बौधायन का शुल्बसूत्र

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शुल्बसूत्रों में बौधायन का शुल्बसूत्र सबसे प्राचीन माना जाता है। इन शुल्बसूत्रों का रचना समय १२०० से ८०० ईसा पूर्व माना गया है। बौधायन के शुल्बसूत्रों में गणित की अनेक प्रमेय और विधियाँ विद्यमान हैं जिनमें पाइथागोरस प्रमेय, २ के वर्गमूल का सन्निकट मान आदि प्रमुख हैं।

पाइथागोरस प्रमेय[संपादित करें]

अपने एक सूत्र में बौधायन ने समकोण त्रिभुज के विकर्ण के वर्ग का नियम दिया है-

दीर्घस्याक्षणया रज्जुः पार्श्वमानी तिर्यकं मानी च।
यत्पृथग्भूते कुरुतस्तदुभयांकरोति ॥

एक आयत का विकर्ण उतना ही क्षेत्र इकट्ठा बनाता है जितने कि उसकी लम्बाई और चौड़ाई अलग-अलग बनाती हैं। - यही तो पाइथागोरस का प्रमेय है। स्पष्ट है कि इस प्रमेय की जानकारी भारतीय गणितज्ञों को पाइथागोरस के पहले से थी। वस्तुतः इस प्रमेय को बौधायन-पाइथागोरस प्रमेय कहा जाना चाहिए।

वर्ग के क्षेत्रफल के बराबर क्षेत्रफल के वृत्त की रचना[संपादित करें]

अपने एक सूत्र में बौधायन ने किसी वर्ग के क्षेत्रफल के समान क्षेत्रफल वाले वृत्त की रचना की विधि बतायी है (the reverse of squaring the circle)। निम्नलिखित सूत्र में यह दिया है:

चतुरश्रं मण्डलं चिकीर्षन्नक्ष्णयार्धं मध्यात्प्राचीमभ्यापातयेत् । यदतिशिष्यतेतस्य सह तृतीयेन मण्डलं परिलिखेत्
Draw half its diagonal about the centre towards the East–West line; then describe a circle together with a third part of that which lies outside the square.
व्याख्या
  • वर्ग के विकर्ण का आधा करो । यह वर्ग की भुजा से x बड़ा होगा जहाँ .
  • अब एक वृत्त खींचो जिसकी त्रिज्या , या , हो। सरल करने पर इस त्रिज्या का मान आता है।
  • चूंकि , अतः इस वृत्त का क्षेत्रफल .

२ का वर्गमूल[संपादित करें]

सूत्र संख्या i.61-2 में बौधायन ने किसी वर्ग के विकर्णों की लम्बाई का परिमाण उस वर्ग की भुजाओं की लम्बाई फलन के रूप में दिया है। इसी को आपस्तम्ब शुल्बसूत्र i.6 में विस्तार से दिया गया है। दूसरे शब्दों में यह २ के वर्गमूल का मान निकालने की विधि है।

समस्य द्विकरणी प्रमाणं तृतीयेन वर्धयेत्
तच्च चतुर्थेनात्मचतुस्त्रिंशोनेन सविशेषः।
वर्ग का विकर्ण (द्विकरणी)। (भुजा के) प्रमाण में उसके तिहाई भाग और फिर चौथाई भाग जोड़ दें, उसमें से इसके चौतीसवें भाग को घटा दें। अर्थात विकर्ण का मान लगभग-

यह मान दशमलव के ५ स्थानों तक शुद्ध है। [1]

अन्य प्रमेय[संपादित करें]

  • आयत के विकर्ण एक-दूसरे को समद्विभाजित करते हैं।
  • समचतुर्भुज (rhombus) के विकर्ण एक-दूसरे को समकोण पर काटते हैं।
  • किसी आयत के सभी भुजाओं के मध्य बिन्दुओं को मिलाने से बने वर्ग का क्षेत्रफल, मूल वर्ग के क्षेत्रफल का आधा होता है।
  • किसी आयत की भुजाओं के मध्य बिन्दुओं को मिलाने से एक समचतुर्भुज (rhombus) बनता है जिसका क्षेत्रफल मूल आयत के क्षेत्रफल का आधा होता है।

ध्यान दें कि आयत और वर्ग पर विशेष बल दिया गया है। इसका कारण यज्ञ की भूमिका (वेदी) बनाने में इनका विशेष उपयोग होना है। यह वास्तुशास्त्र और शिल्प शास्त्र का एक विशेष पक्ष है।

श्येनचिति[संपादित करें]

बौधाययन शुल्बसूत्र में श्येन (बाज पक्षी) के आकार की वेदी बनाने का वर्णन है जिसे 'श्येनचिति' कहते हैं।

अथ वै भवति श्येनचितं चिन्वीत सुवर्गकाम इति ॥७-१॥
आकृतिद्वैविध्यम् । चतुराश्रात्मा श्येनाकृतिश्च ॥७-२॥[2]
अब जिसे स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा है उसने श्येनचिति चिनना चहिये, ऐसा नियम है।
(श्येनचिति) दो आकार की होती है। (एक प्रकार में) आत्मा (यज्ञवेदी) वर्गाकार होती है और इसकी आकृति श्येन (पक्षी) जैसा होता है।

ज्ञातव्य है कि इस प्रकार की एक श्येनचिति उत्तराखण्ड के पुरोला में मिली है।[3]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]