बिली अर्जन सिंह
यह लेख तटस्थ दृष्टिकोण की जगह एक प्रशंसक के दृष्टिकोण से लिखा है। कृपया इसे तटस्थ बनाने में, और इसकी गुणवत्ता सुधारने में मदद करें। (फ़रवरी 2015) |
कुँवर बिली अर्जन सिंह | |
---|---|
कुँवर बिली अर्जन सिंह का चित्र | |
जन्म |
15 अगस्त 1917 गोरखपुर, उत्तर प्रदेश, भारत |
मौत |
1 जनवरी 2010 (93 वर्ष की आयु में) |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
शिक्षा | बी.ए. अंग्रेजी इतिहास अर्थशास्त्र |
शिक्षा की जगह | नैनीताल लखनऊ इलाहाबाद |
प्रसिद्धि का कारण |
टाइगर हैवन भारत के जंगलों में पहली बार बाघ व तेन्दुओं का सफ़ल पुनर्वासन |
कुँवर बिली अर्जन सिंह (१५ अगस्त १९१७ – १ जनवरी २०१०) विश्वप्रसिद्ध बाघ सरंक्षक एंव पर्यावरणविद् थे। दुधवा नेशनल पार्क के संस्थापक, बाघ एंव तेन्दुओं के पुनर्वासन कार्यक्रम के जनक बिली जीवन पर्यन्त खीरी जनपद के जंगलों के सरंक्षण व सवंर्धन में संघर्षरत रहे। ब्रिटिश-इंडिया में उत्तर-खीरी वन-प्रभाग के समीप सुहेली नदी पर निवास बनाकर वन्य जीवों की सुरक्षा में शिकारियों एंव भ्रष्ट सरकारी तन्त्र से लड़ाइया लड़ते रहे। वन्य जीवन के क्षेत्र में पूरी दुनिया में इनके प्रयोगों की चर्चा रही और आज के बाघ सरंक्षक इनके कार्यों से प्रेरणा लेते आ रहे हैं।
जीवन परिचय
[संपादित करें]कुँवर अर्जन सिंह (१९१७-२०१०) १५ अगस्त १९१७ को गोरखपुर में हुआ। बिली कपूरथला रियासत के राजकुमार थे। इनका बिली नाम इनकी बुआ राजकुमारी अमृत कौर ने रखा था जो महात्मा गांधी की सचिव व नेहरू सरकार में प्रथम महिला स्वास्थ्य मंत्री रही, आप की शिक्षा-दीक्षा ब्रिटिश-राज में हुई, बलरामपुर रियासत में इनके पिता को बरतानिया हुकूमत ने कोर्ट-आफ़-वार्ड नियुक्त किया था, सो इनका बचपन बलरामपुर की रियासत में गुजरा। बलरामपुर के जंगलों में इनके शिकार के किस्से मशहूर रहे और 12 वर्ष की आयु में ही इन्होंने बाघ का शिकार किया। राज-परिवार व एक बड़े अफ़सर के पुत्र होने के कारण आप ने ऊंचे दर्जे का इल्म हासिल किया और ब्रिटिश-भारतीय सेना में भर्ती हो गये, द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद इन्होंने खीरी के जंगलों को अपना बसेरा बनाना सुनश्चित कर लिया। पूर्व में इनकी रियासत की तमाम संपत्तियां खीरी व बहराइच में रही थीं जिन्हें अंग्रेजों ने इनके पुरखों को रिवार्ड के तौर पर दी थी। द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त बिली ने खीरी के जंगलों को अपना घर बना लिया और यहीं रह कर पचास वर्षों तक वन्य जीव सरंक्षण में अपना अतुलनीय योगदान दिया, जो आज पूरी दुनिया में एक मिसाल है। बिली जीवन पर्यन्त दुधवा नेशनल पार्क के ऑनरेरी वाइल्डलाइफ़ वार्डन रहे। यू०पी० वाइल्ड-लाइफ़ बोर्ड व इंडियन वाइल्ड लाइफ़ बोर्ड के सद्स्य रहे बिली श्रीमती गांधी के निकट संबधियों में थे, इन्होने अपनी पुस्तक तारा- ए टाइग्रेस, श्रीमती इन्दिरा गांधी को समर्पित की है। लखीमपुर खीरी में पलिया के निकट स्थित जसवीर नगर फ़ार्म पर बिली अर्जन सिंह का निधन १ जनवरी २०१० को हुआ। इस वक्त बिली की उम्र ९३ वर्ष थी।
शिकार का परित्याग
[संपादित करें]१९६० में बिली की जीप के सामने एक तेन्दुआ गुजरा अंधेंरी रात में जीप की रोशनी में उसकी सुन्दरता ने बिली का मन मोह लिया, ये प्रकृति की सुन्दरता थी जिसे अर्जन सिंह ने महसूस किया !! इसी वक्त उन्होंने शिकार को तिलांजली दे दी।
टाइगर हैवन
[संपादित करें]खीरी में जंगलों के मध्य रहने का व खेती करने का निश्चय दुधवा नेशनल पार्क के अस्तित्व में आने का पहला कदम था। १९४६ में अपने पिता के नाम पर जसवीर नगर फ़ार्म का स्थापित करना और फ़िर १९६८ में टाइगर हावेन का, यह पहला संकेत था नियति का कि अब खीरी के यह वन अपना वजूद बरकरार रख सकेगे, नहीं तो आजाद भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थान्तरित किए गये शाखू के विशाल वन बेतहाशा काते जा रहे थे, जाहिर सी बात है हमने आजादी तो ले ली थी किन्तु हमारी निर्भरता प्राकृतिक संसाधनों पर ही थी और शायद आज भी है! इन्दिरा जी की वजह से ही टाइगर हावेन में बाघों व तेन्दुओं के पुनर्वासन का प्रयोग संभव हुआ। यह वह दौर था जब देश-विदेश के फ़िल्म-निर्माताओं में होड़ मची थी कि कौन बिली के इन अनूठे प्रयोगों पर अपनी बेहतरीन डाक्यूमेंटरी बना ले। भारत के किसी भी अभयारण्य की चर्चा इतनी नहीं थी जितनी बिली के इस प्राइवेट फ़ारेस्ट की थी जिसे सारी दुनिया टाइगर हावेन को जानती है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इस अन्तर्राष्ट्रीय शख्सियत बिली अर्जन सिंह ने ब्रिटिश-भारतीय सेना का दामन छोड़ खीरी के विशाल जंगलों को अपना मुस्तकबिल बना लिया और उसे एक खूबसूरत अंजाम भी दिया, जिसे आज हम दुधवा नेशनल पार्क के नाम से जानते हैं। शुरूवाती दिनों में पलिया से सम्पूर्णानगर जाने वाली सड़क पर अपने पिता जसवीर सिंह के नाम पर एक फ़ार्म हाउस का निर्माण किया और खेती को अपना जरिया बनाया। कभी शिकारी रह चुके बिली जब एक दिन अपनी हथिनी पर सवार हो जंगल में दाखिल हुए तो सुहेली और नेवरा नदियों के मध्य भाग को देखकर स्तब्ध रह गये, अतुलनीय प्राकृतिक सौन्दर्य से आच्छादित थी ये धरती जिसके चारो तरफ़ शाखू के विस्तारित वन। यही वह घड़ी थी जिसने टाइगर हावेन के प्रादुर्भाव का निश्चय कर दिया था। सन १९६९ ई० में यह जंगल बिली ने खरीद लिया, जिसके दक्षिण-उत्तर में सरितायें और पश्चिम-पूर्व में घने वन। और यहाँ बाघों और तेन्दुओं के लिए टाइगर हैवन की स्थापना की।
दुधवा नेशनल पार्क
[संपादित करें]अर्जन सिंह के निरन्तर प्रयासों से सन १९७७ में दुधवा नेशनल पार्क बना और फ़िर टाइगर प्रोजेक्ट की शुरूवात हुई और इस प्रोजेक्ट के तहत सन १९८८ में दुधवा नेशनल पार्क और किशनपुर वन्य जीव विहार मिलाकर दुधवा ताइगर रिजर्व की स्थापना कर दी गयी। टाइगर हावेन से सटे सठियाना रेन्ज के जंगलों में बारहसिंहा के आवास है जिसे संरक्षित करवाने में बिली का योगदान विस्मरणीय है।
वन-विभाग से अलग हो वाइल्डलाइफ़ विभाग
[संपादित करें]अर्जन सिंह हमेशा कहते रहे की फ़ारेस्ट डिपार्टमेन्ट से वाइल्ड-लाइफ़ को अलग कर अलग विभाग बनाया जाय, वाइल्ड-लाइफ़ डिपार्टमेन्ट! क्योंकि उस जमाने में फ़ारेस्ट डिपार्टमेन्ट जंगल बचाने के बजाए कटाने के प्रयास में अधिक था, सरकारे जंगलों का टिम्बर माफ़ियाओं के द्वारा इनका व्यवसायी करण कर रही थी। यदि यह अलग विभाग बना दिया जाय तो इसमें शामिल होने वाले लोग वन्य-जीवन की विशेषज्ञता हासिल करके आयेंगे। जंगलों की टूटती श्रंखलाएं बिली के लिए चिन्ता का विषय रही, क्योंकि बाघों का दायरा बहुत बड़ा होता है और यदि जंगल सिकुड़ते गये तो बाघ भी कम होते जायेंगे! कभी आदमी के न रहने योग्य इस इलाके में "द कलेक्टिव फ़ार्म्स एंड फ़ारेस्ट लिमिटेड ने १०,००० हेक्टेयर जंगली भूमि का सफ़ाया कर दिया और लोग पाकिस्तान से आ आ कर बसने लगे, बाद में भुदान आंदोंलन में बसायें गये लोगों ने घास के मैदानों को गन्ने के खेतों में तब्दील कर दिया। और दुधवा जंगल का वन-टापू में तब्दील हो गया। जो बिली को सदैव परेशान करता रहा। आजादी के बाद जिस तरह इस जंगली क्षेत्र में लोगों ने रूख किया और वन-भूमि को कृषि भूमिं में तब्दील करते चले गये वही वजह अब बाघों और अन्य जीवों के अस्तित्व को मिटा रही है। बाघों के लिए अधिक संरक्षित क्षेत्रों की उनकी ख्वाइस के कारण ही किशनपुर वन्य-जीव विहार का वजूद में आना हुआ जो अब दुधवा टाइगर रिजर्व का एक हिस्सा है।
प्रेरणा स्रोत
[संपादित करें]जिम कार्बेट और एफ़० ड्ब्ल्यू० चैम्पियन से प्रभावित बिली अर्जन सिंह ने आठ पुस्तके लिखी जो उत्तर भारत की इस वन-श्रंखला का बेहतरीन लेखा-जोखा हैं।
बाघ व तेन्दुओं का भारतीय वनों में पुनर्वासन
[संपादित करें]बाघ व तेन्दुओं के शावकों को ट्रेंड कर उन्हे उनके प्राकृतिक आवास यानी जंगल में सफ़लता पूर्वक पुनर्वासित करने का जो कार्य बिली अर्जन सिंह ने किया वह अद्वितीय है पूरे संसार में। प्रिन्स, हैरिएट और जूलिएट इनके तीन तेन्दुए थे जो जंगल में पूरी तरह पुनर्वासित हुए, बाद में इंग्लैड के चिड़ियाघर से लाई गयी बाघिन तारा भी दुधवा के वनों को अपना बसेरा बनाने में सफ़ल हुई। इसका नतीज़ा हैं तारा की पीढ़िया जो दुधवा के वनों में फ़ल-फ़ूल रही हैं। बिली को तारा के साइबेरियन या अन्य नस्लों का मिला-जुला होना बताकर बदनाम करने की कोशिश की और इसे नाम दिया "आनुवंशिक प्रदूषण" जबकि आनुवशिक विज्ञान के मुताबिक भौगोलिक सीमाओं व विभिन्न वातावरणीय क्षेत्रों में रहने वाली जातियों का आपस में संबध हानिकारक नहीं होता है बल्कि बेहतर होता हैं। यदि ऐसा होता तो कोई अंग्रेज किसी एशियायी देश में वैवाहिक संबध नहीं स्थापित करता और न ही एशियायी किसी अमेरिकी या अफ़्रीकी से। भारतीय परंपरा में भी समगोत्रीय वैवाहिक संबध अमान्य है और विज्ञान की दृष्टि में भी, फ़िर कैसे साइबेरियन यानी रूस की नस्ल वाली इस बाघिन का भारत के बाघों से संबध आनुंवशिक प्रदूषण हैं। इन-ब्रीडिगं के खतरों से बचने के लिए भिन्न-भिन्न समुदायों के जीवों के मध्य संबध स्थापित कराते हैं ताकि उनकी जीन-विविधिता बरकार रहे और बिली ने इस प्रकार दुधवा के बाघों में यह विविधिता कायम की। दुधवा में तारा की वशांवली निरन्तर संमृद्ध् हो रही है, दुधवा के बाघों में इंण्डो-साइबेरियन नस्ल की उपस्थित को एक वैज्ञानिक संस्थान भी मान चुका है, किन्तु अधिकारिक तौर पर इसे मानने में इंतजामियां डर रही है। यह साबित हो चुका है, कि दुधवा के जंगल में बाघ साइबेरियन-रायल बंगाल टाइगर की जीन-विविधिता के साथ इस नस्ल को और मजबूत बना रहे हैं। इस आनुवंशिक विवधिता के कारण भारतीय बाघों की नस्ल अब और बेहतर होगी। नहीं तो सिकुड़ चुके जंगलों में ये बाघ आपस में ही संबध कायम करते...एक ही जीन पूल में.........और इन-ब्रीडिंग इनकी नस्ल को कमज़ोर बना देती। और तब होता आनुंवशिक प्रदूषण!
शिक्षा
[संपादित करें]कुँवर बिली अर्जन सिंह ने प्राथमिक शिक्षा नैनीताल के फ़िलैन्डर स्मिथ कॉलेज में ग्रहण की, माध्यमिक शिक्षा क्रिश्चियन कॉलेज लखनऊ व स्नातक अंग्रेजी में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से किया।
अभिरूचियां
[संपादित करें]वन्य जीवन, फ़ोटोग्राफ़ी, हॉकी, वेट-लिफ़्टिंग, क्रिकेट, लेखन
पुरस्कार
[संपादित करें]भारत सरकार ने उन्हे १९७५ में पद्म श्री, २००६ में पद्म भूषण से सम्मनित किया। सन १९७६ में बारहसिंहा के सरंक्षण के लिए वैश्विक संस्था विश्व प्रकृति निधि ने उन्हे गोल्ड मैडल से सम्मानित किया। यह पहले एशियाई व्यक्ति थे जिन्हे यह पुरस्कार प्राप्त हुआ। सन २००३ में सैंक्चुरी लाइफ़-टाइम अवार्ड से नवाज़ा गया। सन २००५ में आप को नोबल पुरस्कार की प्रतिष्ठा वाला पाल गेटी अवार्ड दिया गया जिसकी पुरुस्कार राशि एक करोड़ रुपये हैं। यह पुरस्कार सन २००५ में दो लोगों को संयुक्त रूप में दिया गया था। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी इसी वर्ष सन २००७ में बिली अर्जन सिंह को यश भारती से सम्मानित किया।
पुस्तकें
[संपादित करें]तारा- ए टाइग्रेस (१९८१), टाइगर हैवन (१९७३), टाइगर टाइगर (१९८४), एली एण्ड बिग कैट्स (१९९८), ए टाइगर्स स्टोरी (१९९९), प्रिन्स ऑफ़ कैट्स (१९८२), वाचिंग इंडियाज वाइल्ड लाइफ़ (२००३)
सन्दर्भ
[संपादित करें]बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- पद्म भूषण पुरस्कार
- पद्म भूषण, पद्म श्री कुंवर बिली अर्जन सिंह (जंगल कथा)
- बिली अर्जन सिंह का निधन (बी बी सी)
- शिकारी जो मोंगली बन गया[मृत कड़ियाँ] (दैनिक भास्कर)