक बना देती है।

इतिहास[संपादित करें]

भवाई के ऐतिहासिक अध्ययन से मालूम होता है कि 14वीं सदी में यह अस्तित्व में आई। गुजरात के ही ग्रामीण इलाकों में रहने वाले भवाई समुदाय ने जनजागरण और लोक रंजन के उद्देश्य से इस शैली की परिकल्पना की और एक रचनात्मक आंदोलन के रूप में इसे स्थापित किया। इस अभियान के सूत्रधार बने असाईत ठाकर जो जाति के ब्राह्मण थे। वे पुरोहित कर्म से जुड़े थे, अंबा देवी के भक्त थे, वेद-उपनिषदों तथा अन्य ग्रंथों का गहरा अध्ययन उन्होंने किया, भारतीय संस्कृति के प्रति उनके मन में अगाध श्रद्धा थी. इन्हीं रूझानों और आस्थाओं के चलते उन्होंने भवाई के लिए अनेक कथानकों की रचना की। भवाई के मंचन को देखते हुए असाईत ठाकुर की विलक्षण सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि का परिचय मिलता है।

कथानक[संपादित करें]

ये कहानी गुजरात के मोरवी राजा रावत रनसिंह और उस राज्य की सुन्दनी महेन्द्री के आसपास घूमती है। राजा इस अप्सरा के रूप पर मोहित है। उससे विवाह करना चाहता है और सुन्दरी एक नाग कन्या होने के कारण इस प्रस्ताव को नामंजूर कर देती है। यह असहमति ही एक नयी टकराहट बनती है और विचित्र से घटनाक्रम के बीच मोरवी राज्य के पतन की दास्तान उजागर होती है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]