सामग्री पर जाएँ

बोधिपथप्रदीप

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
बौद्ध धर्म

की श्रेणी का हिस्सा

बौद्ध धर्म का इतिहास
· बौद्ध धर्म का कालक्रम
· बौद्ध संस्कृति
बुनियादी मनोभाव
चार आर्य सत्य ·
आर्य अष्टांग मार्ग ·
निर्वाण · त्रिरत्न · पँचशील
अहम व्यक्ति
गौतम बुद्ध · बोधिसत्व
क्षेत्रानुसार बौद्ध धर्म
दक्षिण-पूर्वी बौद्ध धर्म
· चीनी बौद्ध धर्म
· तिब्बती बौद्ध धर्म ·
पश्चिमी बौद्ध धर्म
बौद्ध साम्प्रदाय
थेरावाद · महायान
· वज्रयान
बौद्ध साहित्य
त्रिपतक · पाळी ग्रंथ संग्रह
· विनय
· पाऴि सूत्र · महायान सूत्र
· अभिधर्म · बौद्ध तंत्र


बोधिपथप्रदीप 11वीं शताब्दी के शिक्षक आचार्य अतिश दीपांकर श्रीज्ञान द्वारा संस्कृत में रचित एक बौद्ध ग्रंथ है और व्यापक रूप से उनकी महान कृति मानी जाती है। पाठ कई विभिन्न बौद्ध विद्यालयों और दर्शन के सिद्धांतों को समेटता है, और आध्यात्मिक आकांक्षा के तीन स्तरों की शुरुआत के लिए उल्लेखनीय है: अधम, मध्यम और उत्तम। यह एक संक्षिप्त ग्रंथ है जिसमें सिर्फ 67 श्लोक हैं।[1]

इस ग्रन्थ का तिब्बती में बयांग चूब लाम ग्यी सग्रोन मा के रूप में अनुवाद किया गया था।


आचार्य अतिश इसमें सभी मनुष्यों को तीन स्तर में विभाजित करता है।

  • "अधम मनुष्य" - जो किसी भी प्रकार के उपाय से केवल अपने लिए ही सांसारिक सुख की अभिलाषा करते हैं।
  • "मध्यम मनुष्य" - जो सांसारिक सुखों से विरत होकर केवल अपने लिए ही आत्मा की शांति चाहते हैं।
  • "उत्तम मनुष्य" - जो सबके दुःखों को अपने संतान के दुःख की तरह जानकर, सबके दुःखों का अंत करने की चेष्टा करते हैं।


इसके बाद उत्तम कोटि के अभिलाषी श्रेष्ठ प्राणियों के लिए उपाय बताए गए हैं।

बोधिचित्त की उत्पत्ति

[संपादित करें]

सभी प्राणियों (सत्वों) में मैत्री भाव रखकर - जन्म, संक्राति और मरण - तीन दुर्गतियों से दुःखी देखकर, उसके मूल कारण से जगत को मुक्त करने की कामना करते हुए, प्रतिज्ञा लेना।[2] "नाथों के सम्मुख, मैं संबोधिचित्त उत्पन्न करता हूं, मैं समस्त जगत को संसार से मुक्त कराऊंगा। प्रतिहिंसा, क्रोध, मात्सर्य और ईर्ष्या को आज से लेकर बोधि प्राप्ति तक नहीं करूँगा। ब्रह्मचर्य का आचरण करूंगा, पापमूलक कामरागों का त्याग करूंगा। बुद्धों द्वारा उपदेश दिए हुए शील और संवर की शिक्षा का पालन करूंगा। एक सत्व के लिए भी परान्त कोटि तक प्रयत्न करूंगा।" अप्रमेय और अचिन्तनीय क्षेत्रों को शुद्ध करूंगा और दश दिशाओं में नाम को विख्यात करूंगा। मन, वचन, काया को शुद्ध रखूंगा और अशुभ कर्मों को नहीं करूंगा।[3]

बोधिचित्त के उपाय

[संपादित करें]

सद्धर्म संबुद्धों के चित्र, मूर्ति, स्तूप आदि के सामने यथाप्राप्त पुष्प, धूप आदि से पूजा करना। सामन्तभद्र, त्रिरत्न, त्रिशरण गमन, मैत्रेय के बताए गंडव्यूह सूत्र, वीरदत्त परिपृच्छा सूत्र, सात प्रकार के प्रातिमोक्ष संवर, मञ्जुश्री बुद्धक्षेत्रालंकार सूत्र आदि का पालन करना।

सन्दर्भ

[संपादित करें]
  • सम्पादक लोबसांग नोरबू शास्त्री (2014). आचार्य अतिश दीपांकर श्रीज्ञान विरचितः बोधिपथप्रदीपः. केन्द्रीय तिब्बती अध्ययन विश्वविद्यालय, सारनाथ, वाराणसी. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-80282-55-8.
  1. श्लोक 1,2,3,4
  2. श्लोक 9,10
  3. श्लोक 25 से 30 तक