प्रबन्ध के सिद्धान्त

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प्रबंध विषय के अनेक विचारकों एवं लेखकों ने समय-समय पर प्रबंध के सिद्धांतों का अध्ययन किया है। वास्तव में प्रबंध विषय से संबंधित सोच का एक लम्बा इतिहास है। प्रबंध के सिद्धांतों का विकास हुआ है एवं अभी भी यह प्रक्रिया जारी है।

प्रबंध के सिद्धांतों का विकास[संपादित करें]

प्रबंध के इतिहास की खोज करते हुए कई विचारधाराओं से परिचित होते हैं जिन्होंने प्रबंधकीय व्यवहार को दिशा देने के सिद्धांतों की रूपरेखा तैयार की है। इन विचारधाराओं को छः अलग-अलग चरणों में विभक्त किया जा सकता है-

1- प्रारंभिक स्वरूप
2- प्राचीन प्रबंध के सिद्धांत
3- नवीन प्रतिष्ठित सिद्धांत - मानवीय संबंध मार्ग
4- व्यावहारिक विज्ञान मार्ग - संगठनात्मक मानववाद
5- प्रबंधकीय विज्ञान/परिचलनात्मक अनुसंधान
6- आधुनिक प्रबंध

प्रारंभिक स्वरूप[संपादित करें]

सर्वप्रथम प्रबंध संबंधी विचारों को 3,000-4,000 ई. पू. में दर्ज किया गया। मिस्र के शासक क्योपास को 2,900 ई. पू. में एक पिरामिड के निर्माण के लिए 1 लाख आदमियों की 20 वर्ष तक कार्य करने की आवश्यकता हुई। यह 13 एकड़ जमीन पर बनाया गया तथा इसकी ऊँचाई 481 मीटर थी। पत्थर की शिलाओं को हजारों किलोमीटर से लाया जाता था। किवंदति के अनुसार इन पिरामिडों के आसपास के गाँवों में हथौड़े तक की आवाज सुनाई नहीं देती थी। ऐसे यादगार कार्य को बिना सफल प्रबंधक सिद्धांतों का अनुसरण किए पूरा करना संभव नहीं था।

क्लासिकी प्रबंध सिद्धांत[संपादित करें]

इस चरण की विशेषता विवेकशील आर्थिक विचार, वैज्ञानिक प्रबंधन, प्रशासनिक सिद्धान्त, अफसरशाही संगठन हैं। विवेकशील आर्थिक विचार की धारणा थी कि लोग मूलतः आर्थिक लाभों से प्रोत्साहित होते हैं। एल. डब्ल्यू. टेलर एवं अन्य सिद्धान्तकारों का वैज्ञानिक प्रबंधन उत्पादन आदि के लिए एक सर्वोत्तम ढंग पर जोर देता है। हेनरी फेयॉल के समान व्यक्तित्व वाले प्रशासनिक सिद्धांतवेत्ताओं ने पद एवं व्यक्तियों को एक सक्षम संगठन में परिवर्तित करने के लिए सर्वोत्तम मार्ग ढूँढ़ा। अफसरशाही संगठन के सिद्धांतवेत्ता, जिनमें अग्रणी मैक्स वैबर थे, ने अधिकारों के गलत प्रयोग, जिससे प्रभावशीलता समाप्त होती थी, के कारण प्रबंधकीय अनियमितताओं को समाप्त करने के मार्ग की खोज की। यह औद्योगिक क्रांति एवं उत्पादन की कारखाना प्रणाली का युग था। बिना संगठनबद्ध उत्पादन को शासित करने वाले सिद्धांतों का अनुसरण किए बिना बड़े पैमाने पर उत्पादन संभव नहीं था। यह सिद्धांत श्रम विभाजन एवं विशिष्टीकरण, मानव एवं मशीन के बीच पारस्परिक संबंध, लोगों का प्रबंधन आदि पर आधारित थे।

नवक्लासिकी सिद्धांत-मानवीय संबंध मार्ग[संपादित करें]

यह विचार धारा 1920 से 1950 के बीच विकसित हुई। इसका मानना था कि कर्मचारी मात्र नियम, अधिकार शृंखला एवं आर्थिक प्रलोभन के कारण ही विवेक से कार्य नहीं करते बल्कि वह सामाजिक आवश्यकताओं प्रेरणाओं एवं दृष्टिकोण से भी निर्देशित होते हैं। जी. ई. सी. आदि पर ‘हार्थेन’ अध्ययन किया गया। यह स्वभाविक था कि औद्योगिक क्रांति के प्रारंभिक दौर में तकनीक एवं प्रौद्योगिकी पर अधिक जोर था। मानवीय तत्व पर ध्यान देना इस विचारधारा का एक विशिष्ट पहलू था। इस पर ध्यान देना व्यावहारिक विज्ञान के विकास के अग्रदूत के रूप में कार्य करना था। प्रबन्ध के अन्य प्रमुख सिद्धांत-

1.प्रबन्ध के विस्तार का सिद्धांत
2.मानवीय सम्बन्धों का सिद्धांत
3.सन्तुलन का सिद्धांत
4.अपवाद का सिद्धांत

व्यावहारिक विज्ञान मार्ग - संगठनात्मक मानवतावाद[संपादित करें]

संगठनात्मक व्यवहारकर्ता जैसे क्रिस अएर्गरिस, डगलस मैकग्रैगर, अब्राहम मैसलो एवं लैडरिक-हर्जबर्ग ने इस मार्ग को विकसित करने के लिए मनोविज्ञान शास्त्र, समाज शास्त्र एवं मानव शास्त्र के ज्ञान का उपयोग किया। संगठनात्मक मानवतावाद का दर्शन है जिसमें व्यक्तियों को कार्य स्थल पर एवं घर पर अपनी सभी योग्यताओं एवं रचनात्मक कौशल का उपयोग करना होता है।

प्रबंध विज्ञान/परिचालनात्मक अनुसंधान[संपादित करें]

यह प्रबंधकों को निर्णय लेने में सहायतार्थ परिमाण संबंधी तकनीक के उपयोग प्रचालन एवं अनुसंधान पर जोर देता है। आधुनिक प्रबंध-यह आधुनिक संगठनों को एक जटिल प्रणाली के रूप में देखता है तथा संगठनात्मक एवं मानवीय समस्याओं के समाधान के लिए आकस्मिक घटना के रूप में आधुनिक तकनीक का प्रयोग करता है।

स्पष्ट है कि प्रबंध विषय का विकास बहुत मंत्रमुग्ध करने वाला रहा है। फैड्रिक विंसलो टेलर एवं हेनरी फेयॉल दो ऐतिहासिक (क्लासकी) व्यवसाय के सिद्धांतों से जुड़े रहे हैं। प्रबंध एक शास्त्र के रूप में अध्ययन में इन दोनों का बड़ा भारी योगदान रहा है। एफ. डब्ल्यू. टेलर एक अमरीकन यांत्रिकी इंजीनियर रहा है जबकि हेनरी फेयॉल एक फ्रांसीसी खदान इंजीनियर। टेलर ने वैज्ञानिक प्रबंधन की अवधारणा दी जबकि, फेयॉल ने प्रशासनिक सिद्धांतों पर बल दिया।

प्रबंध के सिद्धांत-एक अवधारणा[संपादित करें]

प्रबंध का सिद्धांत निर्णय लेने एवं व्यवहार के लिए व्यापक एवं सामान्य मार्गदर्शक होता है। उदाहरण के लिए माना कि एक कर्मचारी की पदोन्नति के संबंध में निर्णय लेना है तो एक प्रबंधक वरीयता को ध्यान में रखना चाहता है तो दूसरा योग्यता के सिद्धांत पर चलना चाहता है। प्रबंध के सिद्धांतों को खालिस विज्ञान से भिन्न माना जा सकता है। प्रबंध के सिद्धांत खालिस विज्ञान के सिद्धांतों के समान बेलोच नहीं होते हैं। क्योंकि इनका संबंध मानवीय व्यवहार से है इसलिए इनको परिस्थिति की माँग के अनुसार उपयोग में लाया जाता है। व्यवसाय के प्रभावित करने वाले मानवीय व्यवहार एवं तकनीक कभी स्थिर नहीं होते हैं। यह सदा बदलते रहते हैं। उदाहरणार्थ, सूचना एवं संप्रेषण तकनीकी के अभाव में एक प्रबंधक एक संकुचित क्षेत्र में फैले छोटे कार्यबल का पर्यवेक्षण कर सकता है। सूचना एवं संप्रेषण तकनीक के आगमन ने प्रबंधकों की पूरे विश्व में फैले विशाल व्यावसायिक साम्राज्य के प्रबंधन की योग्यता को बढ़ाया है। बैंगलोर में स्थित इनफोसिस का प्रधान कार्यालय इस पर गर्व कर सकता है कि उसके गोष्ठी कक्ष में एशिया का सबसे बड़ा चित्रपट है जहाँ बैठे उसके प्रबंधक विश्व के किसी भी भाग में बैठे अपने कर्मचारी एवं ग्राहक से संवाद कर सकते हैं।

प्रबंध के सिद्धांतों की समझ को विकसित करने के लिए यह जानना भी उपयोगी रहेगा कि यह सिद्धांत नया नहीं है। प्रबंध के सिद्धांतों एवं प्रबंध की तकनीकों में अंतर होता है। तकनीक अभिप्राय प्रक्रिया एवं पद्धतियों से है। यह इच्छित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए विभिन्न चरणों की शृंखला होते हैं। सिद्धांत तकनीकों का प्रयोग करने में निर्णय लेने अथवा कार्य करने में मार्गदर्शन का कार्य करते हैं। इसी प्रकार से सिद्धांतों को मूल्यों से भिन्न समझना चाहिए। मूल्यों से अभिप्राय किसी चीज को स्वीकार करने अथवा उसकी इच्छा रखने से है। मूल्य नैतिकतापूर्ण होते हैं। सिद्धांत व्यवहार के आधारभूत सत्य अथवा मार्गदर्शक होते हैं। मूल्य समाज में लोगों के व्यवहार के लिए सामान्य नियम होते हैं जिनका निर्माण समान व्यवहार के द्वारा होता है जबकि प्रबंध के सिद्धांतों का निर्माण कार्य की परिस्थितियों में अनुसंधान द्वारा होता है तथा ये तकनीकी प्रकृति के होते हैं। प्रबंध के सिद्धांतों को व्यवहार में लाते समय मूल्यों की अवहेलना नहीं कर सकते क्योंकि व्यवसाय को समाज के प्रति सामाजिक एवं नैतिक उत्तरदायित्वों को निभाना होता है।

प्रबंध के सिद्धांतों की प्रकृति[संपादित करें]

प्रकृति का अर्थ है किसी भी चीज के गुण एवं विशेषताएँ। सिद्धांत सामान्य औपचारिक कथन होते हैं जो कुछ परिस्थितियों में ही लागू होते हैं इनका विकास प्रबंधकों के अवलोकन, परीक्षण एवं व्यक्तिगत अनुभव से होता है प्रबंध को विज्ञान एवं कला दोनों के रूप में विकसित करने में उनका योगदान इस पर निर्भर करता है कि उन्हें किस प्रकार से प्राप्त किया जाता है तथा वह प्रबंधकीय व्यवहार को कितने प्रभावी ढंग से समझा सकते हैं एवं उसका पूर्वानुमान लगा सकते हैं। इन सिद्धांतों को विकसित करना विज्ञान है तो इनके उपयोग को कला माना जा सकता है। यह सिद्धांत प्रबंध को व्यवहारिक पक्ष के अध्ययन एवं शैक्षणिक योग्यता को विश्वसनीयता प्रदान करते हैं। प्रबंध के उच्च पदों पर पहुँचना जन्म के कारण नहीं बल्कि आवश्यक योग्यताओं के कारण होता है। स्पष्ट है कि प्रबंध पेशे के रूप में विकास के साथ प्रबंध के सिद्धांतों के महत्त्व में वृद्धि हुई है।

सिद्धांत, कार्य के लिए मार्गदर्शन का कार्य करते हैं। यह कारण एवं परिणाम में संबंध को स्पष्ट करते हैं। प्रबंध करते समय, प्रबंध के कार्य नियोजन, संगठन, नियुक्तिकरण, निदेशन एवं नियंत्रण प्रबंध की क्रियाएँ हैं। जबकि सिद्धांत इन कार्यों को करते समय प्रबंधकों को निर्णय लेने में सहायक होते हैं। निम्न बिंदु प्रबंध के सिद्धांतों की प्रकृति को संक्षेप में बताते हैं।

सर्व प्रयुक्त[संपादित करें]

प्रबंध के सिद्धांत सभी प्रकार के संगठनों में प्रयुक्त किए जा सकते हैं। यह संगठन व्यावसायिक एवं गैर-व्यावसायिक, छोटे एवं बड़े, सार्वजनिक तथा निजी, विनिर्माण एवं सेवा क्षेत्र के हो सकते हैं। लेकिन वह किस सीमा तक प्रयुक्त हो सकते हैं यह संगठन की प्रकृति, व्यावसायिक कार्यों, परिचालन के पैमाने आदि बातों पर निर्भर करेगा। उदाहरण के लिए, अधिक उत्पादकता के लिए कार्य को छोटे-छोटे भागों में बाँटा जाना चाहिए तथा प्रत्येक कर्मचारी को अपने कार्य में दक्षता के लिए प्रशिक्षित करना चाहिए। यह सिद्धांत सरकारी कार्यालयों में विशेष रूप से प्रयुक्त हो सकता है जहाँ डाक अथवा विलेखों को प्राप्त करने एवं भेजने के लिए दैयनांदिनी प्रेषण र्क्लक, कंप्यूटर में आँकड़ों को दर्ज करने के लिए आँकड़े प्रवेश परिचालक, चपरासी, अधिकारी आदि होते हैं। ये सिद्धांत सीमित दायित्व कंपनियों में भी प्रयुक्त होते हैं, उदाहरणार्थ उत्पादन, वित्त, विपणन तथा अनुसंधान एवं विकास आदि। कार्य विभाजन की सीमा परिस्थिति अनुसार भिन्न हो सकती है।

सामान्य मार्गदर्शन[संपादित करें]

सामान्य मार्गदर्शन-सिद्धांत कार्य के लिए मार्गदर्शन का कार्य करते हैं लेकिन ये, सभी प्रबंधकीय समस्याओं का तैयार, शतप्रतिशत समाधान नहीं होते हैं। इसका कारण है वास्तविक परिस्थितियाँ बड़ी जटिल एवं गतिशील होती हैं तथा यह कई तत्वों का परिणाम होती हैं। लेकिन सिद्धांतों के महत्त्व को कम करके नहीं आंका जा सकता क्योंकि, छोटे से छोटा दिशानिर्देश भी किसी समस्या के समाधान में सहायक हो सकता है। उदाहरण के लिए, यदि दो विभागों में कोई विरोधाभास की स्थिति पैदा होती है, तो इससे निपटने के लिए प्रबंधक संगठन के व्यापक उद्देश्यों को प्राथमिकता दे सकते हैं।

व्यवहार एवं शोध द्वारा निर्मित[संपादित करें]

प्रबंध के सिद्धांतों का सभी प्रबंधकों के अनुभव एवं बुद्धि चातुर्य एवं शोध के द्वारा ही निर्माण होता है। उदाहरण के लिए सभी का अनुभव है कि किसी भी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अनुशासन अनिवार्य है। यह सिद्धांत प्रबंध के सिद्धांतों का एक अंग है। दूसरी ओर कारखाने में कामगारों की थकान की समस्या के समाधान के लिए भारी दवाब को कम करने के लिए भौतिक परिस्थितियों में सुधार के प्रभाव की जांच हेतु परीक्षण किया जा सकता है। (घ) लोच-प्रबंध के सिद्धांत बेलोच नुस्खे नहीं होते जिनको मानना अनिवार्य ही हो। ये लचीले होते हैं तथा परिस्थिति की माँग के अनुसार प्रबंधक इन में सुधार कर सकते हैं। ऐसा करने के लिए प्रबंधकों को पर्याप्त छूट होती है उदाहरण के लिए सभी अधिकारों का एक ही व्यक्ति के पास होना (केंद्रीकरण) अथवा उनका विभिन्न लोगों में वितरण (विकेंद्रीकरण) प्रत्येक उद्यम की स्थिति एवं परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। वैसे प्रत्येक सिद्धांत वे हथियार होते हैं जो अलग-अलग उद्देश्यों को पूरा करने के लिए अलग-अलग होते है तथा प्रबंधक को निर्णय लेना होता है कि किस परिस्थिति में वह किस सिद्धांत का प्रयोग करे।

मुख्यतः व्यावहारिक[संपादित करें]

प्रबंध के सिद्धांतों का लक्ष्य मानवीय व्यवहार को प्रभावित करना होता है। इसलिए प्रबंध के सिद्धांत मुख्यतः व्यावहारिक प्रकृति के होते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि यह सिद्धांत वस्तु स्थिति एवं घटना से संबद्ध नहीं होते हैं। अंतर केवल यह होता है कि किसको कितना महत्त्व दिया जा रहा है। सिद्धांत संगठन के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए मानवीय एवं भौतिक संसाधनों के बीच पारस्परिक संबंध को भली-भाँति समझने में सहायक होते हैं। उदाहरण के लिए कारखाने की योजना बनाते समय यह ध्यान में रखा जाएगा कि व्यवस्था के लिए कार्य प्रवाह का माल के प्रवाह एवं मानवीय गतिविधियों से मिलान होना चाहिए।

कारण एवं परिणाम का संबंध[संपादित करें]

प्रबंध के सिद्धांत, कारण एवं परिणाम के बीच संबंध स्थापित करते हैं जिससे कि उन्हें बड़ी संख्या में समान परिस्थितियों में उपयोग किया जा सके। यह हमें बताते हैं कि यदि किसी एक सिद्धांत को एक परिस्थिति विशेष में उपयोग किया गया है, तो इसके क्या परिणाम हो सकते हैं। प्रबंध के सिद्धांत कम निश्चित होते हैं क्योंकि यह मुख्यतः मानवीय व्यवहार में प्रयुक्त होते हैं। वास्तविक जीवन में परिस्थितियाँ सदा एक समान नहीं रहती हैं। इसलिए कारण एवं परिणाम के बीच सही-सही संबंध स्थापित करना कठिन होता है। फिर भी प्रबंध के सिद्धांत कुछ सीमा तक इन संबंधों को स्थापित करने में प्रबंधकों की सहायता करते हैं, इसीलिए ये उपयोगी होते हैं। आपात स्थिति में अपेक्षा की जाती है कि कोई एक उत्तरदायित्व तथा अन्य उसका अनुकरण करें। लेकिन यदि विभिन्न प्रकार की परिचलनात्मक विशिष्टता की परिस्थिति है जैसे कोई नया कारखाना लगाना है तो निर्णय लेने में अधिक सहयोग प्राप्त करना उचित रहेगा।

अनिश्चित[संपादित करें]

प्रबंध के सिद्धांतों का प्रयोग अनिश्चित होता है अथवा समय विशेष की मौजूदा परिस्थितियों पर निर्भर करता है। आवश्यकतानुसार सिद्धांतों के प्रयोग में परिवर्तन लाया जा सकता है। उदाहरण के लिए कर्मचारियों को न्यायोचित पारिश्रमिक मिलना चाहिए, लेकिन न्यायोचित क्या है इसका निर्धारण बहुत से तत्वों के द्वारा होगा। इनमें सम्मिलित हैं, कर्मचारियों का योगदान, नियोक्ता की भुगतान क्षमता तथा जिस व्यवसाय का हम अध्ययन कर रहे हैं, उसमें प्रचलित मजदूरी दर।

प्रबंध के सिद्धांतों में निहित गुण एवं विशेषताओं का वर्णन कर लेने के पश्चात् आपके लिए प्रबंधकीय निर्णय लेने में इन सिद्धांतों के महत्त्व को समझना सरल होगा। लेकिन इससे पहले आप साथ में दिए गए बॉक्स में भारत के एक अत्यधिक सफल व्यवसायी एवं बायोकोन के प्रमुख कार्यकारी अधिकारी (सी- ई- ओ-) किरन मजूमदार शॉ के ‘वस्तुस्थिति अध्ययन’ को पढ़ सकते हैं। आप देखेंगे कि किस प्रकार से वह बायोटेक्नोलॉजी क्षेत्र, जिसे बहुत ही कम लोग जानते थे, को एक अत्यधिक लाभ कमाने वाली कंपनी में परिवर्तित कर दिया तथा उन्होंने वह नाम कमाया जो किसी भी व्यक्ति का स्वप्न हो सकता है।

प्रबंध के सिद्धांतों का महत्त्व[संपादित करें]

प्रबंध के सिद्धांतों का महत्त्व उनकी उपयोगिता के कारण है। यह प्रबंध के व्यवहार का उपयोगी सूक्ष्म ज्ञान देता है एवं प्रबंधकीय आचरण को प्रभावित करता है। प्रबंधक इन सिद्धांतों को अपने दायित्व एवं उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए उपयोग में ला सकते हैं। आप यह तो मानेंगे कि प्रत्येक सारगर्भित चीज निहित सिद्धांत के द्वारा शासित होती है। [सिद्धांत प्रंबंधकों को निर्णय लेने एवं उनको लागू करने में मार्गदर्शन करते हैं।] प्रबंध के सिद्धांतकार का प्रयत्न सदा निहित सिद्धांतों की खोज करना रहा है तथा रहना भी चाहिए जिससे कि इन्हें दोहराई जा रही परिस्थितियों में स्वभाविक रूप से प्रबंध के लिए उपयोग में लाया जा सके। प्रबंध के सिद्धांतों के महत्त्व को निम्न बिंदुओं के रूप में समझाया जा सकता है-

प्रबंधकों को वास्तविकता का उपयोगी सूक्ष्म ज्ञान प्रदान करना[संपादित करें]

प्रबंध के सिद्धांत, प्रबंधकों को वास्तविक दुनियावी स्थिति में उपयोगी पैंठ कराते हैं। इन सिद्धांतों को अपनाने से उनके प्रबंधकीय स्थिति एवं परिस्थितियों के संबंध में ज्ञान, योग्यता एवं समझ में वृद्धि होगी। इससे प्रबंधक अपनी पिछली भूलों से कुछ सीखेगा तथा बार-बार उत्पन्न होने वाली समस्याओं को तेजी से हल कर समय की बचत करेगा। इस प्रकार प्रबंध के सिद्धांत, प्रबंध क्षमता में वृद्धि करते हैं उदाहरण के लिये, एक प्रबंधक दिन प्रतिदिन के निर्णय अधीनस्थों के लिए छोड़ सकता है तथा स्वयं विशिष्ट कार्यों को करेगा जिसके लिए उसकी अपनी विशेषज्ञता की आवश्यकता होगी। इसके लिए वह अधिकार अंतरण के सिद्धांत का पालन करेगा।

संसाधनों का अधिकतम उपयोग एवं प्रभावी प्रशासन[संपादित करें]

कंपनी को उपलब्ध मानवीय एवं भौतिक दोनों संसाधन सीमित होते हैं। इनका अधिकतम उपयोग करना होता है। इनके अधिकतम उपयोग से अभिप्राय है, कि संसाधनों को इस प्रकार से उपयोग किया जाए कि उनसे कम से कम लागत पर अधिकतम लाभ प्राप्त हो सके। सिद्धांतों की सहायता से प्रबंधक अपने निर्णयों एवं कार्यों में कारण एवं परिणाम के संबंध का पूर्वानुमान लगा सकते हैं। इससे गलतियों से शिक्षा ग्रहण करने की नीति में होने वाली क्षति से बचा जा सकता है। प्रभावी प्रशासन के लिए प्रबंधकीय व्यवहार का व्यक्तिकरण आवश्यक है जिससे कि प्रबंधकीय अधिकारों का सुविधानुसार उपयोग किया जा सके। प्रबंध के सिद्धांत, प्रबंध में स्वेच्छाचार की सीमा निर्धारित करते हैं जिससे कि प्रबंधकों के निर्णय व्यक्तिगत पंसद एवं पक्षपात से मुक्त रहें। उदाहरण के लिए, विभिन्न विभागों के लिए वार्षिक बजट के निर्धारण में प्रबंधकों द्वारा निर्णय उनकी व्यक्तिगत पंसद पर निर्भर करने के स्थान पर संगठन के उद्देश्यों के प्रति योगदान के सिद्धांत पर आधारित होते हैं।

वैज्ञानिक निर्णय[संपादित करें]

निर्णय, निर्धारित उद्देश्यों के रूप में विचारणीय एवं न्यायोचित तथ्यों पर आधारित होने चाहिएँ। यह समयानुकूल, वास्तविक एवं मापन तथा मूल्यांकन के योग्य होने चाहिएँ। प्रबंध के सिद्धांत विचारपूर्ण निर्णय लेने में सहायक होने चाहिए। हाँ तर्क पर जोर देते हैं न कि आँख मूंदकर विश्वास करने पर। प्रबंध के जिन निर्णयों को सिद्धांतों के आधार पर लिया जाता है, वह व्यक्तिगत द्वेष भावना तथा पक्षपात से मुक्त होते हैं। यह परिस्थिति के तर्कसंगत मूल्यांकन पर आधारित होते हैं।

बदलती पर्यावरण की आवश्यकताओं को पूरा करना[संपादित करें]

सिद्धांत यद्यपि सामान्य दिशा निर्देश प्रकृति के होते हैं तथापि इनमें परिवर्तन होता रहता है, जिससे यह प्रबंधकों की पर्यावरण पर बदलती आवश्यकताओं को पूरा करने में सहायक होते हैं। आप पढ़ चुके हैं कि प्रबंध के सिद्धांत लोचपूर्ण होते हैं, जो गतिशील व्यावसायिक पर्यावरण के अनुरूप ढाले जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, प्रबंध के सिद्धांत श्रम-विभाजन एवं विशिष्टीकरण को बढ़ावा देते हैं। आधुनिक समय में यह सिद्धांत सभी प्रकार के व्यवसायों पर लागू होते हैं। कंपनियाँ अपने मूल कार्य में विशिष्टता प्राप्त कर रही हैं तथा अन्य व्यावसायिक कार्यों को छोड़ रही हैं। इस संदर्भ में हिन्दुस्तान लीवर लि- के निर्णय का उदाहरण ले सकते हैं जिसने अपने मूलकार्य से अलग रसायन एवं बीज के व्यवसाय को छोड़ दिया है। कुछ कंपनियाँ गैर मूल कार्य जैसे शेयर हस्तांतरण प्रबंध एवं विज्ञापन को बाहर की एजेंसियों से करा रही हैं। यहाँ तक कि आज अनुसंधान एवं विकास, विनिर्माण एवं विपणन जैसे मूल कार्यों को भी बाहर अन्य इकाइयों से कराया जा रहा है। अपने व्यावसायिक प्रक्रिया बाह्य ड्डोतीकरण एवं ज्ञान प्रक्रिया बाह्य ड्डोतीकरण में बढ़ोतरी के संबंध में तो सुना ही होगा।

सामाजिक उत्तरदायत्वों को पूरा करना[संपादित करें]

जनसाधारण में बढ़ती जागरुकता व्यवसायों विशेषत सीमित दायित्व कंपनियों, को अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों को निभाने के लिए बाध्यकारी रही हैं। प्रबंध के सिद्धांत एवं प्रबंध विषय का ज्ञान इस प्रकार की माँगों के परिणामस्वरूप ही विकसित हुआ है। तथा समय के साथ-साथ सिद्धांतों की व्याख्या से इनके नए एवं समकालीन अर्थ निकल रहे हैं। इसीलिए यदि आज कोई समता की बात करता है, तो यह मजदूरी के संबंध में ही नहीं होती। ग्राहक के लिए मूल्यवान, पर्यावरण का ध्यान रखना, व्यवसाय के सहयोगियों से व्यवहार पर भी यह सिद्धांत लागू होता है। जब इस सिद्धांत को लागू किया जाता है, तो हम पाते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों ने पूरे शहरों का विकास किया है, जैसे भेल (बीएचईएल) ने हरिद्वार (उत्तराखंड) में रानीपुर का विकास किया है। श्री महिला गृह उद्योग लिज्जत पापड़ का भी उदाहरण दिया जा सकता है।

प्रबंध प्रशिक्षण, शिक्षा एवं अनुसंधान[संपादित करें]

प्रबंध के सिद्धांत प्रबंध विषय के ज्ञान का मूलाधार हैं। इनका उपयोग प्रबंध के प्रशिक्षण, शिक्षा एवं अनुसंधान के आधार के रूप में किया जाता है। आप अवश्य जानते होंगे कि प्रबंध संस्थानों में प्रवेश के पूर्व प्रबंध की परीक्षा ली जाती है। क्या आप समझते हैं कि इन परीक्षाओं का विकास बिना प्रबंध के सिद्धांतों की समझ एवं इनको विभिन्न परिस्थितियों में कैसे उपयोग किया जा सकता है, को जाने बिना किया जा सकता है। यह सिद्धांत प्रबंध को एक शास्त्र के रूप में विकसित करने का प्रारंभिक आधार तैयार करते हैं। पेशेवर विषय जैसे कि एम-बी-ए- (मास्टर ऑफ बिजिनेस एडमिनिस्ट्रेशन) बी-बी-ए- (बैचलर ऑफ बिजिनेस एडमिनिस्ट्रेशन) में भी प्रारंभिक स्तर के पाठ्यक्रम के भाग के रूप में इन सिद्धांतों को पढ़ाया जाता है।

यह सिद्धांत भी प्रबंध में विशिष्टता लाते हैं एवं प्रबंध की नयी तकनीकों के विकास में सहायक होते हैं। हम देखते हैं कि परिचालन अनुसंधान, लागत लेखांकन, समय पर, कैनबन एवं केजन जैसे तकनीकों का विकास इन सिद्धांतों में और अधिक अनुसंधान के कारण हुआ है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]