बनू क़ुरैज़ा

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बनू क़ुरैज़ा

बनू क़ुरैज़ा या बनी क़ुरैज़ा (अंग्रेज़ी:Banu Qurayza) एक यहूदी जनजाति थी जो उत्तरी अरब में याथ्रिब (अब मदीना) के नखलिस्तान में रहती थी। यहूद-रोमन युद्धों के मद्देनजर यहूदी जनजातियाँ कथित तौर पर हिजाज़ में आईं थीं। इनके साथ मुसलमानों की लड़ाई ग़ज़वा ए बनू क़ुरैज़ा हुई।[1] उसके बाद यह सीरिया और खैबर की ओर निकल गए।

ऐतिहासिक पृष्टभूमि[संपादित करें]

इस्लामिक दृष्टिकोण[संपादित करें]

इस्लाम के विद्वान मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी क़ुरआन की सूरा अल-हश्र[2] की विवेचना मेँ लिखते हैं कि जब सन् 70 ईस्वी में रूमियों ने फ़िलिस्तीन में यहूदियों का सार्वजनिक नरसंहार किया और फिर सन् 132 ई॰ में उन्हें इस भू-भाग से बिलकुल निकाल बाहर किया। उस समय बहुत-से यहूदी क़बीलों ने भागकर हिजाज़ में शरण ली थी, क्योंकि ये क्षेत्र फ़िलिस्तीन के दक्षिण में बिलकुल मिला हुआ अवस्थित था। यहाँ आकर उन्होंने जहाँ-जहाँ जल-स्रोत और हरे-भरे स्थान देखे, कहाँ ठहर गए और फिर बस गए। ऐला, मक़ना,तबूक,तैम, वादिउल कुराअ, फ़दक और खैबर पर उनका आधिपत्य उसी समय में स्थापित हुआ और बनी कुरैश, बनी नज़ीर, बनी बहदल और बनी कैनुक़ा ने भी उसी ज़माने में आकर यसरिब (मदीना का पुराना नाम) पर क़ब्जा जमाया। यसरिब में आबाद होने वाले क़बीलों में से बनी नज़ीर और बनी कुरैज़ा अधिक उभरे हुए और प्रभुत्वशाली थे, क्योंकि उनका सम्बन्ध काहिनों के वर्ग से था। उन्हें यहुदियों में उच्च वंश का माना जाता था और उन्हें अपने सम्प्रदाय में धार्मिक नेतृत्व प्राप्त था। ये लोग जब मदीना में आकर आबाद हुए उस समय कुछ दूसरे अरब क़बीले यहाँ रहते थे, जिनको इनहोंने अपना बना लिया और व्यवहारतः हरे-भरे स्थान के मालिक बन बैठे। इसके लगभग तीन शताब्दी के पश्चात् औस और खज़रज यसरिब में जाकर आबाद हुए (और उन्होंने कुछ समय पश्चात् यहूदियों का ज़ोर तोड़कर यसरिब पर पूरा आधिपत्य प्राप्त कर लिया।) अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के पदार्पण से पहले हिजरत के प्रारम्भ तक, हिजाज़ में सामान्यतः और यसरिब में विशेष रूप से यहूदियों की पोज़ीशन की स्पष्ट रूप-रेखा यह थी:

भाषा , वस्त्र , सभ्यता , नागरिकता , हर दृष्टि से उन्होंने पूर्ण रूप से अरब-संस्कृति का रंग ग्रहण कर लिया था। उनके और अरबों के मध्य विवाह तक के सम्बन्ध स्थापित हो चुके थे, किन्तु इन सारी बातों के बावजूद वे अरबों में समाहित बिलकुल न हुए थे और उनहोंने सतर्कता के साथ अपने यहूदी पन को जीवित रखा था। उनमें अत्यन्त इसराईली पन और वंशगत गर्व पाया जाता था। अरबवालों को वे उम्मी (Gentiles) कहते थे, जिसका अर्थ केवल अनपढ़ नहीं, बल्कि असभ्य और उजड्ड होता था। उनकी धारणा यह थी कि इन उम्मियों को वे मानवीय अधिकार प्राप्त नहीं हैं जो इसराईलियों के लिए हैं और उनका धन प्रत्येक वैध और अवैध रीति से इसराईलियों के लिए वैध और विशुद्ध है। आर्थिक दृष्टि से उनकी स्थिति अरब क़बीलों की अपेक्षा अधिक सुदृढ थी। वे बहुत-से ऐसे हुनर और कारीगरी जानते थे जो अरबों में प्रचलित न थी। और बाहर की दुनिया से उनके कारोबारी सम्बन्ध भी थे। वे अपने व्यापार में खूब लाभ बटोरते थे। लेकिन उनका सबसे बड़ा कारोबार ब्याज लेने का था जिसके जाल में उन्होंने अपने आसपास की अरब आबादियों को फांस रखा था, किन्तु इसका स्वाभाविक परिणाम यह भी था कि अरबों में साधारणतया उनके विरुद्ध एक गहरी घृणा पाई जाती थी। उनके व्यापारिक और आर्थिक हितों की अपेक्षा यह थी कि अरबों में किसी के मित्र बनकर किसी से बिगाड़ पैदा न करें और न उनकी पारस्परिक लड़ाई में भाग लें। इसके अतिरिक्त तदधिक अपनी सुरक्षा के लिए उनके हर क़बीले ने किसी - न - किसी शक्तिशाली अरब क़बीले से प्रतिज्ञाबद्ध मैत्री के सम्बन्ध भी स्थापित (कर रखे थे) यसरिब में बनी कुरेज़ा और बनी नज़ीर, औस के प्रतिज्ञाबद्ध मित्र थे और बनी कैनुक़ा ख़ज़ारज के। यह स्थिती थी जब मदीने में इस्लाम पहुँचा और अन्ततः अल्लाह के रसूल (सल्ल.)के पदार्पण के पश्चात् वहाँ एक इस्लामी राज्य अस्तित्व में आया। आपने इस राज्य को स्थापित करते ही जो सर्वप्रथम काम किए उनमें से एक यह था कि औस और ख़ज़रज और मुहाजिरों को मिलाकर एक बिरादरी बनाई और दूसरा यह था कि मुस्लिम समाज और यहूदियों के मध्य स्पष्ट शर्तों पर एक अनुबन्ध निर्णीत किया, जिसमें इस बात की ज़मानत दी गई थी कि कोई किसी के अधिकारों पर हाथ नहीं डालेगा और बाह्य शत्रुओं के मुक़ाबले में यह सब संयुक्त प्रतिरक्षा करेंगे।

इस अनुबन्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण वाक्य ये हैं:

“यह कि यहूदी अपना ख़र्च उठाएँगे और मुसलमान अपना ख़र्च; और यह कि इस अनुबन्ध में सम्मिलित लोग आक्रमणकारी के मुक़ाबले में एक-दूसरे की सहायता करने के पाबन्द होंगे। और यह कि वे शुद्ध - हृदयता के साथ एक - दूसरे के शुभ - चिन्तक होंगे। और उनके मध्य पारस्परिक सम्बन्ध यह होगा कि वे एक - दूसरे के साथ नेकी और न्याय करेंगे, गुनाह और अत्याचार नहीं करेंगे। और यह कि कोई उसके साथ ज़्यादती न करेगा जिसके साथ उसकी प्रतिज्ञाबद्ध मैत्री है, और यह कि उत्पीड़ित की सहायता की जाएगी, और यह कि जब तक युद्ध रहे, यहूदी मुसलमानों के साथ मिलकर उसका ख़र्च उठाएँगे। और यह कि इस अनुबन्ध में सम्मिलित होनेवालों के लिए यसरिब में किसी प्रकार का उपद्रव और बिगाड़ का कार्य वर्जित है और यह कि अनुबन्ध में सम्मिलित होनेवालों के मध्य यदि कोई विवाद या मतभेद पैदा हो, जिससे दंगा और बिगाड़ की आशंका हो तो उसका निर्णय अल्लाह के क़ानून के अनुसार अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्ल.) करेंगे .... और यह कि कुरैश और उसके समर्थकों को शरण नहीं दी जाएगी और यह कि यसरिब पर जो आक्रमण करे, उसके मुक़ाबले में अनुबन्ध में सम्मिलित लोग एक - दूसरे की सहायता करेंगे ...। हर पक्ष अपनी तरफ़ के क्षेत्र की सुरक्षा का उत्तरदायी हो।" (इब्ने हिशाम, भाग दो, पृष्ठ 147-150)

यह एक निश्चित और स्पष्ट अनुबन्ध था जिसकी शर्ते स्वयं यहूदियों ने स्वीकार की थी, किन्तु बहुत जल्द उन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्ल.) , इस्लाम और मुसलमानों के विरुद्ध शत्रुतापूर्ण नीति का प्रदर्शन शुरू कर दिया और उनकी शत्रुता एवं उनका विद्वेष दिन - प्रतिदिन उग्र रूप धारण करता चला गया। उन्होंने नबी (सल्ल.) के विरोध को अपना-जातीय लक्ष बना लिया। आपको पराजित करने के लिए कोई चाल, कोई उपाय और कोई हथकंडा इस्तेमाल करने में उनको तनिक भी संकोच न था। अनुबन्ध के विरुद्ध खुली - खुली शत्रुतापूर्ण नीति तो बद्र के युद्ध से पहले ही वे अपना चुके थे। किन्तु जब बद्र में अल्लाह के रसूल (सल्ल.) और मुसलमानों को कुरैश पर स्पष्टतः विजय प्राप्त हुई तो वे तिलमिला उठे और उनके द्वेष की आग और अधिक भड़क उठी। बनी नज़ीर का सरदार कअब बिन अशरफ़ चीख़ उठा कि

अल्लाह की क़सम, यदि मुहम्मद ने अरब के इन सम्मानित व्यक्तियों को क़त्ल कर दिया है, तो धरती का पेट हमारे लिए उसकी पीठ से अधिक अच्छा है।

फिर वह मक्का पहुँचा और बद्र की लड़ाई में कुरैश के जो सरदार मारे गए थे उनके अत्यन्त उत्तेजक मर्सिये (शोकगीत) कहकर मक्कावालों को प्रतिरोध पर उकसाया। यहूदियों का पहला क़बीला जिसने सामूहिक रूप से बद्र के युद्ध , के पश्चात् खुल्लम - खुल्ला अपना अनुबन्ध भंग कर दिया, बनी कैनुक़ा था जिसके बाद अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने शव्वाल (और कुछ उल्लेखों के अनुसार ज़ी-क़ादा ) सन् 2 हिजरी के अन्त में उनके मुहल्ले का घेराव कर दिया। केवल पन्द्रह दिन ही यह घेराव रहा कि उन्होंने हथियार डाल दिए। (और अन्त में उन्हें) अपना सब माल, हथियार और उद्योग के उपकरण और यंत्र छोड़कर मदीना से निकल जाना पड़ा (इब्ने साद, इब्ने हिशाम , तारीखे तबरी)।

इसके बाद जब शव्वाल सन् 3 हिजरी में कुरैश के लोग बद्र के युद्ध का बदला लेने के लिए बड़ी तैयारियों के साथ मदीना पर चढ़ आए, तो इन यहूदियों ने अनुबन्ध की पहली और स्पष्ट अवज्ञा इस तरह की कि मदीना की प्रतिरक्षा में आपके साथ सम्मिलित न हुए, हालँकि वे इसके पाबन्द थे। फिर जब उहुद की लड़ाई में मुसलमानों को बहुत बड़ी हानि पहुँची तो उनका साहस और बढ़ गया, यहाँ तक कि बनी नज़ीर ने अल्लाह के रसूल (सल्ल.) को मार डालने के लिए व्यवस्थित रूप से एक षड्यंत्र रचा, जो ठीक समय पर असफल हो गया। (इन घटनाओं के पश्चात्) अब उनके साथ किसी प्रकार की नर्मी का प्रश्न ही न रहा। नबी (सल्ल.) ने उनको अविलम्ब यह अल्टीमेटम भेज दिया कि तुमने जो ग़द्दारी करनी चाही थी, वह मुझे ज्ञात हो गई है। अतः दस दिन के भीतर मदीना से निकल जाओ, इसके पश्चात् अगर तुम यहाँ ठहरे रहे तो जो व्यक्ति भी तुम्हारी बस्ती में पाया जाएगा उसकी गर्दन मार दी जाएगी। (अब्दुल्लाह बिन उबई के) झूठे भरोसे पर उन्होंने नबी (सल्ल.) के अल्टीमेटम का यह जवाब दिया, 'हम यहाँ से नहीं निकलेंगे, आपसे जो कुछ हो सके, कर लीजिए।' इसपर रबीउल अव्वल सन् 4 हिजरी में अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने उनका घेराव कर लिया, और केवल कुछ ही दिनों के घेराव के बाद वे इस शर्त पर मदीना छोड़ देने को राजी हो गए कि हथियार के अतिरिक्त जो कुछ भी वे अपने ऊँटों पर लादकर ले जा सकेंगे, ले जाएँ। इस तरह यहूदियों के इस दूसरे दुष्ट क़बीले से मदीना की ज़मीन ख़ाली करा ली गई। उनमें से केवल दो आदमी मुसलमान होकर यहाँ ठहर गए। शेष सीरिया और खैबर की ओर निकल गए। [3]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. सफिउर्रहमान मुबारकपुरी, पुस्तक अर्रहीकुल मख़तूम (सीरत नबवी ). "ग़ज़वा-ए-बनू क़ुरैज़ा". पृ॰ 627. अभिगमन तिथि 13 दिसम्बर 2022.
  2. सूरा अल-हश्र ,(अनुवादक: मौलाना फारूक़ खाँ), भाष्य: मौलाना मौदूदी. अनुदित क़ुरआन - संक्षिप्त टीका सहित. पृ॰ 824 से.
  3. "بنو قریظہ". Cite journal requires |journal= (मदद)

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]