बेलोन मंदिर

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बुलंदशहर जिले में बेलोन मंदिर बेलोन गांव में स्थित है। यह मंदिर सर्व मंगला देवी को समर्पित है, जिसे सुख की देवी माना जाता है। हर पृष्ठभूमि के लोग मंदिर में देवी का दर्शन कर आशिर्वाद लेने आते हैं। इस देवी मंदिर की बहुत 'मानता' है गांव.मुख्य मार्ग से जुड़ा नही होने के बावजूद गॉव मे पहुंचते ही गॉव के गुलजार होने का एहसास होता है.साल भर यात्रियों की भीड़ भाड़ यहाँ रहती है ,विशेषकर नवरात्र(कार्तिक ,चैत्र ) में बड़ी संख्या मे श्रद्धालु मां का आशीर्वाद लेने आते हैं. गॉव की आध्यात्मिक माहौल एक अजीब सी शांति देता है. दरसल यह गॉव मशहूर है सर्व मंगला देवी को समर्पित बेलोन मंदिर जिन्हें,सुख की देवी माना जाता है।

सुख, संतोष की तलाश मे यहा श्रद्धालुओ का तॉता लगा रहता है. समाज के हर तबके के लोग मंदिर में देवी का दर्शन कर आशीर्वाद लेने आते हैं। मंदिर बेलोन गांव में स्थित है

Belon Devi History : Rao Bhup Singh built the temple. The precise date of the temple’s construction is unknown. The goddess Sarva Mangala Devi is said to have appeared in his dream once. Goddess commanded him to recover her idol, which was buried beneath the ground and to build a temple in her honor. Rao Bhup Singh had forgotten the exact location where the idol was buried by the next morning. He performed Satchandi Havan on the advice of a priest. On that night, the Goddess appeared in his dream and told him where the idol was buried. The following morning, the workers began digging. They discovered the idol but were unable to remove it because the idol’s foot was untraceable. Goddess told Rao Bhup Singh that her foot is in the netherworld and that he should build the temple here.

It is best to visit the temple on 12 Shukla paksha Ashtami for blessings

Most visitors come in Kaartik Chaitra

इतिहास[संपादित करें]

, गांव का नाम बेलोन इस लिए पड़ा क्योंकि प्राचीन काल् मे यह यह पूरा क्षेत्र बेल वृक्षो की बहुतायत वाला था जिस की वजह से बिलोन कहलाने लगा. कहा जाता है आस्था एवं विश्वास कि शुक्ल पक्ष की 12 अष्टमी मां बेलोन भवानी के दर्शन से अभीष्ठ फल की प्राप्ति होती है। मनोकामना अवश्य पूरी होती है। समीप ही पतित पावनी गंगा मैया के राजघाट, कलकतिया एवं नरौरा घाट होने से यहां भक्तों का आगमन निरंतर बना रहता है। यह देवस्थान भौतिकवाद की भागदोड़ से परेशान लोगों को मानसिक सुख-शांति प्रदान करने का रामवाण बन गया है। यहां आने वाले भक्तों की संख्या में निरंतर हो रही वृद्धि का एक मुख्य कारण एक साथ दो-दो पुष्य कमाना है। गंगा स्नान के साथ मां बेलोन भवानी के दर्शन से लोगों को जहां सुख-शांति मिल रही है, वहीं इच्छित कामनाओं की भी पूर्ति हो रही है।

मां बेलोन भवानी के यहां प्रादुर्भाव को लेकर फिलहाल कोई ऐतिहासिक दस्तावेज तो मौजूद नहीं है, लेकिन जनश्रुति एवं पौराणिक दृष्टि से मां बेलोन वाली को साक्षात देवादिदेव महादेव की अद्धांगिनी माता पार्वती का स्वरूप माना जाता है। इसे लेकर दो अलग-अलग दंत कथाएं सामने आती हैं। चूंकि मां बेलोन वाली के प्रादुर्भाव को लेकर अभी कोई किसी तरह का लिखित दस्तावेज नहीं है। इसलिए इन दंत कथाओं के संकलन में लेखन को भारी दुश्वारियों से रूबरू होना पड़ा लेकिन दोनों ही दंत कथाओं से एक बात साफ है कि मां बेलोन वाली वीरासन में हैं। अर्थात मैया का एक पैर पाताल में है और तमाम प्रयासों के बाद भी मैया की मूर्ती को हटाना तो दूर हिलाया भी नहीं जा सकता। इनके प्रादुर्भाव का प्रसंग भी राजा दक्ष के यज्ञ उसमें देवादिदेव महादेव की अवहेलना, पिता के असहनीय व्यवहार से दुखी होकर मां पार्वती द्वारा देह त्यागने और इससे कुपित महादेव के गुणों यज्ञ विध्वंस की पौराणिक कथाओं से जुड़ा है।

भगवान शिव और पार्वती एक बार पृथ्वी लोक के भ्रमण पर निकले। भ्रमण करते-करते वह गंगा नदी के पश्चिमी छोर के पास स्थित बिलबन क्षेत्र में आ गए। प्राचीन काल में यह क्षेत्र बेल के वन से घिरा हुआ था, जिससे इसका नाम बिलवन पड़ गया। यहां पार्वती मैया को एक सिला दिखाई दी। वह इस पर बैठने के लिए ललायित हुई। भगवान शिव से अपनी इच्छा प्रकट की और उनकी अनुमति मिलने पर वह सिला पर बैठ गई। मां पार्वती के विश्राम करने पर भगवान शिव भी पास ही एक वटवृक्ष के पास आसन लगाकर बैठ गए। बताते हैं कि इसी मध्य वहां एक बालक आया और वह सिला पर बैठकर आराम कर रहीं पार्वती मैया के पैर दबाने लगा। यह देख माता पार्वती ने आनंद और आश्चर्य का मिश्रित भाव व्यक्त करते हुए भगवान महादेव से पूछा कि महाराज यह बालक कौन है और इस सिला पर बैठकर मैं इतनी आनंद विभार क्यों हूं।

भगवान महादेव ने माता पार्वती को राजा दक्ष के यज्ञ प्रसंग का वृतांत सुनाते हुए कहा कि पिता के अपमान जनक व्यवहार से दुखी होकर जब पूर्व जन्म में तुमने देह को लेकर आकाश मार्ग से गुजर रहे थे। तब सती के शरीर से एक मां का लोथड़ा और खून की कुछ बूंद जिस सिला पर पड़ी और इसके गर्भग्रह में समा गई। यह बालक उसी का अंश हैं यह बालक तभी से आपके दर्शन की इच्छा के साथ उपासना कर रहा था। आज तुम्हारे साक्षात दर्शन से इसकी उपासना पूरी हो गई। इस पर भाव विहवल मां पार्वती ने बालक को गोद में उठा लिया। वह इस बालक के साथ कुछ समय यहां रहीं। उसी समय भगवान शिव ने कहा कि आज से यह सिला साक्षात तुम्हारा स्वरूप होगा, और मां सर्व मंगला देवी के नाम से विख्यात होगा, जो भी व्यक्ति शुक्ल पक्ष की बारह अष्टमी तुम्हारे दर्शन करेगा। उसे मनवांछित फल प्राप्त होगा। यह बालक लांगुरिया के नाम से जाना जाएगा। इसके दर्शन से ही मां सर्व मंगला देवी की यात्रा पूरी होगी।

जब मां पार्वती यहां से चलने को हुई तो उनके शरीर से एक छायाकृति निकली और सिला में समा गई जिससे सिला एक मूर्ति के रूप में बदल गई। इसके लगभग 250 गज दूर जहां भगवान शिव ने विश्राम किया था। वह स्थान वटकेश्वर महादेव मंदिर हो गया। यह प्रसंग सतयुग का है। बताते हैं कि द्वापर में राक्षसों के बढ़ते अत्याचार से लोग त्राहि-त्राहि करने लगे। ब्रज से लगे कोल वत्मान में अलीगढ़ क्षेत्र के कोल राक्षस ने आतंक बरपा रखा था। आसपास की जनता ने भगवान कृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता दाऊ बलराम से कोल के आतंक से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। इसी के बाद बलराम ने कोल राक्षस मारा गया। इससे क्षेत्र की जनता को काफी राहत मिली। कोल का वध करने के बाद बलराम जी ने रामघाट पर गंगा में स्नान किया। इस दौरान उन्हें दैवीय शक्ति के प्रभाव की अनुभूति हुई। इसके सम्मोहन में बलराम विलवन क्षेत्र में पहुंच गए। यहां देवी के दर्शन की इच्छा के साथ उन्होंने घोर तप किया और इससे प्रसन्न होकर मां सर्वमंगला देवी ने उन्हें दर्शन दिये। देवी ने बलराम से कहा कि वह उनकी खंडित शक्ति को पूर्ण प्रतिष्ठित करें। इसके बाद बलराम ने मां सर्वमंगला देवी के दर्शन को पूर्ण प्रतिष्ठित किया। जनश्रुति के अनुसार मां सर्वमंगला देवी के दर्शन की अभिलाषा से बलराम ने चैत्र शुक्ल पक्ष की अष्टमी को तपस्या शुरू की और अगली चैत्र शुक्ल भी अष्टमी को मां ने उन्हें दर्शन देकर तपस्या का समापन कराया। तभी से चैत्र सुक्ल पक्ष की अष्टमी को मां सर्वमंगला देवी के दर्शन का विशेष महत्व माना जाता है। कालचक्र बदला क्षेत्र में भूस्खलन हुआ नतीजतन बेलों का बगीचा जमीन में समा गया और मां सर्वमंगला देवी की जहां मूर्ति थी वह क्षेत्र टापू में बदल गया। इससे थोड़ी दूर ही बसावच थी। जिसे खेड़ा कहा जाता था. यह मूलतः घसियारों ( गास खोदकर जीवन यापन करने वाले किसान परिवार) का (खेड़ा) गांव था। घसियारे जब घास खोदने निकलते थे तो उसी स्थान पर एकत्रित होते थे, जहां जमीन में मां सर्वमंगला देवी की मूर्ति दबी हुई थी। मूर्ति के सिर का छोटा सा हिस्सा बाहर चमकता था। घसियारे इसे पत्थर की सिला समझकर इस पर अपनी खुरपी की धार बनाया करते थे। इससे मां को काफी पीड़ा होती थी। मां के सिर में खुरपी पर धार रखने के लिए की जाने वाली घिसाई से एक गड्ढा हो गया जो आज भी विध्मान है। बताते हैं कि एक बार जहांगीर शिकार खेलते हुए इसी बिलवन क्षेत्र में आ गया। उसके साथ सेनापति अनीराम बड़बूजर भी था। अचानक एक शेर ने जहांगीर पर आक्रमण कर दिया। जहांगीर को शेर से बचाने के लिए बड्बूजर ने अपनी जान की परवाह न कर शेर के मुंह में अपना हाथ डाल दिया। पास ही खड़ा शहजादा खुर्रम यह घटना देख रहा था वह सेनापति की जिंदादिली से काफी प्रभावित हुआ। उसने सेनापति को संकट में फंसा देखकर अपनी तलवार से शेर पर पीछे से वार कर उसे मार डाला। बाद में जहांगीर ने सेनापति की बहादुरी से खुश होकर उसे 1556 गांवों की जमींदारी ईनाम में दी। बिलवन क्षेत्र भी इसी में शामिल था। समय चक्र फिर बदला। जहांगीर के सेनापति बड्बूजर के वंशज राव भूपसिंह बड़े धर्मपरायण स्वभाव के हुए। उन्होंने इसी क्षेत्र में अपनी गढ़ी( हवेली) बनवाई और पूजा पाठ में रम गए। एक दिन मां सर्वमंगला देव ने उनहें स्वप्न दिया कि वह अमुक स्थान में जमीन में दबी है। अतः उनकी मूर्ति जहां है वहां खुदाई करवाकर उसका भवन बनवा दें। राव भूपसिंह को स्वप्न तो याद रहा। पर वह स्थान याद नहीं रहा जहां मां ने अपनी मूर्ति होने की जानकारी दी थी। अब तो राव भूपसिंह की बेचैनी बढ़ने लगी। जब पीड़ा असहनीय हो गई तो उन्होंने बनारस के विद्वान ब्राह्मणों को बुलाकर अपनी समस्या बताई।ब्राह्मणों ने राव को इसके लिए सतचंडी यज्ञ करने का सुझाव दिया। राव तुरंत तैयार हो गए। शतचंडी यज्ञ हुआ और यजमान बने राव ने रात्रि विश्राम यज्ञ प्रांगण में ही किया। रात्रि में मां सर्वमंगला देवी ने उन्हें फिर स्वप्न दिया और वह स्थान बताया जहां उनकी प्रतिमा दबी थी। सुबह होते ही राव ने ब्राह्मणों को स्वप्न की जानकारी दी और ब्राह्मणों के निर्देश पर राव भूपसिंह ने मां द्वारा बताये स्थान पर खुदाई शुरू कराई तो वहां मां की इस मूर्ति को देखकर राव ने इसे अपनी हवेली के बाहर लगाने का मन बनाया।

मजदूरों को मूर्ति सुरक्षित निकालने का हुक्म दिया। मजदूरों ने काफी कोशिश की मगर हार थक्कर बैठ गए। मूर्ति के एक पैर का कोई ओर छोर नहीं मिला। तब मां ने राव को बताया कि उनका एक पैर पाताल में है। इसलिए मेरा इसी स्थान पर भवन(मंदिर) बनवाओ। और इसी तरह मां सर्वमंगला देवी के मंदिर का निर्माण हुआ। बताया जाता है कि राव भूप सिंह के वंशज कल्याण सिंह के कोई संतान नहीं हुई। इससे वह काफी विचलित हुए और बनारस के विद्वान दर्माचार्यों की शरण ली। धर्माचायों ने कहा कि जब तक मैया का चढ़ावा खाना बंद नहीं करोगे, संतान सुख असंभव है। कल्याण सिंह ने इस पर तुरंत अमल किया और मैया की पूजा सेवा के लिए दो ब्राह्मणों को दायित्व सौंप दिया। इसी के बाद राव कल्याण सिंह को संतान की प्राप्ति हुई। बेलोन वाली मैया के प्रांगण में हर साल बलिदान दिवस भी मनाया जाता है। यह चैत्र शुक्ल की त्रयोदश एवं आश्विन माह के शुक्लपक्ष की त्रयोदशी को मनाया जाता है। करीब तीन दशक पूर्व .यहां बकरे की बलि दी जाती थी। चूंकि पूजा अर्चना का दायित्व संभालने वाले ब्राह्मणों ने बलिपूजा से खुद को शामिल होने से असमर्थता व्यक्त कर दी थी। इसलिए इसके लिए अगल से वयक्ति की नियुक्ति की गई। बाद में जीव हत्या का विरोध होने पर इस बली पर रोक लगा दी गई और उसकी जगह नारियल ने ले ली। मां बेलोन का भवन जहां बना है वह बेलपत्रों का वन क्षेत्र है। प्रारंभ में लोग बिलबका या बिलवन वाली मैया के नाम से भी पुकारते थे जो बाद में अपभ्रंश होते-होते बेलोन हो गया। प्रशासनिक दस्तावेजों में यह देवस्थल मां बेलोन वाली के नाम से ही चिन्हित है। बेलोन वाली मैया के भवन के आसपास मुख्य बाजार बन गया है।

सन्दर्भ[संपादित करें]