प्रथम आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध

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एलिजाबेथ बटलर द्वारा बनाया गया चित्र जिसमें जनवरी १८४२ में जलालाबाद के अंग्रेज़ सैन्य अड्डे पर पहुँचने वाले एक मात्र ब्रिटिश विलियम ब्राइडन को दिखाया गया है। काबुल से वापसी की शुरुआत क़रीब १६५०० ब्रिटिश तथा भारतीय सैनिकों और कर्मचारियों ने की थी।

प्रथम आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध जिसे प्रथम अफ़ग़ान युद्ध के नाम से भी जाना जाता है, 1839 से 1842 के बीच अफ़ग़ानिस्तान में अंग्रेजों और अफ़ग़ानिस्तान के सैनिकों के बीच लड़ा गया था। इसकी प्रमुख वजह अंग्रज़ों के रूसी साम्राज्य विस्तार की नीति से डर था। आरंभिक जीत के बाद अंग्रेज़ो को भारी क्षति हुई, बाद में सामग्री और सैनिकों के प्रवेश के बाद वे जीत तो गए पर टिक नहीं सके।

पृष्ठभूमि[संपादित करें]

अफगानिस्तान में रूसियों की बढ़ती उपस्थिति अंग्रेज़ो की चिन्ता का कारण बन रही थी, क्योंकि वे इसके पड़ोसी देश भारत पर कई हिस्सों में राज़ कर रहे थे। अंग्रेज़ो ने अलेक्ज़ेंडर बर्न्स नामक एक जासूस को अफ़गानिस्तान की स्थिति और वहाँ के सैन्य सूचनाओं को इकठ्ठा करने सन् १८३१ में काबुल भेजा। बर्न्स ने एक साल के दौरान कई महत्वपूर्ण भौगोलिक और सामरिक जानकारियाँ इकठ्ठा की और उसकी लिखी किताब मशहूर हो गई। अपने काबुल प्रवास के दौरान उसने वहाँ रूसी गुप्तचरों के बारे में भी ज़िक्र किया जिससे ब्रिटिश शासन को एक नई जानकारी मिली। उसको पुरस्कारों से नवाजा गया।

पश्चिमी अफ़ग़ानिस्तान में हुए एक ईरानी आक्रमण में हेरात ईरानी साम्राज्य का फ़िर से हिस्सा बन गया और पूर्व में पेशावर पर रणजीत सिंह के सिख साम्राज्य का अधिकार हो गया। इस स्थिति में अफ़ग़ान अमीर दोस्त मुहम्मद ख़ान ने ब्रिटिश साम्राज्य से मदद मांगी पर उन्होंने सहायता न दी। इसके बाद रूसी गुप्तचरों और दूतों के काबुल में होने से अंग्रेज़ों को डर हो गया कि कहीँ रूसी मध्य एशिया के रास्ते अफ़गानिस्तान में दाख़िल हो गए तो उनके भारतीय साम्राज्य बनाने के सपने में रूसी आक्रमण का डर शामिल हो जाएगा। इसकी वजह से उन्होंने अफ़गानिस्तान पर आक्रमण कर दिया।

युद्ध[संपादित करें]

अंग्रेज़ों ने १८३९ में दक्षिण में क्वेटा से अफ़ग़ानिस्तान में प्रवेश किया। आरंभ में अंग्रेजो ने कांधार, ग़ज़नी तथा काबुल जैसे शहरो पर अधिकार कर लिया। वहाँ पर अंग्रेज़ों ने अफ़गान गद्दी के पूर्व दावेदार शाह शुजा को अमीर घोषित कर दिया जो अब तक कश्मीर और पंजाब में छुपता रहा था। पर वो लोकप्रिय नहीं रहा और अफ़गान लोगों की नज़रों में विदेशी कठपुतली की तरह लगने लगा। 1841 में अफ़ग़ानी लोगो ने काबुल में अंग्रेजो के खिलाफ़ विद्रोह कर दिया। उन्होने ब्रिटिश सैनिकों को मार कर उनके किले को घेर लिया। 1842 के शुरुआत में अंग्रेजो ने आत्म-समर्पण कर दिया। 1842 में उन्हें सुरक्षित बाहर निकलने का रास्ता दे दिया गया। लेकिन जलालाबाद के अंग्रेज़ी ठिकाने पर पहुँचने से पहले अफ़ग़ान आक्रमण से लगभग सभी लोग मर गए और एक व्यक्ति वापस पहुँच सका। इस घटना से ब्रिटिश सेना में डर सा पैदा हो गया।

१८४२ में ब्रिटिश दुबारा अफ़ग़ानिस्तान में दाखिल हुए लेकिन अपनी जीत सुनिश्चित करने के बाद लौट गए।

1878 में अंग्रेज़ो ने पुनः चढ़ाई की जो द्वितीय आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध के नाम से जाना गया।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]