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प्रतिलिप्यधिकार अधिनियम

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प्रतिलिप्याधिकार (कापीराइट) का अर्थ है किसी कृति के संबंध में किसी एक व्यक्ति, व्यक्तियों या संस्था का निश्चित अवधि के लिये अधिकार। मुद्रणकला का प्रचार होने के पूर्व किसी रचना या कलाकृति से किसी के आर्थिक लाभ उठाने का कोई प्रश्न नहीं था। इसलिये कापीराइट की बात उसके बाद ही उठी है। कापीराइट का उद्देश्य यह है कि रचनाकार, या कलाकार या वह व्यक्ति अथवा संस्था जिसे कलाकार या रचनाकार ने अधिकार प्रदान किया हो उस कलाकृति और रचना से निर्धारित अवधि तक आर्थिक लाभ उठा सके तथा दूसरा कोई इस बीच उससे उस रूप में लाभ न उठा पाए।

भारत में इस समय कापीराइट (प्रतिलिप्यधिकार या कृतिस्वाम्य) की जो व्यवस्था है वह 1957 के प्रतिलिप्यधिकार अधिनियम और उसके अंतर्गत बनाए गए नियमों द्वारा परिचालित होती है। इसके पूर्व भारत में 1914 में जो कापीराइट ऐक्ट बना था वह बहुत कुछ ब्रिटेन के 'इंपीरियल कापीराइट ऐक्ट (1911)' पर आधारित था। ब्रिटेन का यह कानून और उसके नियम, जो भारतीय स्वाधीनता अधिनियम के अनुच्छेद 18 (3) के अनुसार अनुकूलित कर लिए गए थे, 1957 तक चलते रहे। 1957 में नया कानून बनने पर पुराना कानून निरस्त हो गया।

बर्न समझौता

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प्रतिलिप्यधिकार के संबंध में यह अंतरराष्ट्रीय दृष्टि से सबसे पहली महत्वपूर्ण संधि है, जिसे बर्न या इंटरनेशनल कॉनवेंशन कहते हैं, यह संधि सन 1886 में हुई। इसके बाद से बर्न कॉनवेंशन में तीन बार संशोधन हो चुकें हैं।

सबसे अंतिम अंतरराष्ट्रीय समझौता 1955 में हुआ जिसे यूनिवर्सल कापीराइट कॉनवेंशन कहते हैं। इन दोनों के बीच सात समझौते और हुए हैं : मांटिविडियो कॉनवेंशन (1889), मेक्सिको सिटी कॉनवेंशन (1902), रियो डी जनेरो कॉनवेंशन (1906), ब्यूनस एयरीस कॉनवेंशन (1910), कैराकस ऐग्रीमेंट (1911), हवाना कॉनवेंशन (1928) तथा वाशिंगटन कॉनवेंशन (1914)।

मांटिविडियो कॉनवेंशन के अतिरिक्त और किसी समझौते का पालन यूरोपीय देशों ने नहीं किया और ब्राजील तथा कनाडा को छोड़कर और कोई अमरीकरन देश अपने को बर्न समझौते से बँधा मानता है।

बर्न समझौते में यूरोप, एशिया और अफ्रीका के कुल दो देश सम्मिलित हुए। मांटिविडयो करार के सिवाय शेष सभी करार अमरीकी देशों के बीच संपन्न आपसी समझौते थे। दूसरी ओर चीन, रूस तथा कई पश्चिम एशियाई देश थे, जो ऐसे किसी समझौते से बँधा मानता है। Ask

बर्न समझौते में यूरोप, एशिया और अफ्रीका के कुल दो देश सम्मिलित हुए। मांटिविडियो करार के सिवाय शेष सभी करार अमरीकी देशों के बीच संपन्न आपसी समझौते थे। दूसरी ओर चीन, रूस तथा कई पश्चिम एशियाई देश थे, जो ऐसे किसी समझौते से बँधे नहीं थे।

यूनेस्को समझौता

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इतने समझौतों और करारों के कारण स्थिति इतनी पेचीदी हो गई थी कि कोई सर्वमान्य विश्वव्यापी समझौता आवश्यक हो गया था। फलत: राष्ट्रसंघ की संबद्ध संस्था यूनेस्को (शिक्षा-विज्ञान-संस्कृति-संघटन) ने मामले को अपने हाथ में लिया और 1949 में यह निश्चय किया गया कि संस्था इस प्रश्न का तत्काल समाधान निकाले। अंत में इसने विश्वव्यापी प्रतिलिप्यधिकार समझौता तैयार किया जो 6 सितंबर 1952 से चार मास तक सदस्य देशों द्वारा समझौते के लिये खुला रहा। इस अवधि में 40 देशों ने इसपर हस्ताक्षर किए। यह भी व्यवस्था रखी गई कि इस अवधि के बाद भी इसका सदस्य होने में किसी प्रकार की बाधा नहीं है। हस्ताक्षरकर्ता 40 देश ये हैं :

अंडोरा, अर्जेटाइना, आस्ट्रेलिया, आस्ट्रिया, बेलजियम, ब्राजील, कनाडा, चिली, क्यूबा, डेनमार्क, एल सालवाडोर, फिनलैंड, फ्रांस, संघीय जर्मन गणराज्य (पश्चिमी जर्मनी), ग्वाटीमाला रेटी, पोपनगर, होंडुराज, भारत, आयरलैंड, इसराइल, इटली, जापान, लाइबेरिया, लक्सेंबर्ग, मेक्सिको, मोनैको, निकारागुआ, नीदरलैंड, नॉरवे, पेरू, पुर्तगाल, सांतामेरिया, स्पेन, स्वीडन, स्विटजरलैंड, ब्रिटेन, अमरीका, उरुग्वे और यूगास्लाविया। समझौता 16 सितंबर 1955 से लागू हुआ।

इस समझौते की कुछ मुख्य बातें इस प्रकार हैं :

1. किसी लेखक या कलाकार की एक निश्चित अवधि के लिये, जैसे उसके जीवन भर तथा 25 वर्ष और, उसकी रचना के निमित्त संरक्षण मिलना चाहिए।

2. किसी विदेशी रचना के लिये किसी संस्था के वास्ते यह आवश्यक नहीं कि वह चित्रकार के देश में निर्धारित अवधि से अधिक लंबी अवधि के लिये संरक्षण प्रदान करे।

3. अनुवाद के लिये लेखक से अधिकारपत्र लेना आवश्यक है। लेकिन यदि पिछले अनुवाद के प्रकाशन से सात वर्ष बाद तक अनुवाद प्रकाशित करनेवाले ने उसे प्रकाशित नहीं किया है तो उस राज्य की सरकार दूसरी संस्था को अनुवाद प्रकाशित करने के लिये लाइसेंस दे सकती है। लाइसेंस उस अवस्था में भी दिया जा सकता है यदि पिछले संस्करण की भी प्रति बाजार में उपलब्ध न हो। इसमें शर्त यह लगाई गई है कि लेखक को उचित पारिश्रमिक दिया जाए और अनुवाद ठीक ठीक हो।

इस समझौते के अनुसार एक अंतरशासनीय समिति की व्यवस्था की गई है जो समय समय पर इस प्रश्न पर विचार किया करे।

भारतीय कॉपीराइट अधिनियम

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हमारे देश में इस समय जो प्रतिलिप्यधिकार अधिनियम 1957 से लागू है उसके अनुसार यह व्यवस्था है कि अधिनियम के अमल में आने के बाद से एक प्रतिलिप्यधिकार कार्यालय स्थापित किया गया है जो इसी कार्य के लिये नियुक्त एक रजिस्ट्रार के अधीन है। इस रजिस्ट्रार को केंद्रीय सरकार के नियंत्रण और निर्देशन में काम करना पड़ता है तथा उसके कई सहायक हैं। इस कार्यालय का मुख्य काम यह है कि वह एक रजिस्टर रखे जिसमें लेखक या रचनाकार के अनुरोध पर रचना का नाम, रचनाकार या रचनाकारों के नाम, पते और कापीराइट जिसे हो उसके नाम, पते दर्ज किए जाएँ।

इसके साथ ही एक प्रतिलिप्यधिकार मंडल (कापीराइट बोर्ड) की स्थापना की गई जिसका कार्यालय प्रधान भी रजिस्ट्रार ही होता है। इस मंडल को किन्हीं मामलों में दीवानी अदालतों के अधिकार प्राप्त हैं। रजिस्ट्रार के आदेशों के विरोध में इस मंडल में अपील भी की जा सकती है।

मंडल का अध्यक्ष उच्च न्यायालय का जज, या सेवानिवृत्त जज हो सकता है तथा उसको सहायता के लिये नियुक्त तीनों व्यक्तियों के लिये यह आवश्यक है कि वे साहित्य और कलाओं के जानकार हों। इसके आदेशों के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है।

कापीराइट की परिभाषा में कहा गया है : साहित्यिक, अभिनयात्मक, संगीत संबंधी, कला संबंधी, फिल्म निर्माण संबंधी या रेकर्ड संबंधी जो भी निर्दिष्ट कार्य किया जाए उसके संबंध में रचनाकार या कलाकार को, या जिसे अधिकृत किया जाए उसे, एकाधिकार प्राप्त हो। यह अधिकार हस्तांतरित भी किया जा सकता है।

रचनाकार को प्रतिलिप्यधिकार उसके जीवन भर तथा उसकी मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी को 50 वर्ष तक प्राप्त रहेगा।

विशेष कार्यों के लिये अलग अलग किस्म के प्रतिलिप्यधिकार प्रदान किए गए हैं।

यदि किसी रचना का रेडियो प्रसारण हो और उसके साथ उचित व्यवहार न हो तो वह कापीराइट का उल्लंघन न माना जाएगा।

अधिनियम में यह व्यवस्था है कि अंतरराष्ट्रीय प्रतिलिप्यधिकार संबंधों का विनियमन केंद्रीय सरकार द्वारा समय समय पर प्रचलित किए जानेवाले विधानों द्वारा होगा।

यह व्यवस्था भी की गई है कि पुस्तकालय चाहें तो किसी पुस्तक की प्रतिलिपि करा सकते हैं किंतु वह विक्रयार्थ प्रस्तुत नहीं की जा सकती।

विधान के विरुद्ध आचरण करनेवाली को दंड देने तथा रचनाकार को हुई क्षति की पूर्ति कराने की भी व्यवस्था इस अधिनियम में कर दी गई है। यदि किसी लेखक की रचना को तोड़ मरोड़कर इस रूप में प्रस्तुत किया जाए कि उससे उसकी प्रतिष्ठा को आघात लगे तो उस मामले में भी रचनाकार की क्षतिपूर्ति कराने की व्यवस्था अधिनियम में की गई हैं।