अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद

अभयचरणारविन्द भक्तिवेदान्तस्वामी प्रभुपाद अन्तर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत सङ्घ के संस्थापकाचार्य | |
---|---|
![]() श्रील प्रभुपाद | |
संस्कृत |
संस्कृत: अभयचरणारविन्द भक्तिवेदान्तस्वामी प्रभुपाद बांग्ला: অভয়চরণারবিন্দ ভক্তিবেদান্ত স্বামী প্রভুপাদ |
धर्म | गौड़ीय वैष्णववद, हिन्दू धर्म |
संप्रदाय | ब्रह्ममधवगौड़िया सम्प्रदाय |
मंदिर | इस्कॉन |
अन्य नाम | श्रील प्रभुपाद, स्वामी प्रभुपाद, भक्तिवेदान्त स्वामी |
व्यक्तिगत विशिष्ठियाँ | |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
जन्म |
अभय चरण दे 01 सितम्बर 1896 ![]() |
निधन |
14 नवम्बर 1977![]() | (उम्र 81 वर्ष)
शांतचित्त स्थान | भक्तिवेदान्त स्वामी समाधि, वृन्दावन |
पद तैनाती | |
कर्मभूमि | वृन्दावन, भारत |
उपदि | अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ के संस्थापकाचार्य |
कार्यकाल | 1966–1977 |
धार्मिक जीवनकाल | |
गुरु | भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर |
काम | श्रीमद्भागवद्गीता यथारूप (हिन्दी, अंग्रेज़ी तथा और भी अन्य भाषाओं में), श्रीमद् भागवतम् |
Initiation | दीक्षा–1933, संन्यास–1959 |
पद | गुरु, सन्यासी, संस्थापकाचार्य |
वेबसाइट | इस्कॉन की आधिकारिक वेबसाइट प्रभुपाद जी की आधिकारिक वेबसाइट |
अभयचरणारविन्द भक्तिवेदान्तस्वामी प्रभुपाद (संस्कृत उच्चारण : [ɐbʱɐjɐt͡ʃɐɾɐɳɑːɾɐʋɪn̪d̪ɐ bʱɐkt̪ɪʋeːd̪ɑːn̪t̪ɐs̪ʋɑːmiː pɾɐbʱupɑːd̪ɐ]; बांग्ला: অভয়চরণারবিন্দ ভক্তিবেদান্ত স্বামী প্রভুপাদ) (1 सितम्बर 1896 – 14 नवम्बर 1977) जिन्हें स्वामी श्रील भक्तिवेदान्त प्रभुपाद के नाम से भी जाना जाता है, सनातन धर्म के एक प्रसिद्ध गौड़ीय वैष्णव गुरु तथा धर्मप्रचारक थे। आज सम्पूर्ण विश्व की हिन्दू धर्म भगवान श्री कृष्ण और श्रीमद्भगवद्गीता में जो आस्था है आज समस्त विश्व के करोड़ों लोग जो सनातन धर्म के अनुयायी बने हैं उसका श्रेय जाता है अभयचरणारविन्द भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद को, इन्होंने वेदान्त कृष्ण-भक्ति और इससे सम्बन्धित क्षेत्रों पर शुद्ध कृष्ण भक्ति के प्रवर्तक श्री ब्रह्म-मध्व-गौड़ीय सम्प्रदाय के पूर्वाचार्यों की टीकाओं के प्रचार प्रसार और कृष्णभावना को पश्चिमी जगत में पहुँचाने का काम किया। ये भक्तिसिद्धान्त ठाकुर सरस्वती के शिष्य थे जिन्होंने इनको अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से वैदिक ज्ञान के प्रसार के लिए प्रेरित और उत्साहित किया। इन्होंने इस्कॉन (ISKCON) की स्थापना की और कई वैष्णव धार्मिक ग्रन्थों का प्रकाशन और सम्पादन स्वयं किया।
इनका नाम "अभय चरण दे" था और इनका जन्म कोलकाता में बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था । सन् १९२२ में कोलकाता में अपने गुरुदेव श्री भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर से मिलने के बाद उन्होंने श्रीमद्भग्वद्गीता पर एक टिप्पणी लिखी, गौड़ीय मठ के कार्य में सहयोग दिया तथा १९४४ में बिना किसी की सहायता के एक अंग्रेज़ी आरम्भ की जिसके सम्पादन, टङ्कण और परिशोधन (अर्थात् प्रूफ़ रीडिङ्ग) का काम स्वयं किया। निःशुल्क प्रतियाँ बेचकर भी इसके प्रकाशन क जारी रखा। सन् १९४७ में गौड़ीय वैष्णव समाज ने इन्हें भक्तिवेदान्त की उपाधि से सम्मानित किया, क्योंकि इन्होंने सहज भक्ति के द्वारा वेदान्त को सरलता से हृदयङ्गम करने का एक परम्परागत मार्ग पुनः प्रतिस्थापित किया, जो भुलाया जा चुका था।
सन् १९५९ में सन्यास ग्रहण के बाद उन्होंने वृन्दावन में श्रीमदभागवतपुराण का अनेक खण्डों में अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। आरम्भिक तीन खण्ड प्रकाशित करने के पश्चात् सन् १९६५ में अपने गुरुदेव के अनुष्ठान को सम्पन्न करने वे ७० वर्ष की आयु में बिना धन या किसी सहायता के अमेरिका जाने के लिए निकले जहाँ सन् १९६६ में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ की स्थापना की। सन् १९६८ में प्रयोग के तौर पर वर्जीनिया की पहाड़ियों में नव-वृन्दावन की स्थापना की। दो हज़ार एकड़ के इस समृद्ध कृषि क्षेत्र से प्रभावित होकर उनके शिष्यों ने अन्य जगहों पर भी ऐसे समुदायों की स्थापना की। १९७२ में टेक्सस के डैलस में गुरुकुल की स्थापना कर प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की वैदिक प्रणाली का सूत्रपात किया।
सन १९६६ से १९७७ तक उन्होंने विश्वभर का १४ बार भ्रमण किया तथा अनेक विद्वानों से कृष्णभक्ति के विषय में वार्तालाप करके उन्हें यह समझाया की कैसे कृष्णभावना ही जीव की वास्तविक भावना है। उन्होंने विश्व की सबसे बड़ी आध्यात्मिक पुस्तकों की प्रकाशन संस्था- भक्तिवेदान्त बुक ट्रस्ट- की स्थापना भी की। कृष्णभावना के वैज्ञानिक आधार को स्थापित करने के लिए उन्होंने भक्तिवेदान्त इंस्टिट्यूट की भी स्थापना की।
पुस्तकें और प्रकाशन
[संपादित करें]
भक्तिवेदान्त स्वामी का सबसे महत्वपूर्ण योगदान उनकी पुस्तकें हैं। भक्तिवेदांत स्वामी ने 60 से अधिक संस्करणों का अनुवाद किया। वैदिक शास्त्रों - भगवद्गीता, चैतन्य चरितामृत और श्रीमद्भागवतम् - का अंग्रेज़ी भाषा में अनुवाद किया। इन पुस्तकों का अनुवाद ८० से अधिक भाषाओँ में हो चूका है और दुनिया भर में इन पुस्तकों का वितरण हो रहा है। wsnl के अनुसार - अब तक 55 करोड़ से अधिक वैदिक साहित्यों का वितरण हो चुका है।
भक्तिवेदान्तबुक ट्रस्ट की स्थापना 1972 में उनके कार्यों को प्रकाशित करने के लिए की गई थी।