प्लेटो का अनुकरण सिद्धांत

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ग्रीक दार्शनिक एवं विचारक प्लेटो ने अपनी पुस्तक रिपब्लिक में काव्य को मूल प्रत्यय के अनुकरण का अनुकरण कहा है। जैसे बढ़ई महान शिल्पी ईश्वर के द्वारा निर्मित मूल बिंब का अनुकरण करके पलंग बनाता है। चित्रकार इस पलंग का अनुकरण कर चित्र बनाता है। साहित्यकार भी उसी बढ़ई द्वारा बनाए गए अनुकरण को अपनी रचनाओं का विषय बनाता है। इस तरह कला और काव्य सत्य से तिहरी दूरी पर होते हैं। इसलिये उन्होंने कला और काव्य को महत्वपूर्ण नहीं माना है।

प्लेटो ने कहा है कि कविता जगत की अनुकृति है। चूंकि जगत स्वयं अनुकृति है अतः कविता सत्य से दोगुनी दूर है। कविता भावों को उद्वेलित कर व्यक्ति को कुमार्गगामी बनाती है। कविता अनुपयोगी है। कवि का महत्त्व एक मोची से भी कम है।

प्लेटो काव्य का महत्व उसी सीमा तक स्वीकार करता है, जहां तक वह गणराज्य के नागरिकों में सत्य, सदाचार की भावना को प्रतिष्ठित करने में सहायक हो। कला और साहित्य की कसौटी उसके लिए 'आनन्द एवं सौन्दर्य' न होकर उपयोगितावाद थी। वह कहता है- "चमचमाती हुई स्वर्णजटित अनुपयोगी ढाल से गोबर की टोकरी अधिक सुन्दर है।" उसके विचार से कवि या चित्रकार का महत्व मोची या बढ़ई से भी कम है, क्योंकि वह अनुकृति मात्र प्रस्तुत करता है।

सत्य रूप तो केवल विचार रूप में अलौकिक जगत में ही है। काव्य मिथ्या जगत की मिथ्या अनुकृति है। इस प्रकार वह सत्य से दोगुना दूर है। कविता अनुकृति है और सर्वथा अनुपयोगी है, इसलिए वह प्रशंसनीय नहीं अपितु दण्डनीय है। प्लेटो कवि के तुलना में एक चिकित्सक, सैनिक या प्रशासक का महत्त्व अधिक मानता है। वह कहता है कि कवि अपनी रचना से लोगों की भावनाओं और वासनाओं को उद्वेलित कर समाज में दुर्बलता और अनाचार के पोषण को भी अपराध करता है। कवि अपनी कविता से आनन्द प्रदान करता है परन्तु दुराचार एवं कुमार्ग की ओर प्रेरित करता है। इसलिए राज्य में सुव्यवस्था हेतु उसे राज्य से निष्कासित कर देना चाहिए। उसका मानना था कि किसी समाज में सत्य, न्याय और सदाचार की प्रतिष्ठा तभी संभव है जब उस राज्य के निवासी वासनाओं और भावनाओं पर नियंत्रण रखते हुए विवेक एवं नीति के अनुसार आचरण करें।

वह होमर से चुनौती देते हुए पूछना चाहता है कि क्या कविता से किसी को रोगमुक्त कर सकती है? क्या कविता से कोई युद्ध जीता जा सकता हैं? क्या कविता से श्रेष्ठ शासन व्यवस्था स्थापित की जा सकती है ?

काव्य का विरोधी होने के बावजूद प्लेटो ने वीर पुरुषों के गुणों को उभारकर प्रस्तुत किए जाने वाले तथा देवताओं के स्तोत्र वाले काव्य को महत्त्वपूर्ण एवं उचित माना है।

डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त के अनुसार प्लेटो ने कविता को अनुकृति बताकर काव्य-मीमांसा के क्षेत्र में एक ऐसे सिद्धांत की प्रतिष्ठा की जो परवर्ती युग में विकसित होकर काव्य-समीक्षा का आधार बना। निःसंदेह, प्लेटो का अनुकृति-सिद्धान्त पाश्चात्य काव्यशास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

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