पाटा

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पाट (स्त्री० पाटी) अर्थात् बैठने के लिए प्रयुक्त पीढ़ा। प्रायः यह काठ का होता है किन्तु चाँदी आदि धातुओं के पात भी प्रयुक्त होते हैं। विवाह में कन्यादान के उपरांत वर के पीढ़े पर कन्या और कन्या के पीढ़े पर वर को बैठाया जाता है।

बीकानेर के पाटे[संपादित करें]

राजस्थान में करीब पाँच सौ वर्षों से अधिक प्राचीन एवं दीर्घ कालावधि तक परकोटे में सिमटे रहे ऐतिहासिक एवं पारम्परिक शहर बीकानेर की अपनी विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान है। जातीय आधार पर विभिन्न चौकों/गुवाडों (मौहल्लों) में आबाद इस परकोटायुक्त शहर में आकर्षण का केन्द्र है विभिन्न चौकों/गुवाडों में अथवा घरों के बाहर पाय जाने वाले ’’पाटे‘‘ (तख्त)। ’’पाटियों‘‘ (लकडी की पट्टियों) से निर्मित ’’पाटे‘‘ सामान्यतः घरों के भीतर १ बाई १ या २ बाई २ वर्गफुट से लेकर मौहल्लों में १० बाई ८ वर्गफुट के होते हैं। घरों के भीतर पाटों की बनावट एवं सुन्दरता की भिन्नता उनमें व्यक्त प्रतिष्ठा एवं सम्मान की भिन्नता के अर्थ लिये हुए होती है। अतिथियों के भोजन या आनुष्ठानिक सामग्री की थाली रखने, विवाह में दूल्हा-दुल्हन को बिठाने आदि के लिए इन पाटों का प्रयोग होता है। लकड़ी के साधारण पाटों की अपेक्षा चाँदी के कलात्मक पाटे उच्च स्तर, प्रतिष्ठा एवं सम्मान के द्योतक होते हैं। मोहल्लों में स्थित विशाल पाटे तीन प्रकार के हैं- पहला: अतीत में बीकानेर नरेश के कृपा-पात्र व्यक्तियों द्वारा निर्मित एवं स्थापित पाटे, जो उनके राजनीतिक व प्रशासनिक प्रभुत्व, सामाजिक प्रतिष्ठा, आर्थिक सम्पन्नता एवं सांस्कृतिक योगदानों के द्योतक रहे हैं। दूसरा: कतिपय जातियों द्वारा स्थापित पाटे, जो जाति विशेष की उच्च स्थिति को इंगित करने के साथ-साथ अन्तरजातीय संबंधों, जातीय सदस्यों के अन्तर्सम्बन्धों, सार्वजनिक क्रियाकलापों, अथवा गतिविधियां, दान-पुण्य की क्रियाओं आदि के केन्द्र रहे हैं। तीसरा: किसी जाति अथवा मौहल्ले में किसी प्रकार-विशेष द्वारा स्थापित पाटे जो जाति-विशेष के परिवार की प्रतिष्ठा/सम्पन्नता को दर्शाते हैं। ये पाटे पारिवारिक, वैवाहिक, जातीय, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, आनुष्ठानिक, साहित्यिक, जनसंचार आदि विभिन्न क्रियाकलापों के जटिल संकुल हैं जो आज भी अस्तित्व में हैं। परकोटायुक्त शहर बीकानेर में पाटा संस्कृति का भाग है। सामान्य जन द्वारा इस शहर के जीवन को पाटा संस्कृति कहा जाता है। पाटा संस्कृति एवं पाटों के सांस्कृतिक सन्दर्भ की व्याख्या करने से पहले संस्कृति के अर्थ एवं संस्कृति की संरचना की विवेचना करनी होगी।

परकोटायुक्त शहर बीकानेर में पाटों का अभिप्राय[संपादित करें]

पाटा ऐतिहासिक एवं परम्परावादी शहर बीकानेर की मौलिक विशेषता है जिसे दृश्य रूप में परकोटायुक्त शहर में जातीय आधार पर बसे विभिन्न चौकों, गुवाडों, मौहल्लों में सार्वजनिक रूप से देखा जा सकता है। सामान्य तौर पर पाटा लकड़ी या लोहे से निर्मित बैठक या चौपाल है जिस पर मौहल्ले के निवासी बैठकर अपना सुख-दुःख बाँटते हैं। लेकिन सामाजिक एवं सास्कृतिक दृष्टि से पाटा परकोटायुक्त शहर की नियामक इकाई है, जिस पर अनेक परम्पराएँ एवं रीति-रिवाज सम्पन्न होते हैं।

अतः पाटों के अर्थ को दो अर्थों में स्पष्ट किया जा सकता है।

पाटों का शाब्दिक अर्थ[संपादित करें]

पाटा संस्कृत भाषा के शब्द संस्कृत: पाट से बना है जिसका अर्थ दो किनारों के बीच की दूरी अर्थात् नदियों के दो तटों के बीच में जो दूरीयाँ होती है वह पाट कहलाती है। उसी तरह दो व्यक्तियों या दो जातीयों के बीच सामाजिक समागम की सीमा निर्धारित करने वाली इकाई पाटा कहलाता है अर्थात सामान्य व विशिष्ट व्यक्तियों या उच्च व निम्न जातीयों के बीच दूरियाँ मर्यादित करने वाला स्थान पाटा कहलाता है। जो प्रारम्भ में वैचारिक था, कालान्तर में स्थानिक हो गया और भौतिक प्रतिमान के रूप में उभर कर सामने आया। लेकिन वर्तमान में यह अर्थ कमजोर होता जा रहा है।

पाटों का सांस्कृतिक अर्थ[संपादित करें]

पाटा संस्कृति का एक भाग है लेकिन परकोटायुक्त शहर में यह अपने-आप में संस्कृति है। साधारण बोलचाल में इस शहर की संस्कृति को पाटा संस्कृति कहा जाता है। वास्तव में पाटा भौतिक दृश्यमान वस्तु है जो सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है तथा मूक दर्शक के रूप में गतिहीन मगर चेतन है। लेकिन पाटों का एक सांस्कृतिक क्षेत्र है। इनसे सम्बन्धित अनेक प्रतिमान है। यह अनेक सांस्कृतिक तत्त्वों का संकुल है। इस पर जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त तक के संस्कार सम्पन्न होते हैं। धार्मिक एवं सामाजिक उत्सवों में पाटों की उपस्थिति आवश्यक है। पाटा पूर्वजों की कर्मस्थली है। तभी तो इस परकोटायुक्त शहर में ८० वर्ष की स्त्री पाटों के आगे से निकलते समय घूंघट अवश्य करती है। जबकि पाटों पर उनकी सन्तान के बराबर के व्यक्ति बैठे होते हैं। जब उस स्त्री से पूछा गया कि आपने घूंघट क्यों किया ? पाटों पर बैठे सभी व्यक्ति आपकी सन्तान तुल्य हैं तो उस औरत का उत्तर था कि पाटा हमारे दादा-ससुर व ससुर की पहचान व बैठने की जगह है। उनकी आत्मा तो पाटों पर ही रहती हैं क्योंकि उन्होंने पूरा जीवन इन्हीं पाटों पर बिताया है। इस दृष्टि से मानवशास्त्रीय अर्थ में पाटा ’’टोटम‘‘ है जो एक पवित्र वस्तु होने के साथ-साथ सामाजिक नियन्त्रण का कार्य करता है।

पाटा-परम्परा का उदय/पाटों की उत्पत्ति[संपादित करें]

परम्परा अमूर्त एवं अलिखित होती है। कालान्तर में लिखित साहित्य के साक्ष्य पर आधारित हो जाती है। अतः परम्परा तो शाश्वत है, जो स्वतः विकसित होती हैं और धीरे-धीरे सामाजिक विरासत व सामाजिक प्रतिमान बन जाती है।

पाटा और पाटों की परम्परा की उत्पत्ति का पता लगाना एक कठिन कार्य है। ५०० वर्षों के परकोटायुक्त शहर बीकानेर के इतिहास में पाटों की उत्पत्ति के बारे में ऐतिहासिक प्रमाण खोजने के दोरान कुछ ऐतिहासिक प्रमाण मिले जिनके आधार पर पाटों की उत्पत्ति के बारे में निम्न निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं-

१. कवि श्री उदयचन्द खरतरगच्छ मथेन की ’’बीकानेर गजल‘‘ १७०९ नामक रचना में नगर व बाजार वर्णन काव्य में चौक का सन्दर्भ शामिल है, जिसमें लिखा गया है कि -

’’चौहटे बिच सुन्दर चौक, गुदरी जुरत है बहु लोक,
सुन्दर सेठ बैसे आय, वागे खूब अंग बणाय।।‘‘

अर्थात् बाजार के बीचोंबीच चौक (पाटे) लगे हुए हैं जिन पर सेठ-साहुकार आकर बैठते हैं और व्यापार, परिवार तथा पूरे संसार की बातें करते हैं। उसी प्रकार गोदा चौकी का भी उल्लेख इस रचना में होता है। गोदा वास्तुशास्त्री था जिसने भांडासर जैन मन्दिर का निर्माण किया और उसी की याद में परकोटायुक्त शहर के रांगडी चौक में पत्थर की सुन्दर चौकी बनाई गई है। यह चौकी सुन्दर नक्काशी के लिए उस समय प्रसिद्ध थी। यह चौकी पाटे के आकार की बनी हुई थी, शोधवेत्ता कृष्णकुमार शर्मा के अनुसार इसी चौकी पर पगौडी शैली में सात पाटे रखे जाते थे। प्रसिद्ध भांडासर जैन मन्दिर का निर्माण पगौडी शैली में ही बनाया गया है। कुद लोगों का कहना है मन्दिर का निर्माण पाटों की इस शैली को देखने के बाद किया गया तो अन्य लोगों का मत है कि वास्तुकार गोदा की याद में यह पगौडा शैली के पाटों की परम्परा प्रारम्भ की गई। पिछले १० वर्षों से एक पाटे पर सात पाटे रखने की पगौडा शैली परम्परा समाप्त हो गई है।

२. बीकानेर जैन संघ का विज्ञप्ति पत्र सन् १८३८ में अजीमगंज में विराजित खतरगच्छ नामक श्री सौभाग्य सूरिजी को आमन्त्रणार्थ भेजा गया जिसमें चित्रमय बीकानेर नगर का वर्णन किया गया है। राजा के सिंहासन की जगह पाटा दर्शाया गया है। इसी प्रकार उसमें गोदैरी चौकी, बोथरा चौकी, मालुवां री चौकी का चित्रण किया गया है। रास्ते में लोगों की भीड में पाटों का चित्रण दर्शाया गया है।

३. बीकानेर के शासक जोरावरसिंह (१७४०) के शासन में मोहता दीवान बख्तावरसिंह के मकान के आगे पाटा रखा हुआ है। इसका उल्लेख हरसुदास मोहता की बही (१९०६) में मिलता है। दीवान साहब की हवेली व शान-शौकत से तत्कालीन सरदार अमरसिंह व राजा जोरावरसिंह के चचेरे भाई उनके विरोधी बन गये। बाद में दीवान बख्तावरसिंह ने अमरसिंह की जगह, उनके भाई गजसिंहजी को सन्तानहीन शासक की मृत्यु के बाद बीकानेर का शासक बनाया।

इन ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर बीकानेर शहर में १७०८ से पाटों की परम्परा चलती आ रही है लेकिन लोक-मान्यताओं के आधार पर राव बीका के समय से ही पाटों की परम्परा चलती आ रही है क्योंकि शासक स्वयं पाटों पर बैठकर ही शासन चलाते थे। स्थानीय भाषा में सिंहासनासीब होने को ’’पाट बैठना‘‘ कहा जाता है। स्थानीय लोगों का कहना है कि प्रारम्भ में पाटे सरदारों के डेरों में लगते थे। जब राव बीका ने अपने पिता राव जोधा से राज चिह्न माँगे तो उन्होंने अपनी मृत्यु के बाद देने का वादा किया। जब उनकी मृत्यु हो गई तब उन्होंने अपने सौतेले भाई राव सूजाजी से ये चिह्न माँगे तो उन्होंने देने से मना कर दिया। तब राव बीका ने जोधपुर पर आक्रमण कर दिया और मजबूर होकर जोधपुर नरेश को वे राज चिह्न देने पडे। यह राव बीका की प्रथम राजनीतिक जीत थी। इन राजचिह्नों में छत्र, चंवर, ढाल, तलवार, कटार, नागणेचीजी देवी की अठारहभुजी मूर्ति, तख्त, करण्ड, भवरढोल, बैरीसाल नगाडा, दलसिगार घोडा और भूजाई है। जिनमें तख्त राजदरबार का पवित्र सिंहासन है। इसका आकार पाटे के समान है। जब राव बीका इस तख्त पर बैठे तब उन्होंने अपने सरदारों से कहा था कि ’’हम बैठे अपने दरबार पाट, तुम सब बैठो अपने डेरे पाट‘‘ अर्थात् आज से हम दरबार में सिंहासन पर बैठ गये हैं और तुम सब भी अपने डेरे (मकान) में सिंहासन पर बैठो। उसी दिन से पाटे डेरों के आगे लगने लगे।

इसके अलावा जातीय पंचायतों की बहियों में भी पाटों की स्थापना का उल्लेख मिलता है। जैसे सूरदासाणी पंचायत की बही में सन् १८०९ में पाटों के निर्माण का उल्लेख मिलता है। लखोटियों के चौक में लखोटियों की पंचायत बही में भी पंचायत का पाटा भी १८वीं शताब्दी में मौजूद था। इस प्रकार परकोटायुक्त शहर बीकानेर में १८वीं शताब्दी से पाटों की परम्परा लोक-जीवन में चलती आ रही है। जबकि लोक-मान्यताओं के आधार पर यह ५०० वर्षों से बीकानेर में राव बीका के समय से प्रचलित है। प्रारम्भ में लकड़ी के पाटों की जगह पत्थर की चौकियाँ प्रत्येक मौहल्ले में स्थापित थी।

पाटों की संख्यात्मक स्थिति[संपादित करें]

परकोटायुक्त शहर बीकानेर में पाटों के समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए विभिन्न मौहल्ले, चौक, गुवाड में स्थित पाटों के बारे में प्राथमिक तथ्यों के संकलन हेतु पाटों पर बैठने वाले वृद्ध एवं प्रौढ उत्तरदाताओं तथा मौहल्ले के घरों में से चुने गये उत्तरदाताओं से व्यक्तिगत साक्षात्कार के दौरान निम्नलिखित जानकारियाँ प्राप्त हुई हैं-

१. परकोटायुक्त शहर में वर्तमान में विभिन्न मौहल्लों में ९३ पाटे स्थित हैं।

२. १९५० से पहले बीकानेर शहर में लगभग १२० पाटे स्थित थे। इस तरह वर्तमान में २७ पाटे लुप्त हो गये।

३. वर्तमान में स्थित पाटों में १४ पाटों का पुराने पाटों की जगह नवनिर्माण कराया गया है।

४. वर्तमान में ७० प्रतिशत पाटों की देखरेख जातीय पंचायत के द्वारा की जाती है। २० प्रतिशत पाटे परिवार-विशेष द्वारा तथा १० प्रतिशत पाटों की देखरेख सामूहिक रूप से की जाती है।

५. परकोटायुक्त शहर के पाटों में ९० प्रतिशत पाटे पूर्ण रूप से लकड़ी के निर्मित हैं। १० प्रतिशत पाटे लोहे के बने हैं। लेकिन पट्टियाँ लकड़ी की हैं। इनके अलावा २२ प्रतिशत पाटे कलात्मक एवं अधिक पैर (पागे) वाले हैं शेष साधारण हैं।

६. पाटों के निरीक्षण के दौरान पाया गया कि ३० प्रतिशत पाटे अत्यन्त पुराने हो गये हैं। उनकी स्थिति अत्यन्त खराब है। लम्बे समय से देखरेख के अभाव के कारण ये जर्जर अवस्था में पहुँच गये हैं।

७. परकोटायुक्त शहर के प्रत्येक हिन्दू व जैन परिवार में पाटों का उपयोग किया जाता है।

८. घरों में पाटे विभिन्न प्रकार के, जैसे चाँदी की पात वाले, कलात्मक पाटे, लकड़ी की नक्काशी वाले पाटे, सुन्दर चित्रकारी के पाटे तथा साधारण परिवार में साधारण लकड़ी के पाटे देखे गये हैं।

पाटों के सांस्कृतिक एवं सामाजिक प्रकार्य[संपादित करें]

परकोटायुक्त शहर के सर्वेक्षण व निरीक्षण के दौरान प्राप्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि पाटा एक जटिल सांस्कृतिक स्कूल है, जिसके अनेक स्वरूप, प्रकार्य एवं आयाम हैं। शहर बीकानेर के जीवन में पाटों की उपादेयता अपने आप में एक प्रतिमानकता हे। जिसे निम्नलिखित तथ्यगत विवरण के आधार पर स्पष्ट किया जा रहा है ः-

धार्मिक कर्मकाण्ड एवं पाटे[संपादित करें]

बीकानेर शहर, जिसे स्थानीय लोग धर्मनगर कहते हैं, आजादी से पहले इसी शहर को छोटा काशी भी कहते थे क्योंकि यहाँ प्रतिरोज कोई-ना-कोई धार्मिक आयोजन, जैसे यज्ञ, अनुष्ठान, कथावाचन होते रहते हैं। यहाँ जितने भी धार्मिक कर्मकाण्ड आयोजित किये जाते हैं उनकी खास पहचान पाटों की धार्मिक मान्यता एवं उनका उपयोग है। जीवन में पाटों का उपयोग हर जगह किया जाता है। चाहे मन्दिर हो या मकान या धार्मिक संस्कार, सभी जगह पाटों को पवित्र माना जाता है। क्योंकि शास्त्रों में लकडी, हवा, फल, बहता पानी व अग्नि को पवित्र माना जाता है। पाटे लकड़ी के बने होते हैं इसलिए वे धार्मिक कर्मकाण्डों में पवित्र माने जाते हैं।