बगहा से प्राप्त सूर्यादित्य ताम्रपत्र

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बगहा से प्राप्त सूर्यादित्य ताम्रपत्र अभिलेख (1020 ईस्वी)[1]

बगहा (पश्चिमी चंपारण), बिहार से प्राप्त यह ताम्रपत्र-अभिलेख अबतक प्राप्त भारत के प्राचीनतम ताम्रपत्रों में से एक है. यह लेख 33 पंक्तियों में अंकित है. ताम्रपत्र का आकार 39.8 से.मी. (चौड़ाई) x 38.5 (लम्बाई) है. संस्कृत भाषा का यह अभिलेख देवनागरी की प्राचीन शैली में लिखा गया है. लेख की दो पंक्तियां पत्र के पीछे अंकित हैं. यह ताम्रपत्र राजा सूर्यादित्य द्वारा प्रदत्त है जो राजा माल्यकेतु के वंशज थे. ताम्रपत्र के लेख से ज्ञात होता है कि दानकर्ता राजा सूर्यादित्य के पिता का नाम राजा हंसराज और पितामह का नाम राजा हेलाराज वाराह था. पत्र में राजा द्वारा यशादित्य नाम के ब्राह्मण को वनपल्ली नामक ग्राम के दान में दिये जाने का उल्लेख है. ताम्रपत्र के अनुसार यह वनपल्ली ग्राम, व्यालिसी-विषय नामक क्षेत्र और दर्द-गण्डकी मंडल के अंतर्गत स्थित बताया गया है. ब्राह्मण यशादित्य को सावर्णय गोत्र में उत्पन्न, वात्ठो का पुत्र और अडवी का पौत्र बताया गया है. ये उसीय नाम के ग्राम के वासी और चेल नामक ग्राम के मूल निवासी थे.[1][2]



दान की तिथि का उल्लेख, शुक्रवार, चैत्र शुक्लपक्ष चतुर्दशी तिथि, 1077 विक्रम संवत है, जो अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार 11 मार्च 1020 ईस्वी की तारीख है.

ताम्रपत्र के प्राप्ति स्थान का भौगोलिक विवरण[संपादित करें]

इस ताम्रपत्र-अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि 10वीं शताब्दी में यह क्षेत्र दर्द-गण्डकी मंडल के अंतर्गत था. ‘दर्द’ शब्द का संस्कृत अर्थ ‘पर्वत’ होता है. वर्तमान समय में बगहा का क्षेत्र हिमालय के तराई क्षेत्र में गण्डकी के तट पर बसा हुआ है, अतः 10वीं शताब्दी में इस क्षेत्र का ‘दर्द-गण्डकी मंडल’ नाम से अभिहत किया जाना स्वाभाविक है.

ताम्रपत्र में यशादित्य नाम के ब्राह्मण को वनपल्ली नामक ग्राम के दान में दिये जाने का उल्लेख है. ‘पल्ली’ शब्द का अर्थ गाँव होता है. बगहा के अंतर्गत बिहार का एक मात्र व्याघ्र अभ्यारण्य (टाइगर रिज़र्व) है जो वाल्मीकि नगर अभ्यारण्यके नाम से जाना जाता है. इस वन-प्रांतर में आज भी अनेक गाँव स्थित हैं. संभावना है कि इन्ही में से किसी एक गाँव को दान में दिया गया होगा. ‘व्यालिसी-विषय’ एक प्रशासनिक शब्द प्रतीत होता है जिसके अंतर्गत बयालीस (42) प्रशासनिक इकाईयों (विषय) की सम्मिलित गणना होती होगी.  

कालान्तर में दर्द-गण्डकी मंडल का तीरभुक्त क्षेत्र (वर्त्तमान नाम तिरहुत) के नाम से विभिन्न धर्मशास्त्रों और तीर्थ सम्बंधित ग्रन्थो में उल्लेख है. प्राचीन काल के क्षेत्रों की सीमा का निर्धारण नदी के तट से होने की वजह से गण्डकी के पश्चिमी तट से तीरभुक्त क्षेत्र का प्रारम्भ माना जाता था जिसका विस्तार गण्डकी और गंगा के संगम (वर्तमान सोनपुर) तक था. गण्डकी की पश्चिमी तट (‘तीर’) पर बसे (‘भुक्त’) होने के कारण इसका नाम तीरभुक्त दिया गया था जो कालांतर में अपने अपभ्रंस नाम तिरहुत से प्रचलित रहा है.

ताम्रपत्र में उल्लेखित नामों का भाषा-शास्त्रीय विवरण[संपादित करें]

ध्यातव्य है की इस ताम्रपत्र में दान-प्राप्तकर्ता ब्राह्मण व उसके गोत्र, दान देने वाले राजा और उसके उसके वंश का नाम का संस्कृत में उल्लेखित है. दान-प्राप्तकर्ता ब्राह्मण के वंशजों के नाम प्राकृत में हैं. दान में मिलने वाले क्षेत्र के नामों का विवरण संस्कृत में है. दान-प्राप्तकर्ता ब्राह्मण के मूल निवास से सम्बंधित स्थानों के नाम प्राकृत में हैं.

टिप्पणी[संपादित करें]

बगहा स्थित ब्रह्म-स्थान, पठकौली गाँव के पाठक समुदाय की वंशावली द्वारा प्राप्त विवरण के अनुसार 13वीं शताब्दी में इस क्षेत्र का प्रशासन एक स्थानीय ब्राह्मण, भूपाल पाठक (अपभ्रंश नाम भुआल पाठक) द्वारा संचालित होता था.

सन्दर्भ ग्रन्थ[संपादित करें]

       

Epigraphica Indica, XXXV, 1962–63, pp. 130–35.

Sahai, Bhagwant, The Inscriptions of Bihar (From earliest times to the middle of 13th Century), Ramanand Vidya Bhavan, Patna, 1983, 127-29. 

  1. "Copperplate Grants from Bihar". Epigraphica Indica. XXXV: 130–35. 1962–63.
  2. Sahai, Bhagwant, The Inscriptions of Bihar (From earliest times to the middle of 13th Century), Ramanand Vidya Bhavan, Patna, 1983, 127-29.