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भरतनाट्यम में लैंगिक रूढ़िवादिता[संपादित करें]

परिचय[संपादित करें]

भरतनाट्यम सबसे पुराना शास्त्रीय नृत्य माना जाता है, जिसका जनम भरत मुनि की किताब 'नाट्यशास्त्र' से हुआ, और फिर तमिल नाडू के मंदिरों में इसे देवदासियों द्वारा प्रस्तुत किया जाने लगा।

इक्कीसवीं सदी में यदि कोई सामाजिक मुद्दा जिसे बार बार प्रकाशित किया जाता है, तो वह है, लिंग और सेक्सुआलिटी के प्रति रुढ़धरणाएं। लिंग, एक सामाजिक संरचना है। हम जिन प्रजनन अंगों के साथ इस धरती पर पैदा हुए है, उससे हमारा लिंग नही निर्माणित हो सकता। दुनिया में निम्न लिंग है, और हर एक व्यक्ति एक या एक से अधिक लिंग से पहचाना जा सकता है। लिंग तरलता को हम केवल स्त्री और पुरुष के दायरे में बंद नहीं करसकते। आज कल के नृतक मानते है की शास्त्रीय नृत्यों में लिंग तरलता देखी जानी चाहिए, ताकि आने वाली पीढ़ी इसके नाम से झिझके ना, और राष्ट्रीय नृत्यों में लिंग भिन्नता देखी जा सके। सालो से, नृत्य को एक स्त्री सकर्मक कला माना गया है। लेकिन, इतिहास और पुराणों में कुछ और ही बताते है। नाट्यशास्त्र की रचना के बाद, भगवान शिव ने भरत मुनी को सुझाव दिया कि, केवल नाटक और संगीत ही नहीं, बल्कि नृत्य को भी प्रदर्शन में जोड़ना चाहिए। भगवान शिव और माता पार्वती ने इस तरह तांडव और लस्या को अपने शिष्यों को सिखाकर, भरतनाट्यम को जन्म दिया। कई साल बाद, आज के समय में, नृत्य में पुरुषो की कमी दिखने लगी। नृत्य— खास तौर पर शास्त्रीय नृत्यों में, पुरुषो ने भाग लेना कम कर दिया और इससे पौरुष न होने का प्रतीक माना जाने लगा। जो पुरुष इसे अपनाते, उनकी प्रतिभा और पौरुष को अमानित किया जाने लगा। यह एक आम अनुमान है, की जो पुरुष शास्त्रीय नृत्य करते है उन्हे बिना कुछ सोचे एलजीबीटी समुदाय का हिस्सा मान, उनपर अपशब्द की बारिश कर दी जाती है। पर ऐसा क्यों? अगर नृत्य के भगवान खुद एक पुरुष है, तो धरती पे जन्मे पुरुष नटराज की कला क्यों नहीं कर सकते? क्यों समाज की भाउएं एक पुरुष को घुंघरू पहने देख उठ जाती है?

सक्षियत जिन्होंने सामाजिक रूढ़ियों को कला के मध्य नही आने दिया[संपादित करें]

अंग्रेजी के भारत आने के पश्चात, भारत में देवदासी परंपरा को उखाड़ फेका गया। कई सारे स्वतंत्रता सैलानी और शास्त्रीय नृतकों ने साथ आकर इसका विरोध किया। तब, ई.कृष्ण अय्यर नामक के स्वतंत्रता सैलानी, जो की खुद शास्त्रीय नृतक भी थे, स्त्री पोशाक पहनकर नाच करते थे। यह ऐसा समय था जब खुद स्त्रीयों को नाच प्रस्तुत करना मना था— ना मंदिरों में, ना नाटकों में। आज के समय में, एक ३५ वर्षीय पुरुष, चार्ल्स मा, जो की चाइनीज, नेपालीज, और नॉर्थ ईस्टर्न जातीयता से आतें है, शास्त्रीय कला को अपना कर उसे दुनिया में फैला रहे है। नार्थकी नटराज, जो की न अपने आप को पुरुष लिंग, न ही स्त्री लिंग से जोड़ती है, भारत की पहली ट्रांसजेंडर है, जिन्हें, सबसे ऊंचे सिविलियन अवार्ड से पुरुस्कारित किया गया। १२ साल की उम्र में अपने घर से सामाजिक बोझ के चलते, वह भाग आईं। बाद में, उन्होंने अपनी पहचान को स्वीकृत किया और उसे अपने ख्वाबों के बीच नही आने दिया।

पुराणों में लिंग तरलता[संपादित करें]

जब कभी भी कोई नृत्य का नाम लेता है, सबसे पहले नाम महादेव— नटराज का आता है। उनके बाद आता है श्री कृष्ण का नाम। जयदेव की गीता गोविंदा जैसी किताब में, श्री कृष्ण की राधा रानी और गोपियों के साथ की रासलीलाओं का उल्लेख किया गया है। कई जगह उनकी सबसे प्रिय गोपी, राधा रानी के समेत श्री कृष्ण रास या छुप कर मिलने के दौरान वस्त्र बदल लेते थे। वह स्त्री का रूप, और राधा रानी पुरुष का रूप धारण कर एक दूसरे के साथ रास खेलते थे। श्री कृष्ण की इस क्रिया को भगवान की लीला और शरारत मान कर अनदेखा कर दिया जाता है। लेकिन, यही यदि कोई मनुष्य करें तो उसे रूढ़ी का नाम दे कर अपमानित कर दिया जाता है। यदि स्वयं भगवान बाहरी रूप और पौरुष की सोच को अपने ऊपर हावी नहीं होने देते, तो मनुष्यो को भी इन सामाजिक रूढ़ियों से ऊपर उठना सीखना चाहिए।


भरतनाट्यम मार्गम में लिंग भेद[संपादित करें]

मार्गम, भरतनाट्यम में उस अनुक्रम को कहा जाता है, जिसमें कई सारे नृत्य होते है। जैसे -

•पुष्पांजलि

•अलारिप्पू

•जातिस्वरम

•तोड़ेयम

•शब्दम

•वर्णम

•तिल्लाना

•श्लोकम

जब हम किसी भी भरतनाट्यम का अभ्यास करने वाले व्यक्ति के बारे में सोचते है, तो हमारे दिमाग में एक स्त्री की काया आती है। लेकिन ऐसा जरूरी नहीं है की सिर्फ स्त्री ही भरतनाट्यम का अभ्यास करे। कभी एक पुरुष, या स्त्री की पौषक में पुरुष, या पुरुष की पौषक में स्त्री भी नृतक/नृतकी की भूमिका ले सकते है। भरतनाट्यम मार्गम के हर नृत्य भाग में हमेशा एक चीज सामान्य पाई जाती है। नायिका दुख, प्रेम, विरह, क्रोध, आदि में, अपने नायक का नृत्य करते हुए इंतजार करती है। लेकिन किसी नृत्य भाग में इसका उल्टा नही दिखाया जाता। जब हम लिंग तरलता की बात करते है, तब हम इस मुद्दे को भी सामने लाते है की इस स्थिति का उल्टा क्यों नही किया जा सकता। नायक नायक और नायिका नायिका की कहानी की ओर हम तब ही बढ़ पाएंगे जब हम पहले एक नायक को उसकी नायिका के लिए इंतजार करते हुए स्वीकार करें। भरतनाट्यम एक पौराणिक कला है, लेकिन उस कला के कलाकार अब इक्कीसवीं सदी के है। इसलिए, इस कला में, लिंग तरलता को जोड़ना अत्यंत आवश्यक है। समाज की भावना में परिवर्तन लाने हेतु, हमें निम्न लिंगों की जानकारी होनी अत्यंत आवश्यक है। जब इक्कीसवीं सदी के कलाकारों के रूप में हम अपनी कला में ऐसे पहलुओं को शामिल करना शुरू करेंगे, तभी बाकी लोग भी इससे स्वीकृत करने का प्रयास कर पाएंगे।

विचार और निष्कर्ष[संपादित करें]

लोगो के मन में लिंग के प्रति जो प्रष्न है— चाहे मंच पर, या हकीकत में; सिर्फ विपरीत लिंग की भूमिकाएं प्रदर्शित करने से ही दूर हो सकती है। यदि कोई एक पुरुष को स्त्री की भूमिका निभाते देखें, या एक स्त्री को पुरुष की, तो उनके दृष्टिकोण में अविषालु पौरुष की धारणाओं में बदलाव आएगा। सिर्फ सामाजिक नज़रिए से ही नहीं, बल्कि, ऐसी प्रस्तुतियां एक शास्त्रीय नृत्यों में इक्कीसवीं सदी की नईता लाएगी। आज भी बहुत से पुराने कलाकार है, जिनके पास सालो का तजुर्बा और नृत्य में निपुर्णता है, लेकिन वह लिंग तरलता को रूढ़ी मानते है। इक्कीसवीं सदी के कलाकारों के रूप में, भले ही हम शास्त्रीय नृत्य की जड़ों को पूर्णत‌‌ः बदल नही सकते, लेकिन कोशिश जरूर कर सकते है की आने वाली पीढ़ी नृतिया में अभ्यावेदन लाए।