बर्मी साहित्य

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अन्य देशों की भाँति बर्मा का भी अपना साहित्य है जो अपने में पूर्ण एवं समृद्ध है। बर्मी साहित्य का अभ्युदय प्राय: काव्यकला को प्रोत्साहन देनेवाले राजाओं के दरबार में हुआ है इसलिए बर्मी साहित्य के मानवी कवियों का संबंध वैभवशाली महीपालों के साथ स्थापित है। राजसी वातावरण में अभ्युदय एवं प्रसार पाने के कारण बर्मी साहित्य अत्यंत सुश्लिष्ट तथा प्रभावशाली हो गया है।

बर्मी साहित्य के अंतर्गत बुद्धवचन (त्रिपिटक), अट्टकथा तथा टीका ग्रंथों के अनुवाद सम्मिलित हैं। बर्मी भाषा में गद्य और पद्य दोनों प्रकार की साहित्य विधाएँ मौलिक रूप से मिलती हैं। इसमें आयुर्वेदिक ग्रंथों के अनुवाद भी हैं। पालि साहित्य के प्रभाव से इसकी शैली भारतीय है तथा बोली अपनी है। पालि के पारिभाषिक तथा मौलिक शब्द इस भाषा में बर्मीकृत रूप में पाए जाते हैं। रस, छंद और अलंकारों की योजना पालि एवं संस्कृत से प्रभावित है।

बर्मी साहित्य के विकास को दृष्टि में रखकर विद्वानों ने इसे नौ कालों में विभाजित किया है, जिसमें प्रत्येक युग के साहित्य की अपनी विशेषता है।

पगन युग (ई. 1100-1297)[संपादित करें]

इस युग के साहित्य का ज्ञान शिलालेखों द्वारा होता है, जिनकी रचना सरल तथा अलंकारविहीन है। उस काल में मिलनेवाला सबसे प्राचीन शिलालेख म्यज़ेटी है जिसको 1112 ई. में राजकुमार नामक एक राजकुमार ने खुदवाया था। उसमें बर्मी भाषा के अतिरिक्त पालि, मून, प्रू, इन तीन भाषाओं का प्रयोग भी मिलता है। इससे यह ज्ञात हो जाता है कि उस काल में उन भाषाओं का भी प्रचलन था। उसके बाद 1224 ई. का भी एक शिलालेख मिलता है जिसको अनंतसूरिय (अनंतसूर्य) दंपति ने खुदवाया था। इसको शिन् पिन् बोधि शिलालेख कहते हैं। तदनंतर राजकुमारी थिंगथू का मिन वैन् लेख, तथा महारानी फ्वासो का शिलालेख भी उललेखनीय है। भाषा और भाव की दृष्टि से पहले शिलालेखों की अपेक्षा पीछे के शिलालेख अच्छे हैं।

यद्यपि इस युग में गद्यपद्यात्मक साहित्य शास्त्र की उपलब्धि नहीं होती, फिर भी इनका निर्माण अवश्य होने लगा था, क्योंकि अनंतसूर्य का काव्य आज भी बर्मा में प्रचलित है। बर्मी राजाओं द्वारा त्रिपिटक का अधिक अध्ययन होने से बर्मी साहित्य पर पालि का अत्यधिक प्रभाव पड़ने लगा।

पिंय युग (1298-1364 ई.)[संपादित करें]

इस युग में बर्मी साहित्य की उन्नति पगन् युग से अधिक हुई। त्रिपिटक का अध्ययन अधिक होने से बर्मी साहित्य में रस, अलंकार आदि पालि से सीधे प्रविष्ट होने लगे। दर्शन का विवेचन होने से साहित्य में गंभीरता भी आने लगी। इस युग में चतुरंगबल नामक मंत्री का काव्य अलंकार और रस दोनों ही दृष्टियों में पगन् युग से अधिक उन्नत है।

इस युग में भी शिलालेख मिलते हैं जो पगन् युग के शिलालेखों की अपेक्षा भाषा की दृष्टि से अधिक समृद्ध हैं।

अव युग (1364-1538)[संपादित करें]

इस युग को बर्मी साहित्य का स्वर्णकाल कहा जाता है। जिस प्रकार कालिदास आदि संस्कृत के कवियों ने अपनी रचना का आधार रामायण और महाभारत आदि को बनाया, उसी प्रकार बर्मी साहित्यकारों ने अपनी काव्यरचनाओं का आधार पालि साहित्य को बनाया। इसी समय महाकाव्य, खंडकाव्य एवं नाटक आदि अनेक नवीन साहित्यविधाओं का निर्माण हुआ। इनका साहित्य हृदय की अनुभूतियों का प्रतीक है तथा भाव की गरिमा के कारण पद में भी लालित्य एवं मधुरिमा आ गई है। इस युग के साहित्यकारों में भिक्षु ही अधिक हैं। हिंदी साहित्य में संत कवियों की तरह भिक्षुओं ने बर्मी साहित्य पर आधिपत्य कर लिया है। भिक्षु कवियों में शिन् महासीलवंश, शिन् उत्तमजौ, शिन् तेजोसार एवं शिन् महारदृसार आदि प्रसिद्ध हैं।

केतुमती युग (1530-1597)[संपादित करें]

यह बर्मी साहित्य के विस्तार और प्रसार का युग है। इस समय युद्ध का वातावरण रहने के कारण अभियान गीतों की प्रचुर मात्रा में रचना हुई है। नवदे, वञाबलं और नैंतायित आदि इस युग के प्रसिद्ध कवि हैं। केतुमती की विजय एवं अव की पराजय हो जाने से सभी कवि केतुमती में ही पाए जाते हैं।

द्वितीय अवयुग (1597-1750)[संपादित करें]

इस काल में पालि शासकों के आधार पर महाकाव्यों एवं खंडकाव्यों के साथ ही संवाद का भी निर्माण हुआ। सब रचनाएँ बौद्ध धर्म संबंधी ही हुईं। युग के वरामिसंघनाथ का "मणिकुंडल" नामक कथासाहित्य कथाग्रंथों में सबसे अच्छा माना जाता है। यह कथा संस्कृत की तरह समासबहुल और अलंकारयुक्त है। समास का होने पर भी प्रचलित शब्दों का ही यथास्थान प्रयोग किए वह साधारण व्यक्तियों के लिए भी सुबोध है। इस युग में रचनाओं के अतिरिक्त बौद्ध धर्मशास्त्रों का प्रणयन एवं नाम से मनुस्मृति का अनुवाद भी हुआ। इस युग में 'पदेश' नामक राज्यमंत्री का साहित्य अत्यंत प्रसिद्ध है।

रतनासिंध युग (1751-1885) (कुंमो)[संपादित करें]

इस युग कवियों का अभाव सा है, इस कारण इसमें नई शैली विकसित हुई और उसमें भाव की अपेक्षा रस को महत्व दिया जाने लगा। राजाओं की स्तुति प्रचुर मात्रा में (ऋतु) नामक नए काव्यों का प्रादुर्भाव हुआ। इसमें प्रकृतिवर्णन का ही आधिक्य होता है। इस युग में "ऊ ओ" कवि हुए जो 15 वर्ष की अवस्था से ही साहित्य का करने लगे। सिंहसूर, नंदसूर और लैवे सुंदर का रतु अत्यंत हुआ। उसमें प्रकृति का चित्रण बहुत सफलता से किया।

अमरपूर युग (1886-1900)[संपादित करें]

इस युग में बड़े बड़े हुए हैं। इनमें "ऊ तो" का नाम उल्लेखनीय है। "रामरकन्" की रचना की है। इस समय बर्मी में पाँच राम पर पाँच प्रकार की रामायण मिलती है, यथा हिंदू राम, समत्रा राम, श्याम राम और बर्मी राम। इनमें से बोधिसत्व राम हैं और राम संस्कृत के रामायण राम हैं। यहाँ ऊ तो ने अपने रामरकन् का निर्माण श्याम राम के रामायण के आधार पर किया। इस आज तक बर्मी साहित्य में एक प्रसिद्ध रचना के रूप किया जाता है। इस युग में ऊ जा, ऊ ओमास और दि के नाम उल्लेखनीय हैं। स्त्री साहित्यकारों की बहुलता।

मंडले युग (1900-1940)[संपादित करें]

इस युग का साहित्य भी राजाओं है। अनेक भाषाओं से अनुवाद भी इस युग में हुए। पुण्य का नाम बहुत आदर से लिया जाता है। उन्होंने मुखी लेखनी से अनेक प्रकार के सहित्य का सृजन किया। उनके नाटक लोकप्रिय हैं। भाषा, शैली, भाव आदि की साहित्य अत्यंत ऊँचा माना जाता है। इसलिए उन्हें 'बर्मी कालिदास' एवं 'शेक्सपीयर' कहा गया है।

आधुनिक युग (1941-)[संपादित करें]

तंमो - म्यांमार के आधुनिक काल के कवि

इस युग में अंग्रेजी साहित्य नवीन कथासाहित्य का निर्माण होने लगा जो कथाओं से भिन्न है। कविताओं में भी क्रांतिकारी की गई। जैसे-जैसे मानव का विचार परिवर्तित होता वैसे वैसे ही कवियों की शैली में परिवर्तन हाना स्वाभाविक है। इस युग में मिन् थुवन् (मिन् स्वर्ण) ने छंदमुक्त कविता का निर्माण किया है। इन्हें आरंभ में अनेक आलोचकों का सामना करना पड़ा किंतु बाद में सभी इनका अनुकरण करने लगे। इस युग में जौजी, ड्वेतायी, नुयिन्, बमो बोन्वै, तिन्ते, तैतो, जेय, यन् ओ आदि कवि, कवयित्री एवं साहित्यकार उल्लेखनीय हैं।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]