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बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म

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[[File:Great Buddha Statue, Bodh Gaya.jpg|right|thumb|300px|भगवान बुद्ध : बौद्ध धर्म के प्रवर्तक]

बौद्ध धर्म और जैन धर्म भारत के दो प्राचीन धर्म हैं जिनकी जन्मस्थली मगध ([[वर्तमान समय का बिहार) है तथा दोनों ही धर्म आज भी फल-फूल रहे हैं। प्रायः जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी तथा बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध दोनों समकालिक माने जाते हैं।[1][2] दोनों धर्मों की बहुत सी मूलभूत बातें समान हैं। दोनों की धार्मिक शब्दावली एवं नैतिक सिद्धान्त समान हैं किन्तु उन पर अलग-अलग तरह से बल दिया गया है। [2] दोनों ही श्रमण परम्परा वाले धर्म हैं और दोनों का विश्वास है कि जन्म-मरण के चक्र (संसार) से मुक्ति पाना सम्भव है। [3]

इन दोनों धर्मों में समानता के साथ-साथ असमानता के तत्त्व भी रहे हैं जैसे - मध्यमार्ग बनाम अनेकान्तवाद ; जीव बनाम अत्त अनत्त[2][4] जिसके कारण जैन धर्म, बौद्ध धर्म की अपेक्षा ज़्यादा व्यापक रूप से प्रसारित नहीं हो सका। इसे हम निम्नलिखित रूपों में देख सकते हैं-

  • मोक्ष प्राप्त करने के लिए जैन धर्म द्वारा तपस्या और भोग की चरम सीमाओं से बचाव का प्रचार किया जाता है, जबकि बौद्ध धर्म ने अपने उपासकों को मध्यम मार्ग या तथागत मार्ग का पालन करने की सलाह दी।
  • अहिंसा: यद्यपि दोनों अहिंसा के सिद्धांत पर जोर देते हैं, फिर भी जैन धर्म इस संबंध में अधिक hard है।
  • आत्मा: बौद्ध धर्म आत्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते हैं जबकि जैन धर्म प्रत्येक जीवित प्राणी में आत्मा के अस्तित्व को मानता है।
  • आचरण के संबंध में: बौद्ध धर्म अष्टांग मार्ग पर जोर देता है जबकि जैन धर्म त्रि रत्न पर जोर देता है।
  • बौद्ध धर्म ने मध्यम मार्ग पर बल दिया। इसके तहत मोक्ष के लिये कठोर साधना एवं कायाक्लेश में विश्वास नहीं किया जाता था। परंतु जैन धर्म में मोक्ष के लिये घोर तपस्या तथा शरीर त्याग को आवश्यक माना गया।
  • बौद्ध धर्म की अपेक्षा जैन धर्म में अहिंसा एवं अपरिग्रह पर अधिक बल दिया गया है। इस संदर्भ में उनके विचार अतिवादी थे।
  • जैन धर्म में नग्नता को अनिवार्य माना गया था जो बौद्ध धर्म में अनुपस्थित था।
  • गौतम बुद्ध द्वारा तत्कालीन समाज में विद्यमान कुरीतियों पर जिस प्रकार से कुठाराघात किया गया था, उस प्रकार से महावीर द्वारा नहीं किया गया था।

सन्दर्भ

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  1. Dundas, Paul (2003). Jainism and Buddhism, in Buswell, Robert E. ed. Encyclopedia of Buddhism, New York: Macmillan Reference Lib. ISBN 0028657187; p. 383
  2. Damien Keown; Charles S. Prebish (2013). Encyclopedia of Buddhism. Routledge. पपृ॰ 127–130. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-136-98588-1.
  3. Zimmer 1953, पृ॰ 266.
  4. [a] Christmas Humphreys (2012). Exploring Buddhism. Routledge. पपृ॰ 42–43. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-136-22877-3.
    [b] Brian Morris (2006). Religion and Anthropology: A Critical Introduction. Cambridge University Press. पपृ॰ 47, 51. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-521-85241-8., Quote: "...anatta is the doctrine of non-self, and is an extreme empiricist doctrine that holds that the notion of an unchanging permanent self is a fiction and has no reality. According to Buddhist doctrine, the individual person consists of five skandhas or heaps—the body, feelings, perceptions, impulses and consciousness. The belief in a self or soul, over these five skandhas, is illusory and the cause of suffering."
    [c] Richard Gombrich (2006). Theravada Buddhism. Routledge. पृ॰ 47. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-134-90352-8., Quote: "...Buddha's teaching that beings have no soul, no abiding essence. This 'no-soul doctrine' (anatta-vada) he expounded in his second sermon."

इन्हें भी देखें

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