प्रदक्षिणा

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स्तूप की परिक्रमा करते हुए भक्त

इष्टदेव की मूर्ति (या कहीं-कहीं देवायतन) के चारों ओर वृत्ताकार इस प्रकार घूमना जिसमें देव या मंदिर अपने दक्षिण भाग में रहे, प्रदक्षिणा कहलाता है। यह प्रदक्षिणा (नमस्कार के साथ) एक 'उपचार' (षोडश उपचारों में अन्यतम) माना जाता है, ऐसा बहुतों का मत है। प्रदक्षिणा के अंत में प्रणाम अवश्य करना चाहिये, बहुतों का मत है। किसी-किसी ग्रंथ में प्रदक्षिणा के विशेष नियम उपलब्ध होते है; विश्वासरतंत्र में कहा गया है कि हाथ में शंख लेकर देवता की प्रदक्षिणा करनी चाहिए। नमस्कार के साथ प्रदक्षिणा के विभिन्न रूप कहे गए हैं, जैसे, शिवप्रणाम में अर्धचंद्राकार प्रदक्षिणा कर नमस्कार करना चाहिए। देवविशेष के अनुसार प्रदक्षिणा की संख्या में भी भेद होते हैं। चंडी के लिये एक, सूर्य के लिये सात प्रदक्षिणाएँ विहित हैं। पदक्षिणा का यह नियम अधिक प्रचलित है कि गणेश के लिये एक बार, सूर्य के लिये दो बार, शिव के लिये तीन बार, विष्णु के लिये चार बार और अश्वत्थ वृक्ष के लिये सात बार प्रदक्षिणा करनी चाहिए।

यह प्रदक्षिणा पूजा का एक अंग है, अत: भक्तिभाव से ही इसका अनुष्ठान होना चाहिए।

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