बिम्ब-विधान

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बिम्ब शब्द अंग्रेजी के 'इमेज' का हिन्दी रूपान्तर है। इसका अर्थ है, - "मूर्त रूप प्रदान करना"। काव्य में कार्य के मूर्तीकरण के लिए सटीक बिम्ब योजना होती है। काव्य में बिम्ब को वह शब्द चित्र माना जाता है जो कल्पना द्वारा ऐन्द्रिय अनुभवों के आधार पर निर्मित होता है।[1]

बिम्ब-विधान (इमेजरी) हिन्दी साहित्य में कविता की एक शैली है। स्वान्त्र्योत्तर हिन्दी कविता में जैसे विषय बदले, वस्तु बदली और कवि की जीवन-दृष्टि बदली वैसे ही शिल्प के क्षेत्र में रूप-विधान के नये आयाम भी विकसित हुए।

बिम्बों का प्रयोग साहित्य में आरम्भ से होता रहा है। प्रतीकों के विपरीत बिम्ब इन्द्रिय-संवेद्य होते हैं। अर्थात् उनकी अनुभूति किसी न किसी इन्द्रिय से जुड़ी रहती है। इसीलिए साहित्य में हमें दृश्य-बिम्बों के साथ-साथ श्रव्य, घ्राण और स्पर्श-बिम्बों का प्रयोग भी मिलता है। विश्व के परिवेश से रचनाकार कुछ दृश्य, कुछ ध्वनियाँ, कुछ स्थितियाँ उठाता है और अपनी कल्पना, संवेदना, विचार तथा भावना के योग से उन्हें तराश कर बिम्ब का रूप देता है। अपने कथ्य को संक्षेप, सघन रूप में प्रस्तुत करने के लिए, अपनी बात का प्रभाव बढ़ाने के लिए और किसी स्थिति को जीवन्त कर पाठक के सामने रख देने के लिए रचनाकार बिम्बों का प्रयोग करता है।

प्रश्न यह है कि कविता में बिम्बों और प्रतीकों का प्रयोग क्यों आवश्यक है? वस्तुतः बिम्ब और प्रतीक हमें अपनी बात सरलता से और चिर परिचित ढंग से कहने में सहायक होते हैं । यह कविता को अनावश्यक वर्णनात्मकता से बचाते हैं। पाठक पूर्व से ही उस बिम्ब के आंतरिक गुण से परिचित होते हैं इसलिए वे उन बिम्बों के मध्य से कही गयी बात को सरलता से आत्मसात कर लेते हैं । बिम्ब काव्यात्मकता का विशेष गुण है। इसके अभाव में कविता नीरस गद्य की तरह प्रतीत हो सकती है । इसके अलावा बिम्ब कविता को सजीव बनाते हैं, जीवन के विभिन्न आयामों को हम बिम्बों के मध्य से सटीक ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं। साहित्य की भाषा में बिम्ब अनेक प्रकार के बताये गए हैं जिनमे दृश्य, श्रव्य, स्वाद, घ्राण, स्पर्श आदि प्रमुख है , ऐंद्रिकता इनका केन्द्रीय भाव है। [2]

वस्तुतः बिम्बों का महत्त्व कवि सदा से स्वीकार करते हैं। एक काव्यान्दोलन के रूप में बिम्बवाद के प्रवर्तन का श्रेय अंग्रेजी कवि टी.ई. ह्यूम (सन् 1883-1917) को है। उनके विचारों से प्रभावित कुछ अंग्रेजी तथा अमेरिकी कवियों- एजरा पाउण्ड, ऐमी लॉवेल, हिल्डा डूलिटिल, रिचर्ड एल्डिगंटन आदि ने सन् 1912 के आसपास काव्य लेखन का एक कार्यक्रम तय किया, जिसमें उन्होंने भावावेगपूर्ण, संगीतमय, रोमानी काव्यभाषा के स्थान पर चुस्त, तराशी हुई, सटीक तथा रोमन क्लासिकी काव्य के अनुशासन तथा सन्तुलन और चीनी, जापानी काव्य की सूक्ष्मता, संक्षिप्ति और सुगठन को अपनाया। एजरा पाउण्ड तथा ऐमी लॉवेल इस समूह के सबसे सक्रिय सदस्य कहे जा सकते हैं। वे सभी कवि थे और बिम्बवाद के सिद्धान्तकार भी। सन् 1915 में उन्होंने अपना एक घोषणा-पत्र निकाला और सन् 1924 में उनकी कविताओं का सहयोगी संकलन 'स्पेक्लेशन' नाम से प्रकाशित हआ।[3]

बिम्ब को पदचित्र, शब्दचित्र और 'मूर्त विधान' भी कहा जाता है। पाश्चात्य देशों में यह 'इमैजियम' नाम से एक आन्दोलन के रूप में चल पड़ा था। अंग्रेजी साहित्य के रोमांटिक कवियों ने इसे विशेष रूप से अपनाया था। उसी को हिंदी के छायावादी कवियों ने अपनाया।

टी.ई. हार्ल्म और फ्लींट ने बिम्ब पर विशेष कार्य किया है। बिम्ब प्रयोग के तीन प्रमुख लक्ष्य माने जाते हैं-

(१) काव्य में वस्तु के संप्रेषण के लिए
(२) ऐसे शब्दों का सर्वथा परिहार जो काव्य को अर्थवान बनाने में योग नहीं देते
(३) काव्य निर्माण में संगीतात्मक नियम का निर्वाह, अर्थात् उसकी लय को घड़ी के लोलक के नियम से न बाँधना।

प्रेषणगत इन लक्ष्यों के अतिरिक्त काव्य में बिंब ग्रहण की दो मुख्य उपयोगिताएँ होती हैं-

(क) इंद्रियगत अनुभव (sensual experience),
(ख) अलंकृति।

पहले के अंतर्गत पाठक कविता के विविध रूपों से इंद्रियगत अनुभव करता है। यानी आँख, कान, स्पर्श आदि से इंद्रिय बोध करता है। दूसरे के अन्तर्गत बिंब से काव्य सौंदर्य बढ़ता है। इसमें संक्षिप्तता, व्यंजकता और भास्वरता आदि शामिल है। दोनों का लक्ष्य संप्रेषणीयता को बढ़ाना ही है। इसके लिए कवि विशेष भाषा का प्रयोग करता है। शब्दों की जोड़ से बिंब का निर्माण करके वस्तु संप्रेषण करता है।

बिम्ब ग्रहण सरल कार्य भी है और संश्लिष्ट कार्य भी। इसमें कवि की प्रतिभा की अग्नि परीक्षा होती है। संश्लिष्ट होने पर बिंब दुरूह भी हो सकता है। वह भी भाषा प्रयोग का ही परिणाम है।

उदाहरण-

'राम की शक्ति पूजा' की इन प्रसिद्घ पंक्तियों को देखा जा सकता है-

ऐसे क्षण अंधकार धन में जैसे विद्युत
जागी पृथ्वी-तनया-कुमारिका छवि, अच्युत
देखते हुए निष्पलक, यदि आया उपवन
विदेश का प्रथम स्नेह का लतांतराल मिलन
नयनों का नयनों से गोपन-प्रिय संभाषण
पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान पतन
कांपते हुए किसलय, झरते पराग समुदाय
गाते खग नव जीवन परिचय, तरू मलय वलय।

इस उदाहरण में चित्रों की एक क्रमबद्घ शृंखला है। राम की मानसिकता को स्पष्ट करने के लिए कवि ने चित्रों में क्षिप्रता और एक प्रकार का ऐंद्रिय आवेग-सा भर दिया है। प्रत्येक बिम्ब पूरे अर्थ की, पृष्ठभूमि की और सजावट की सम्बद्घता में ही अपना अर्थ रखता है। इसमें खासकर अन्धकार, विद्युत, उपवन, किसलय, पराग, खग, तरू-मलय वलय आदि शब्दों के प्रयोग से बिम्ब निर्माण किया गया है।

बिम्बों के भेद[संपादित करें]

ऐन्द्रिय बिम्ब[संपादित करें]

  • चाक्षुष बिम्ब
  • श्रव्य या नादात्मक बिम्ब
  • स्पर्श्य बिम्ब
  • घ्रातव्य बिम्ब
  • आस्वाद्य बिम्ब

काल्पनिक बिम्ब[संपादित करें]

  • स्मृति बिम्ब
  • कल्पित बिम्ब

प्रेरक अनुभूति के आधार पर[संपादित करें]

  • सरल बिम्ब
  • मिश्रित बिम्ब
  • तात्कालिक बिम्ब
  • संकुल बिम्ब
  • भावातीत बिम्ब
  • विकीर्ण बिम्ब

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]