बंगाल की वास्तुकला

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दक्षिणेश्वर काली मन्दिर

बंगाल का एक लम्बा और समृद्ध इतिहास है। इसके अन्तर्गत वर्तमान बांग्लादेश , भारत के पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और असम की बराक घाटी शामिल हैं। बंगाल की वास्तुकला में प्राचीन नगरीय वास्तुकला, धार्मिक वास्तुकला, ग्रामीण स्थानीय वास्तुकला, औपनिवेशिक काल के नगरों के भवन और ग्रामीण घर और आधुनिक शहरी शैली शामिल हैं। बंगला शैली एक उल्लेखनीय वास्तुशैली है जो बंगाल से निकली है। मध्यकालीन दक्षिण पूर्व एशियायी वास्तु में बंगाल के धार्मिक भवनों में के कोनों में बनाए जाने वाले टावरों की अनुकृति दिखती है। बहुत भारी वर्षा के लिए उपयुक्त बंगाली वक्राकार छतों को भारतीय-इस्लामी वास्तुकला की एक विशिष्ट स्थानीय शैली में अपनाया गया था। उत्तर भारत की मुगल वास्तुकला में भी बंगाल की वास्तुकला का सजावटी रूप से उपयोग किया गया है।

निर्माण के लिए आवश्यक अच्छे पत्थर बंगाल में नहीं मिलते। अतः बंगाल के पारम्परिक वास्तु में प्रायः ईंट और लकड़ी का उपयोग किया गया है। स्थानीय वास्तु में बांस और छप्पर का प्रयोग हुआ है। टेराकोटा की सजावटी नक्काशीदार या ढली हुई पट्टिका बंगाल की वास्तु की एक विशिष्टता है। यहाँ की ईंट अत्यन्त टिकाऊ है, यहाँ तक कि खण्डहर हो गयीं अप्रयुक्त प्राचीन भवनों के ईंटो को निकाल-निकालकर लोग नये घर बनाने के लिये उपयोग में ले लेते हैं।

सन्दर्भ[संपादित करें]