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प्रतापगढ़, राजस्थान

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प्रतापगढ़
Pratapgarh
प्रतापगढ़ में नया कलेक्ट्रेट भवन: हे. शे.
प्रतापगढ़ में नया कलेक्ट्रेट भवन: हे. शे.
प्रतापगढ़ is located in राजस्थान
प्रतापगढ़
प्रतापगढ़
राजस्थान में स्थिति
निर्देशांक: 24°02′N 74°47′E / 24.03°N 74.78°E / 24.03; 74.78निर्देशांक: 24°02′N 74°47′E / 24.03°N 74.78°E / 24.03; 74.78
देश भारत
प्रान्तराजस्थान
ज़िलाप्रतापगढ़ ज़िला
जनसंख्या (2011)
 • कुल42,079
भाषा
 • प्रचलितराजस्थानी, हिन्दी
समय मण्डलभारतीय मानक समय (यूटीसी+5:30)
पिनकोड312605
दूरभाष कोड01478
वाहन पंजीकरणRJ-35
वेबसाइटpratapgarh.rajasthan.gov.in

प्रतापगढ़ (Pratapgarh) भारत के राजस्थान राज्य के प्रतापगढ़ ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है।[1][2]

प्राकृतिक संपदा का धनी कभी इसे 'कान्ठल प्रदेश' कहा गया। प्रतापगढ़ में 1531 तक भील शासकों का शासन था अंतिम भील राजा भाभरिया थे [3]। यह नया जिला अपने कुछ प्राचीन और पौराणिक सन्दर्भों से जुड़े स्थानों के लिए दर्शनीय है!

अवस्थिति

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राजस्थान के दक्षिणी हिस्से में बांसवाड़ा सम्भाग में यह जिला २४°.०२' उत्तरी अक्षांश और ७४°.४६' पूर्वी देशान्तर परअवस्थित है। संभाग मुख्यालय बांसवाड़ा से यह 90 किलोमीटर या 56 मील दूर है|[4]

प्रतापगढ़ जिला समुद्र तल से औसतन १६१० फीट या ५८० मीटर की ऊँचाई पर बसा है । ऊँचाई की दृष्टि से राजस्थान में माउन्ट आबू के बाद सर्वाधिक ऊँचाई वाला यही जिला है। न यहां-पश्चिमी राजस्थान के बाड़मेर जैसा दहकता हुआ रेगिस्तान है, न चूरु जैसे शहरों सी कड़ाके की ठंड! स्थानीय जलवायु मनभावन समशीतोष्ण है। पुराने प्रतापगढ़ राज्य के उत्तर में ग्वालियर, दक्षिण में रतलाम, पश्चिम में मेवाड़ (उदयपुर) और बांसवाड़ा) पूर्व में जावरा/ मन्दसौर और नीमच के राज्य और जिले थे।[5]

भारतीय उपमहाद्वीप की सर्वाधिक प्राचीन पर्वतमाला अरावली और मालवा के पठार की संधि पर अवस्थित राजस्थान के इस जिले के भूगोल में अरावली और मालवा दोनों की ही भौगोलिक-विशेषताएँ एक साथ पहचानी जा सकती हैं।

पुराने दस्तावेजों के अनुसार जाखम, शिव, एरा, रेतम और करमोई मुख्य नदियाँ थीं। ३० ग्रामीण तालाबों के अलावा यहाँ ‘तेजसागर’ नामक प्रमुख तालाब था।[6] जाखम, मही और सिवाना यहाँ की तीन मुख्य नदियाँ हैं, छोटी-छोटी बरसाती नदियों के अलावा अन्य नदियों में सोम, एरा और करमोई नामक नदियाँ भी हैं, जो प्रायः ग्रीष्मकाल में सूख जाती हैं, पर पड़ौसी जिले बांसवाड़ा के विख्यात माही बांध में प्रतापगढ़ जिले की कई नदियों और प्राकृतिक जलधाराओं का पानी शामिल होता है।

जिले की औसत वार्षिक-वर्षा ८५६ से ९०० मिलीमीटर है, पर हर वर्ष इसमें हर बरस थोड़े-बहुत उतार-चढ़ाव देखे जाते रहे हैं। (उदाहरण के लिए २०१० में जिले की वर्षा का सालाना औसत ७९९ मिलीमीटर ही रहा था। भौगोलिक इतिहास के परिप्रेक्ष्य में देखें- तो सन १८९३ में यहाँ ६४ इंच बारिश हुई थी, तो सन १८९९ में महज़ ११ इंच!) चित्तौडगढ़ के जिला गजेटियर के अनुसार "५ सितम्बर १९५५ को २४ घंटों के दौरान २७९.९ मिलीमीटर वर्षा का रिकॉर्ड प्रतापगढ़ के मौसम विभाग में दर्ज है".

यहाँ भूमि आम तौर पर उर्वरक काली मिट्टी (Black Cotton Soil) है, जो ज्वालामुखी-लावा से निर्मित है। जुलाई २०११ में प्रतापगढ़ के एक गंभीर शोधकर्ता मदन वैष्णव ने यह दावा किया था कि उन्होंने प्रतापगढ़ में लगभग २,५०० साल पहले हुए एक ज्वालामुखी विस्फोट के ठोस सूत्र ढूंढे हैं, "जिसके लावे की वजह से ही बहुत सारे गांवों की मिट्टी (भूमि) काली और लाल है।"

प्राचीन भू-अभिलेख दस्तावेजों के आधार पर इस जिले में खेती की भूमि किस्में 'सिंचित', 'असिंचित-काली-भूमि, 'धामनी', 'कंकरोट', 'अडान' और 'बंजर-काली' थीं।

छोटी सादडी के अलावा प्रतापगढ़ के बाकी चार उपखंड- प्रतापगढ़, अरनोद, पीपलखूंट और धरियावद 'वन-क्षेत्र' के अंतर्गत आरक्षित हैं, इसलिए जिले में बड़े या मध्यम-श्रेणी के उद्योगों को शुरू करने की संभावनाएं बहुत कम हैं। 'राजस्थान इंडस्ट्रीज़ एंड इन्वेस्टमेंट कोर्पोरेशन (रीको) ने (प्रतापगढ़ शहर में) एक अलग औद्योगिक-क्षेत्र विकसित किया ज़रूर है, पर कल-कारखाने लगाने के इच्छुक उद्योगपतियों के अभाव में ये आज भी सुनसान है।

खनन-कार्य की यहाँ इसीलिए अनुमति नहीं है कि जिले का ज़्यादातर हिस्सा वन श्रेणी में वर्गीकृत है, हालाँकि छोटी सादडी के अलावा प्रतापगढ़ और धरियावद तहसील के चुनिन्दा भागों में केल्साइट, डोलोमाइट, रेड ऑकर, सोप स्टोन, क्वार्ट्ज़, फेल्सपर आदि का खनिज-उत्खनन होता है। यहाँ (कम मात्रा में) संगमरमर, इमारती-पत्थर, चूना-पत्थर (लाइम-स्टोन) आदि के कुछ भंडार भी हैं।

खनि-अभियंता कार्यालय, प्रतापगढ़ से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार "धरियावद में ७५, छोटी साद्डी में ३० और प्रतापगढ़ में १० खानों को अनुज्ञापत्र दिए गए हैं, जिनके द्वारा क्रमशः ११७५ हेक्टेयर, १०९८ हेक्टेयर और ११ हेक्टेयर में संगमरमर, फेल्सपर, रेड-ऑकर और अन्य खनिज निकाले जा रहे हैं।"

प्रतापगढ़ जिले का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल ४,११,७३६ हेक्टयर है, जिसमें से १,२०,९७६ हेक्टयर भाग सघन वनों से आच्छादित भूभाग है।[7] यह राज्य के वन-औसत से कहीं अधिक है। भौगोलिक दृष्टि से आरक्षित वन-क्षेत्र और कुल उपलब्ध भूमि का तहसीलवार क्षेत्रफल इस प्रकार है-

तहसील कुल भौगोलिक क्षेत्रफल (हेक्टेयर) आरक्षित वन-क्षेत्र
प्रतापगढ़ १,१९,१८१ १,०६,४०४.३७
धरियावद ७४,०२५ ३४,०८६.४४
छोटी सादड़ी ७०,३९७ १५,६६२
अरनोद ६४,५७७ १५,६६२
पीपलखूंट ८३,९५९ २२,३१०

जनसंख्या

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प्रतापगढ़ में एक सुदूर गांव रोहणिया के स्त्री-पुरुष और बच्चे

अगर शहरी आबादी के आंकड़े देखें तो ऐतिहासिक-परिप्रेक्ष्य में नीचे दी जा रही तालिका से प्रतापगढ़ और छोटी सादड़ी नगरीय जनसँख्या पर प्रकाश पड़ता है:

वर्ष प्रतापगढ़ (नगरीय आबादी) छोटी सादड़ी (नगरीय आबादी)
१९०१ ९,८१९ ५,०५०
१९११ ८,३२९ ४,५७६
१९२१ ९,१८२ ८,०१५
१९३१ १०,८४५ ८,०४१
१९४१ १३,५०५ ६,०४५
१९५१ १४,५६१ ६,९७६
१९६१ १४,५७३ ८,२६५
१९७१ १७,५०२ ९,६२०

ऐतिहासिक दस्तावेज़ बतलाते हैं कि १८८१ में 'परताबगढ़' की जनसँख्या ७९,५६९ हुआ करती थी। यह आबादी १९५१ की जनगणना में १,१०,५३० अंकित है! २००१ की जनगणना के आंकड़ों की बात करें तो प्रतापगढ़ की जनसँख्या २,०६,९६५ थी, अरनोद की १,१२,०७२, धरियावद की १,५२,६५५, पीपल खूंट की- १,१८,४३९ और छोटी सादडी की आबादी १,१६,६७६ अंकित की गयी थी। भारत की जनगणना २०११ के आरंभिक आंकड़ों के अनुसार प्रतापगढ़ जिले की कुल आबादी ८,६८,२३१ है, जिसमें से ४,३७,९४१ पुरुष और ४,३०,२८१ स्त्रियां हैं, जब कि २००१ की गत जनगणना में यहां ७,०६,७०७ लोगों की गिनती की गयी थी। जैसलमेर जिले के बाद राज्य की सबसे कम आबादी वाला जिला प्रतापगढ़ दर्ज हुआ है।

2011 की जनगणना के मुख्य आंकड़े

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क्रम से पहले ग्रामीण, फिर शहरी

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भारत की सन् 2011 की जनगणना के अनुसार जिले की कुल जनसंख्या 796,041 है। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या 706,807 थी। 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ का लिंगानुपात 1000 पुरुषों पर 983 महिलायें हैं।[8]

स्थापना और राज्य-विस्तार

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प्रतापगढ़ जिसे कांठल प्रदेश और देवगढ़ आदि के नाम से जाना गया, इस क्षेत्र का इतिहास काफी प्राचीन है, इस क्षेत्र पर भील प्रमुख का शासन था, उनके बाद अन्य शासकों ने शासन किया। सुविख्यात इतिहासकार महामहोपाध्याय पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा (1863–1947) के अनुसार "प्रतापगढ़ का सूर्यवंशीय राजपूत राजपरिवार मेवाड़ के गुहिल वंश की सिसोदिया शाखा से सम्बद्ध रहा है"।[9] महाराणा कुम्भा (१४३३-१४६८ ईस्वी) चित्तौडगढ़ और महाराणा प्रताप भी इसी वंश के प्रतापी शासक थे, कहा जाता है कि उनके चचेरे भाई क्षेम सिंह/क्षेमकर्ण से उनका संपत्ति संबंधी कोई पारिवारिक विवाद कुछ इतना बढ़ा कि नाराज़ महाराणा कुम्भा ने उन्हें अपने राज्य चित्तौडगढ़ से ही निर्वासित कर दिया। कुछ का मानना है कि भाई-भाई में तलवारें न खिंचें, इसलिए क्षेमकर्ण स्वयं घरेलू-युद्ध टालने की गरज से चित्तौडगढ़ को अलविदा कह आये। उन का परिवार मेवाड के दक्षिणी पर्वतीय इलाकों में कुछ समय तक तो लगभग विस्थापित सा रहा, बाद में क्षेमकर्ण ने सन १४३७ ईस्वी में मेवाड़ के दक्षिणी भूभाग, देवलिया आदि गांवों को तलवार के बल पर 'जीत कर' अपना नया राज्य स्थापित किया।[10]


देवगढ़ में पुराना राजमहल : हे. शे.

क्षेमकर्ण के पुत्र (और महाराणा कुम्भा के भतीजे) महाराणा सूरजमल ने १५१४ ईस्वी में देवगढ़ (या देवलिया) ग्राम में अपना स्थाई ठिकाना बनाते हुए 'नए राज्य' का विस्तार किया। बाद में सूरजमल के वंशज महारावत प्रतापसिंह ने १६८९-१६९९ में देवगढ़ से थोड़ी दूर, एक नया नगर 'प्रतापगढ़' बसाया।[10]

देवगढ़ पर भीलराजाओ का शासन रहा । देवगढ़ या देवलिया, जो जिला-मुख्यालय से लगभग १२ किलोमीटर की दूरी पर आज प्रतापगढ़ की उप-तहसील है, जो प्राचीनतर गांव के रूप में अपने भीतर इतिहास और पुरातत्व के कई रहस्य समेटे हुए है।

देवलिया उर्फ़ देवगढ (प्रतापगढ़) के मंदिर में मूंछों वाले राम-लक्ष्मण की पूजित प्रतिमाएं : हे. शे.

यहाँ देवलिया में आज भी एक पुराना राजमहल, भूतपूर्व-राजघराने के स्मारक (छतरियां), तालाब, बावड़ियाँ, मंदिर और कई अन्य ऐतिहासिक अवशेष विद्यमान हैं। देवगढ़ में ही मातृशक्ति के एक रूप 'बीजमाता' का एक पुराना मंदिर तो है ही, जैनियों का भगवान मल्लिनाथ मंदिर और राम-दरबार मंदिर (रघुनाथद्वारा) भी हैं, जहाँ राम और लक्ष्मण को मूर्तिकार ने बड़ी-बड़ी राजस्थानी मूंछों में दिखाया है। (मूंछ वाले राम-लक्ष्मण की मूर्तियां कम हैं, कौन जाने शायद सिर्फ यहीं हों!) इसी मंदिर की छत पर सूर्य के प्रकाश की सहायता से समय बताने वाली संगमरमर की धूप घड़ी भी है।

भूतपूर्व शासकों का वंशवृक्ष

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कालक्रमानुसार प्रतापगढ़ के भूतपूर्व शासकों का वंशवृक्ष कुछ इस तरह मिलता है:

  • क्षेमकर्ण (1437-1473)
  • सूरजमल (1473-1530)
  • बाघ सिंह (1530-1535)
  • राय सिंह (1535-1552)
  • विक्रम सिंह (1552-1563)
  • तेज सिंह (1563-1593)
  • भानु सिंह (1593-1597)
  • सिंहा (1597-1628)
  • जसवंत सिंह (1628)
  • हरि सिंह (1628-1673)
  • महारावत प्रताप सिंह (1673-1708)
  • पृथ्वी सिंह (1708-1718)
  • संग्राम सिंह (1718-1719)
  • उम्मेद सिंह (1719-1721)
  • गोपाल सिंह (1721-1756)
  • सालिम सिंह (1756-1774)
  • सामंत सिंह (1774-1844)
  • दलपत सिंह (1844-1864)
  • उदय सिंह (1864-1890)
  • रघुनाथ सिंह (1890-1929)
  • (सर) रामसिंह (1929-1940)
  • अम्बिकाप्रसाद सिंह (1940-1948)

इतिहास की किताबों में 'परताबगढ़-राज' की पंद्रहवीं सदी से प्रायः अगले सौ सालों तक का कोई लंबा-चौड़ा विवरण नहीं मिलता, पर महारावत प्रताप सिंह, जिन्होंने प्रतापगढ़ की स्थापना कान्ठल राज की नई राजधानी के रूप में की, के वक्त से यहां के इतिहास पर थोड़ी बहुत रोशनी ज़रूर डाली जा सकती है! (सालों तक इस का नाम प्रतापगढ़ नहीं, आदिवासी ढब ढंग से 'परताबगढ़' ही लिखा और बोला जाता था।)

प्रताप सिंह के बाद पृथ्वी सिंह(१७०८-१७१८) संग्राम सिंह (१७१८-१७१९) उम्मेद सिंह (१७१९-१७२१) और गोपाल सिंह के सन १७२१ से १७५६ तक शासन के बारे में ज्यादा सामग्री इतिहास के स्रोतों में अंकित नहीं है। हाँ, इतना संकेत तो ज़रूर मिलता है कि एक शाही फरमान द्वारा महारावत प्रताप सिंह के उत्तराधिकारी पृथ्वी सिंह को शाह आलम (प्रथम) ने "बसाड के परगने की आय के अलावा अपनी प्रजा के लिए खुद अपने सिक्के ढाल सकने का अधिकार" दिया था।

प्रतापगढ के रियासत बनाने के बाद १५७८ तक बारावरदा और बसाड को छोड़ कर सभी ५४८ छोटे बड़े गांवों पर प्रतापगढ का आधिपत्य हो गया १५८६ में १७ आक्रमण के बाद बारावरदा व १६०३ में ४३ से ज्यादा आक्रमण के बाद कर सम्बन्धी संधि व सेना में अलग टुकडी की बात के साथ बसाड भी प्रतापगढ में शामिल हो गया जिसके बाद बसाङ को अलग परगना बनाया गया। यह भी उल्लेख इतिहास के दस्तावेजों में मिलता है कि गोपाल सिंह के शासन-काल में मराठे हर तरफ़ सर उठाने लगे थे और वे बाहुबल के आधार पर देसी रियासतों पर बकायदा संगठित हमले करते थे, पर गोपाल सिंह ने मेवाड से अपने अच्छे संबंधों के चलते उदयपुर के महाराणा से न केवल धरियावद परगने का शासन प्राप्त किया था, बल्कि वह मराठों की लूट से भी अपने राज्य को बहुत कुछ महफूज़ रख सके थे।[11]

मुग़ल और ब्रिटिश काल

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मुग़ल और ब्रिटिश काल में प्रतापगढ़ राज्य 'बाहरी' हस्तक्षेपों से बहुत कुछ अछूता रहा, कुछ इसलिए भी कि न केवल यहाँ के तत्कालीन राजाओं ने दिल्ली के शासकों को १५,००० रुपये की सालाना 'खिराज' देने का निश्चय किया, बल्कि सालिम सिंह (1756-1774) ने मुग़ल-शासक शाह आलम द्वितीय से अपने राज्य के लिए नए 'सालिमशाही सिक्के' प्रचलित करने की लिखित स्वीकृति का नवीनीकरण करवाया, जो 'परताबगढ़' की स्थानीय-टकसाल में में ही ढाले जाने वाले थे।

१७६१ में मल्हारराव होलकर के सेनापति तुकोजी राव ने प्रतापगढ़ की घेराबन्दी की, पर वह यहां से कोई धनराशि वसूल कर पाने में नाकामयाब रहा. हाँ, दो साल बाद १७६३ में मल्हारराव होलकर ने उदयपुर जाते वक़्त सालिम सिंह से (सालिमशाही रुपयों की) वसूली ज़रूर की. तब सब तरफ मराठों का उत्पात बड़ा प्रबल था।

सालिम सिंह, जिन्होंने प्रतापगढ़ के पास 'सालमगढ' बसाया था, के पुत्र सामंत सिंह के राजकाल में मराठों ने तो प्रतापगढ़ पर हमला और लूटपाट न करने की एवज में ७२,७२०/- सालिमशाही रुपयों की सालाना 'खिराज' तक बंधवा ली. मराठों के आतंक से आजिज आ कर सामंत सिंह ने १८०४ में अंग्रेजों से संधि की और जो वसूली मराठा किया करते थे, वही राशि अंग्रेजों को दिए जाने का करार किया गया; पर लॉर्ड कॉर्नवालिस की नई राज्य-नीतियों के चलते ये करार भी बहुत समय तक लागू न रह सका और प्रतापगढ़ अंततः अँगरेज़ हुकूमत के सीधे नियंत्रण में आ गया। १८१८ में एक दफा फिर प्रतापगढ़ की अंग्रेज़ी सरकार से १२ सूत्रीय संधि हुई, जिसके अनुसार पहले साल में, ३५,००० रुपये और पांचवें साल में ७२,७००/- रुपये अंग्रेजों को 'खिराज' में देने का इकरार किया गया।[12] उनका स्मारक प्रतापगढ़ में इस लिंक पर देखा जा सकता है-

सामंत सिंह ने प्रतापगढ़ का शासन अपने पुत्र दीप सिंह को सौंप दिया, जिसने कुछ समय तक तो ठीकठाक काम चलाया, पर उसके ही राज्य के कुछ विरोधियों को स्थानीय स्तर पर दीप सिंह का शासन घोर असंतोषजनक जान पड़ा और शासन के प्रति विद्रोह की घटनाएँ तेज होने लगीं, लिहाज़ा सर उठाने वाले विद्रोहियों को कुचलने की गरज से दीप सिंह ने कुछ की हत्या तक करवा दी. अंग्रेज़ी आकाओं को दीप सिंह की यह कार्यवाही नागवार गुज़री और उन्होंने दीप सिंह को (प्रतापगढ़ से निष्कासित करते हुए) उसे देवगढ़ चले जाने और वहीं रहने का हुक्म दे डाला. कुछ वक्त तक तो देवगढ़ में दीप सिंह लगभग नज़रबंद रहा, पर अंग्रेज़ी राज का हुकुम टालते हुए वह थोड़े ही वक्त बाद प्रतापगढ़ लौट आया। अंग्रेज़ी राज को ये हुकुमउदूली सहन न हुई, लिहाज़ा अँगरेज़ फौज की एक टुकड़ी ने आमने-सामने की एक लड़ाई में दीपसिंह को हरा कर बंदी बना लिया और ग्वालियर राज्यान्तर्गत अचेरा-गढ़ी में भेज दिया, जहाँ १८२६ में एक कैदी के रूप में इस राजा ने अंतिम साँस ली. भले दीप सिंह के जीवन के पन्ने राजनैतिक-ऊहापोह और उथल-पुथल की घटनाओं से भरे हों, उसकी प्रसिद्धि प्रतापगढ़ शहर में बनवाए गए दीपेश्वर मंदिर और दीपेश्वर तालाब के निर्माता होने की वजह से आज भी है।

उन दिनों बिशप हैबर नाम का एक बड़ा पादरी भारत की यात्रा पर आया था। उसने मालवा और देवलिया प्रतापगढ़ की भी यात्रा की। उसने अपने यात्रा वर्णनों में कुंवर दीपसिंह का काफी उल्लेख किया है। यह निर्विवाद सत्य है कि यदि जसवंतराव होल्कर, कुंवर दीपसिंह और बंगाल के साथियों को देश के अन्य शासकों और जनता का सहयोग मिल जाता, तो सन 1857 की क्रांति कम से कम चालीस-पचास वर्ष पूर्व हो जाती और सफल भी हो जाती क्योंकि उन चालीस-पचास वर्षों में अंग्रेजों को भारतीय सामाजिक, राष्ट्रीय और आर्थिक जीवन में फूट डालने का जो मौका मिला, वह न मिलता। भारतीय उद्योग-धंघों और आत्म निर्भरता को नष्ट करने का मौका न मिलता।...."(उद्धरण समाप्त)

" भारतवर्ष में सबसे पहले बंगाल में ही आजादी का बिगुल बजा। ‘आनंद मठ’ गिरोह के कुछ क्रांतिकारी भाग कर दक्षिणी राजपूताना या मालवा-अंचल में आए। देवलिया प्रतापगढ़ का कुंवर दीपसिंह बंगाली क्रांतिकारियों के संपर्क में आया। दूसरी ओर उसका संबंध होल्कर दरबार से था क्योंकि उसकी रियासत मुगलों को होल्कर के द्वारा खिराज भेजती थी। उस समय जसवंतराव होल्कर महाप्रतापी राजकुमार था और उसके मन में भी अंग्रेजों के विरुद्घ विद्रोह के ज्वार लहरा रहे थे क्योंकि अंग्रेज मराठों को आपस में लड़ाते थे और इस प्रकार उन्होंने महाराष्ट्र मंडल को नष्ट कर दिया था। दीपसिंह और जसवंत राव होल्कर ने क्रांति की तैयारियां की और उनका पहला काम इन संधियों को न होने देना था, जिन्हें चंबल के किनारे पड़ाव डाल कर बैठा लॉर्ड लेक और दूसरे अंग्रेज मालवा और राजपूताने के देशी रियासतों के राजाओं से संपर्क कर रहे थे। यह कुंवर दीपसिंह का ही प्रयत्न था कि अंग्रेज सन 1800 में प्रतापगढ़ रियासत से संधिपत्र लिखवाने में असफल रहे। सन 1802 में पुन: प्रयत्न किया गया। बंगाल से जो क्रांतिकारी, रियासत देवलिया प्रतापगढ़ आए थे, उनमें रामकृष्ण दास नामक निम्बार्क-संप्रदाय का एक बीस वर्षीय नौजवान भी था। उसने अपनी प्रतिभा, विद्वत्ता और उनसे भी अधिक अपनी उत्कृष्ट राष्ट्रीयता से, राजपरिवार को इतना प्रभावित किया कि परिवार ने देवलिया में अपने सबसे बड़े निजी मंदिर ‘श्री रघुनाथ द्वार’ का महन्त रामकृष्ण दास को बना दिया। इससे कुंवर दीपसिंह की यह चाल सफल हुई कि वह एक अतिथि शरणागत क्रांतिकारी को उसके पद, मर्यादा के अनुरूप सुरक्षित रखने में सफल हो गया। अंग्रेज जासूस, आनंद मठ के गिरोह के बिखरे हुए लोगों और जसवंत राव होल्कर के विप्लववादियों का सुराग लगाते हुए देवलिया पहुंचे। उनके संकेत पर बंगाल पैदल सेना की एक टुकड़ी रामकृष्ण दास और कुंवर दीपसिंह को गिरफ्तार करने के लिए देवलिया से लगभग ग्यारह मील दूर मालवा की दिशा में आ डटी। लेकिन दीपसिंह ज्यादा चतुर निकला और उसके सैनिकों ने बंगाल पैदल सेना के कप्तान जॉन बॉयली और अन्य लोगों को मौत के घाट उतार दिया। इस पर अंग्रेज बहुत बिगड़े। लेकिन जब तक रियासत में राज-काज कुंवर दीपसिंह के हाथों में प्रधानमंत्री के रूप में रहा, अंग्रेज हस्तक्षेप न कर सके। केवल उनके गुप्तचरों के जरिए समाचार जाते रहे। कुछ वर्ष बाद कुंवर दीपसिंह को तरबूज में जहर दे कर मार देने का जघन्य कार्य अंग्रेजों के इन्हीं ज़रखरीद जासूसों का था, जिन्हें उन दिनों अंग्रेजों के धन्यवाद-पत्र बराबर मिलते रहे।

उन दिनों बिशप हैबर नाम का एक बड़ा पादरी भारत की यात्रा पर आया था। उसने मालवा और देवलिया प्रतापगढ़ की भी यात्रा की। उसने अपने यात्रा वर्णनों में कुंवर दीपसिंह का काफी उल्लेख किया है। यह निर्विवाद सत्य है कि यदि जसवंतराव होल्कर, कुंवर दीपसिंह और बंगाल के साथियों को देश के अन्य शासकों और जनता का सहयोग मिल जाता, तो सन 1857 की क्रांति कम से कम चालीस-पचास वर्ष पूर्व हो जाती और सफल भी हो जाती क्योंकि उन चालीस-पचास वर्षों में अंग्रेजों को भारतीय सामाजिक, राष्ट्रीय और आर्थिक जीवन में फूट डालने का जो मौका मिला, वह न मिलता। भारतीय उद्योग-धंघों और आत्म निर्भरता को नष्ट करने का मौका न मिलता।...."(उद्धरण समाप्त)

दीप सिंह की कैद (अचेरा किले में) हुई मृत्यु / हत्या के बाद सामंत सिंह ने (दीप सिंह के पुत्र) और अपने पोते दलपत सिंह को राज्य का शासन सोंपा, जो १८४४ में उन का उत्तराधिकारी बना, पर अगले ही साल १८२५ में खुद दलपत सिंह डूंगरपुर राजा के गोद चले गए, जिन्होंने अंग्रेज़ी हुकूमत के निर्णय के आलोक में अपने दत्तक पुत्र उदय सिंह को तो अपनी जगह डूंगरपुर महारावल घोषित किया और खुद प्रतापढ़ के राजा बने. १८६२ में उन्हें भी अंग्रेज़ी हुकूमत से इस मंशा की सनद मिल गयी कि उन्हें तथा उनके उत्तराधिकारियों को (खुद के कोई पुत्र न होने की दशा में) दत्तक-पुत्र गोद लेने का अधिकार रहेगा.

सुधारों की बयार

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१८६५ में जब उदय सिंह गद्दीनशीन हुए तो प्रतापगढ़ के दिन सचमुच बहुत कुछ फिरे. उदय सिंह ने राजकाज में कई सुधार किए, दीवानी अदालतें कायम कीं, कुछ कर माफ किये गए, उचित मूल्य की सरकारी दुकानें खोलीं और १८७६-१८७८ के कुख्यात दुर्भिक्ष 'छप्पनिया-काल' के दौरान प्रजा के लिए कई राहत कार्य शुरू किये. उदय सिंह ने प्रतापगढ़ में अपने लिए कुछ ब्रिटिश तर्ज़ पर एक अलग महल भी बनवाया और राज्य में प्रशासनिक सुधारों पर गंभीरता से ध्यान केंद्रित किया।

१८६७ में यहां पहली आयुर्वेदिक डिस्पेंसरी खोली गयी और मुफ्त आदिवासी शिक्षार्थ १८७५ में स्टेट प्राइमरी स्कूल समेत कुछ पाठशालाएं. १८७५ ईस्वी में ही 'बंदोबस्त महकमे' का गठन हुआ। दो अनुभवी हाकिमों के अलावा बंदोबस्त के नए महकमे में सदर-मुंसरिम, पटवारी, बंदोबस्त-अमीन नियुक्त किये गए। पहले-पहल साकथली, हथूनिया और मगरा गांवों समेत ११४ गांवों का बंदोबस्त किया गया था।

१८८४ में अंग्रेजों की कृपा से डाक व तार विभाग अस्तित्व में आया। १८९० में उदय सिंह का देहांत हुआ, पर चूंकि उनका स्वयं का कोई पुत्र न था, उनकी विधवा रानी ने अपने पति के चचेरे भाई (अरनोद ठिकाने के) रघुनाथ सिंह को गोद ले लिया, जिन्हें १८९१ में अंग्रेज़ी शासन ने (१८६२ की सनद के अनुरूप) दिवंगत उदयसिंह का उत्तराधिकारी स्वीकार कर लिया।

इसी साल १८९३-९४ में 'सदर अस्पताल' बना, चुंगी-महकमे (कस्टम ऑफिस) के अलावा कुछ एक डाकघर भी खुले और सबसे उपयोगी निर्माण कार्य- ग्राम राजपुरिया से होते हुए एक पक्का सड़क मार्ग, प्रतापगढ़ से मंदसौर बनाया गया, जो रेल से प्रतापगढ़ के बाशिंदों का पहला संपर्क-मार्ग भी था।

१८९४ ईस्वी में 'महकमा खास' का गठन हुआ। इस विभाग जो प्रमुख लिखित 'कर्तव्य' निर्धारित किये गए, वे थे- भू-राजस्व (लगान) की वसूलियाँ करना, दीवानी और फौजदारी मामलात का फैसला, राज्य के राजस्व रेकोर्ड का संधारण, 'बंदोबस्त-हाकिम' की गैर मौजूदगी में उसके सारे कामकाज देखना, जन-सुनवाई, दौरे और निरीक्षण करना और गांवों में लम्बरदार और पटवारियों की नियुक्ति करना वगैरह. तब इसी महकमे के अधीन हाकिम-माल नाम का तहसीलदार की तरह का कोई पद भी हुआ करता था, जिसके अधीन नायब-तहसीलदार, सदर कानूनगो, पटवारी, माफीदार, अहलमद, अहलकार, जमा-खर्च-नवीस, नायब-अहलकार जैसे कई पद होते थे।

सन १९०४ में पहली मोटर कार

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राज्य के आधुनिकीकरण की शुरुआत भी तभी से हुई. १९०१ में प्रतापगढ़ में म्युनिस्पल कमेटी या 'नगरपालिका' का गठन किया गया, १९०३ में 'पिन्हे नोबल्स स्कूल' खोला गया, १९०४ में लोगों को, एक आश्चर्य की तरह सड़क पर घोड़े या हाथी की चिर-परिचित सवारी की जगह पहली बार पहली मोटर कार देखने को मिली.

रघुनाथ सिंह के कार्यकाल में १९०४ में शाही-टकसाल बंद कर दी गयी, क्योंकि 'सालिमशाही' सिक्के की बजाय अंग्रेज़ी-मुद्रा को ही प्रतापगढ़ राज्य में 'राज्य-मुद्रा' के रूप में स्वीकार कर लिया गया। रघुनाथ सिंह के शासन में ही १९१२ में 'डिस्ट्रिक्ट-पुलिस-कप्तान' (एस पी) का नया पद बनाया गया। स्टेट पुलिस-महकमे का पुनर्गठन हुआ और 'खालसा गांवों' में भी भू-प्रबंध लागू किया गया।


उस वक्त कुलमी, कुम्हार, आंजना और माली प्रमुख कृषक जातियों में शुमार थे, जिनके पास औसतन २४ बीघा कृषि-भूमि हुआ करती थी। तब भी अफीम की धतूरिया किस्म बेहद मशकूर थी। सिंचाई, कुओं से चरस द्वारा पानी खींच कर होती थी। प्रतापगढ़ शहर में, जिसे 'परताबगढ़ ' लिखा और बोला जाता था, कृषि-व्यापार के लिए बड़ी मंडी लगा करती थी। इसी तरह की कई स्थानीय कृषि मंडियां अरनोद, कनोरा, मोतडी, रायपुर और सालमगढ में भी थीं। 'परताबगढ़' राज्य की वार्षिक आमदनी १९०७ में करीब ६ लाख थी।

महारावत रघुनाथ सिंह का उत्तराधिकार राम सिंह (1929-1940) ने ग्रहण किया। उनके शासन काल में शिक्षा, चिकित्सा, स्थानीय शासन अदि कई क्षेत्रों में काम हुआ।१९३६ में अलग १५ रोगी-शैयाओं वाला अलग 'ज़नाना अस्पताल' निर्मित किया गया, १९३८ में ग्राम पंचायतों का गठन किया गया और नगरपालिका, प्रतापगढ़ में नामांकित सदस्यों के अलावा चुन कर कुछ प्रतिनिधि (निर्वाचित) मेम्बर भी आने लगे. सबसे उल्लेखनीय बात थी - प्रतापगढ़ में १९३८ में हाईकोर्ट की स्थापना. राम सिंह को अंग्रेजों ने 'सर' की मानद सनद (उपाधि) भी दी थी।

तब का प्रतापगढ़

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प्रताप सिंह महारावत ने सन १६९९ में जिस गाँव के आगे जा कर प्रतापगढ़ का निर्माण करवाया था, उस गाँव का नाम था-डोडेरिया का खेडा जो आज भी विद्यमान है। तब यहां अरनोद, धमोत्तर, बरडिया ठिकाना जहां चुंडावतो का शासन था, बजरंगगढ़, सकथली, सुहागपुरा, पुनिया खेड़ी, जांजली, कुलथाना, पारसोला, मूंगाना जैसे कई बड़े गांव थे। यहां का दूसरा महत्वपूर्ण क़स्बा या ठिकाना- था धरियावद, महाराणा प्रताप के पोते सहसमल ने १६वीं शताब्दी के मध्य बसाया था। (२००८ से पहले तक धरियावद, उदयपुर जिले की तहसील थी, बाद में प्रतापगढ़ का भाग बनी)। कहते हैं, पुराने ज़माने में देवगढ़-प्रतापगढ़ का साम्राज्य करीब ८८९ वर्गमील की परिधि में फैला हुआ था। तब इसे "कान्ठल-राज" के रूप में जाना जाता था।[13] 'कांठल' का शाब्दिक मायना है- 'कंठ-प्रदेश' या किनारे का भूभाग!

सालिम सिंह ने अपने शहर की सुरक्षा के लिए चारों ओर एक परकोटा भी निर्मित करवाया था, जिसके दो छोटे द्वार- 'तालाब बारी' और 'किला बारी' और चार बड़े प्रवेश द्वार 'सूरजपोल', 'भाटपुरा बारी', 'देवलिया दरवाज़ा' और 'धमोत्तर दरवाजा' थे। सूरज डूबने के साथ ही ये सब के सब नगर-द्वार बंद कर दिए जाते थे, बाहर से आने वालों को सूर्योदय तक शहर के बाहर ही रात बितानी पड़ती थी।

अब का प्रतापगढ़

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ध्वस्त हो चुके प्रतापगढ़-किले में पुराना राजमहल अब जिसका मालिक एक कबाड़ी है! : हे. शे.

समय-चक्र की रफ़्तार ने परकोटा, पुरानी शक्लोसूरत के नगरद्वार और बावड़ियाँ विलुप्त कर दी हैं और राजाशाही के दिनों का पुराना वैभव उजड़ चला है। प्रतापगढ़ और देवगढ़ के दोनों महल किसी कबाड़ी ने औने-पौने दामों में खरीद लिये थे, उसी एक कबाड़ी से खरीद कर जोधपुर के एक प्राइवेट व्यवसाई, ऐतिहासिक देवगढ़ महल के 'मालिक' हैं। प्रतापगढ़ का महल अब भी उसी कबाड़ी के पास है महाराजा उदयसिंह का महल अब उनके चौकीदारों का आशियाना है। सहसमल के वर्तमान वंशजों के पास धरियावद में पांच सदी पुराना गढ़ अब भी है, पर गांव धरियावाद के इस 'रावले' को मरम्मत और नई साजसज्जा के बाद आजकल 'धरियावद हेरिटेज होटल' का नया सा रूप दे दिया गया है! धरियावद ठिकाने की वर्तमान पीढ़ी अब पर्यटन से अर्थ-प्राप्ति करने, एक अंग्रेज़ी मीडियम- प्राइमरी स्कूल चलाने या राजनीति के अखाड़े में लग गयी है। प्रतापगढ़ का भूतपूर्व राजपरिवार पुणे में स्थाई तौर पर निवास कर रहा है।यहां के भूतपूर्व राजपरिवार से सम्बद्ध श्रीमती रत्ना सिंह प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश) में विवाहोपरांत वहीं से एक बार कांग्रेस से लोकसभा-सांसद रही हैं।

कुछ प्राचीन गांव और पुरा-महत्व के उपेक्षित स्थल

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जानागढ़, खप्रदक (खैरोट) अवलेश्वर, बसाड, शैवना, धमोत्तर, घोटावर्षिका (घोटारसी), सिधेरिया, गंधर्वपुर (गंधेर), 'माद-हुकलो' सहित प्रतापगढ़ जिले में कई स्थानों पर फैले ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्त्व के अवशेष हैं। दुर्भाग्य से यहाँ की ऐतिहासिक-संपदा में से एक भी स्थल 'संरक्षित स्मारक' श्रेणी में वर्गीकृत नहीं है, यद्यपि लंबे अरसे से इसकी मांग स्थानीय प्रशासन के अलावा कई इतिहासप्रेमी भी बराबर उठाते आ रहे हैं!

यों पुरातत्व विभाग द्वारा यहाँ के महत्वपूर्ण पुरास्थानों की सूची इस लिंक पर द्रष्टव्य है- कुछ जानदार, किन्तु अब कचराघर बन चुकीं १४ पुरानी बावडियों के जीर्णोद्धार के प्रस्ताव जिला प्रशासन ने भेजे हैं।

जिले के रूप में प्रतापगढ़

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१९३१ में प्रतापगढ़ में स्वदेशी आंदोलन चला, जिसके कार्यकर्त्ताओं मास्टर रामलाल, राधावल्लभ सोमानी व रतनलाल को बंदी बनाया गया। १९३६ में ठक्कर बघा की प्रेरणा से राज्य में अमृतलाल पायक ने हरिजन सेवा समिति की स्थापना की। पायक ने ही १९४६ में प्रजा मण्डल की स्थापना की। देश के आजाद होने के बाद प्रतापगढ़ में लोकप्रिय मंत्रिमण्डल बना, जिसमें प्रजामण्डल के प्रतिनिधि पायक मंत्री बने। अप्रैल, १९४८ में प्रतापगढ़ संयुक्त राजस्थान का अंग बन गया।[14] इस तरह १९४८ से १९५२ के बीच प्रतापगढ़ एक स्वतन्त्र जिला रहा था, रियासतों के एकीकरण पर सीमाओं के पुनर्गठन के बाद यह पहले निम्बाहेडा और बाद में चित्तौडगढ़ जिले का एक भाग बनाया गया। गणतंत्र दिवस २००८ को राजस्थान की तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्रीमती वसुन्धरा राजे सिंधिया द्वारा विधान सभा बजट-सत्र में की गयी घोषणा के बाद एक बार फिर इसे स्वतन्त्र जिला बनने का मौक़ा मिला।

प्रतापगढ पांच उपखंडों/ पंचायत समितियों से मिल कर बना है, जो हैं- प्रतापगढ़, छोटी सादडी, धरियावद, पीपलखूंट और अरनोद। (ये ही जिले की पांच तहसीलें/पंचायत समितियां भी हैं). प्रतापगढ़ तहसील की एकमात्र उप तहसील देवगढ़ है।

प्रतापगढ़ के पास के शहरों में मंदसौर (२८ किलोमीटर), छोटी सादडी (४८), नीमच (६१), चित्तौडगढ़(७६) निम्बाहेड़ा(७८), बाँसवाड़ा(८५), उदयपुर (१६५) आदि हैं।

प्रतापगढ़ जिले के अपेक्षाकृत बड़े गांवों में धमोत्तर, सिद्धपुरा, रठांजना, धौलापानी, देवगढ़, सालमगढ, पारसोला, सुहागपुरा, घंटाली, अरनोद, गौतमेश्वर, दलोट, पीपलखूंट, राजपुरिया, बम्बोरी, बगवास, गंधेर, असावता, कुलथाना, अवलेश्वर, मोखमपुरा, बसेरा, वसाड, राजोरा, कुनी, वरमंडल, बजरंगगढ़, रामपुरिया, चिकलाड, ग्यासपुर, बारावरदा, बरडिया, थडा, पानमोडी और झान्सडी आदि हैं।

जिला-प्रशासन

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२४ अक्टूबर २०१० से १३ अगस्त १०११ तक प्रतापगढ़ के कलेक्टर और जिला मजिस्ट्रेट थे हेमंत शेष, जो राज्य सरकार की ओर से जिला मुख्यालय पर विभिन्न विभाग/ कार्यालय खोलने, कलेक्ट्रेट, पुलिस लाइन, नई सिविल लाइन, सर्किट हाउस जैसे नए सरकारी-भवन निर्मित करवाने और प्रतापगढ़ जिले को रेलवे लाइन सहित नागरिक सुविधाएँ उपलब्ध करने के प्रयासों में संलग्न रहे।

संस्कृति

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वागड़, मालवा और मेवाड़ का संस्कृति-संगम

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प्राकृतिक सुषमा का धनी प्रतापगढ़ जिला बांसवाड़ा, चित्तौडगढ़, नीमच, रतलाम और मंदसौर जिलों से मिला हुआ है, इसलिए यह आकस्मिक नहीं है कि यहाँ की आदिवासी-संस्कृति और परम्परा पर न केवल राजस्थान, बल्कि मध्यप्रदेश की भाषा, वेशभूषा, बोलियों और संस्कृति की भी छाप है। मध्य प्रदेश से प्रतापगढ़ की सरहदें लम्बाई में करीब ६० प्रतिशत हिस्से से मिलती हैं और भौगोलिक दूरियों के कम होने के कारण आज भी राजस्थान के सुदूर जिलों में बेटे-बेटियों का ब्याह करने की बजाय रिश्ते-नातेदारी के लिए लोग पडौसी-राज्य मध्य प्रदेश की तरफ ही देखते हैं!

आदिवासी मीना

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सीतामाता मंदिर के सामने एक मीणा आदिवासी: हे. शे.

हालाँकि प्रतापगढ़ में सभी धर्मों, मतों, विश्वासों और जातियों के लोग सद्भावनापूर्वक निवास करते हैं, पर यहाँ की जनसँख्या का मुख्य घटक- लगभग ६० प्रतिशत, मीना आदिवासी हैं, जो राज्य में 'अनुसूचित जनजाति' के रूप में वर्गीकृत हैं। पीपल खूंट उपखंड में तो ८० फीसदी से ज्यादा आबादी मीणा जनजाति की ही है। जीवन-यापन के लिए ये मीना-परिवार मूलतः कृषि, मजदूरी, पशुपालन और वन-उपज पर आश्रित हैं, जिनकी अपनी विशिष्ट-संस्कृति, बोली और वेशभूषा रही है।

अन्य जातियां (सुथार) गूजर,गायरी , भील, बलाई, भांटी, ढोली, राजपूत, ब्राह्मण, महाजन, सुनार, लुहार, चमार, नाई, तेली, तम्बोली, लखेरा, रंगरेज, रैबारी, गवारिया, धोबी, कुम्हार, धाकड, कुलमी, आंजना, पाटीदार और डांगी आदि हैं। सिख-सरदार इस तरफ़ ढूँढने से भी नज़र नहीं आते

लोक संस्कृति

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लोक पर हावी कथित आधुनिकता

इनके रीति-रिवाज़, लोकगीत, लोकनृत्य, वार-त्यौहार और शादी-ब्याह के तौर-तरीके भी अलबेले हैं, पर तेज़ी से बढ़ रहे शहरीकरण के प्रभाव आदिवासी परम्परों पर भी बहुत मुखर हैं। उदाहरण के लिये, गांव में विवाह-उत्सव पर अब बैण्डबाजा बुलवाया जाने लगा है और मेहमानों के भोज का जिम्मा 'केटरर'-हलवाइयों पर है! बहुत सी जगह, मांगलिक-अवसरों पर किये जाने वाले पारंपरिक लोक-नृत्यों तक में फिल्मी संगीत समा गया है। कई गांवों में सजे-धजे ठेलों वाली लोकल बेंड-पार्टियां बनी हुई हैं।

यहां की एक विचित्र विशिष्ट परम्परा है- मौताणा : जो पूरे उदयपुर संभाग में, खास तौर पर आदिवासी बाहुल्य जिलों-प्रतापगढ़, डूंगरपुर और बांसवाडा में बहुप्रचलित है। दुर्घटना में या अप्राकृतिक परिस्थितियों में मौत हो जाने पर सारी की सारी आदिवासी आबादी 'दोषी' या अपराधी का तब तक घेराव रखती है, जब तक उसके द्वारा नकद मुआवजे और सारे समुदाय के लिए देसी-दारू का इंतजाम नहीं कर दिया जाता. इस प्रक्रिया में दोनों पक्षों की तरफ़ से सौदेबाज़ी या 'बार्गेनिंग' आम बात है। कई बार तो 'मौताणा' की रकम तय होने तक शव का अंतिम संस्कार तक नहीं किया जाता, भले इसमें कई कई घंटे लग जाएँ या कई दिन।[15] जुर्माने की रकम कुछ सौ से कुछ लाख तक भी हो सकती है। कई बार इस स्थानीय पुलिस प्रशासन को इस रस्म के कारण कानून-व्यवस्था भी बनानी होती है। आदिवासियों की 'जातिगत-पंचायत' ही बहुत बार छोटे-मोटे अपराधों का फैसला करती है और दोषियों पर जुर्माने ठोकती है, पुलिस-कचहरी का नंबर तो बाद में तब आता है, जब मामला जाति-पंचायत के हाथ से निकल जाये! इस समस्या के निराकरण पर इधर विचार-विमर्श भी चल रहा है।[16]

आदतें और खानपान

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अफीम का बड़ा उत्पादक जिला होने के बावजूद प्रतापगढ़ में अफीमची इने-गिने ही होंगे, विवाह और अन्य अवसरों पर देसी शराब का प्रचलन आम है, यों प्रतिदिन सेवन के लिए हर आदिवासी-परिवार अपने लिए महुआ के फूलों से बनी (कानूनन प्रतिबन्धित) शराब ज़रूर बनाता है। शहर में मदिराप्रेमियों के लिए कुछ एक लाइसेन्सशुदा मैखाने (बार-रेस्तरां) हैं। शराब की सरकारी दुकानों के बंद होने का वक्त रात ८ बजे है।

शराब बनाने के लिए महुआ के फूल बीनने वाले नासमझ आदिवासी कई बार पेड़ों के नीचे जो आग लगा देते हैं, वह कई बार दावानल का रूप ले लेती है। महुआ के पेड़ को यहां संरक्षित किया जाता है क्यों कि ये उनकी 'दवा-दारू' का एकमात्र स्रोत जो है!

रीति-रिवाज

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शादी के मौके पर कोई भी आदिवासी स्टील की थाली और गिलास कन्यादान में भेंट में देना नहीं भूलता। हर शादी के बाद बहुत बड़ी संख्या में लड़की वालों के यहां स्टील की थालियाँ और गिलास/लोटे जमा हो जाया करते हैं। जाति-बिरादरी का सहभोज 'मोसर' हर शादी में आयोजित होता है। पहली बीवी के जिंदा रहते हुए भी दूसरी, यहां तक कि तीसरी शादी करने को भी यहाँ सामाजिक दृष्टि से आदिवासी समाज में बुरा नहीं माना जाता, इसलिए बहुपत्नी विवाह पर्याप्त लोकप्रिय हैं। सौभाग्य से बाल विवाह की कुप्रथा यहां उतनी प्रचलित नहीं है, अगर लड़कियों की शादी १८ बरस से कम उम्र में कर भी दी जाती है, तो भी प्रायः 'गौने' की रस्म, लड़की के रजस्वला होने के बाद ही की जाती है। स्त्रियों में प्रतिदिन नहाने-धोने का रिवाज़ आश्चर्यजनक रूप से कम है, बस, खास-खास अवसरों पर ही ग्रामीण अंचल की औरतें नहाया करती हैं।

यहां की एक अन्य मूर्खतापूर्ण जनजातीय परंपरा 'वनदेवी' पूजन' है- जिन दम्पतियों के संतान नहीं होती, वे निस्संतान, छोटी-मोटी पूजा के बाद अकेले जंगल में जा कर जंगल के एक पेड़ को गुपचुप आग लगा देते हैं और यह मानते हैं कि इस 'अग्नि' से वनदेवी प्रसन्न हो कर उनकी गोद भर देंगी, पर 'सीतामाता' में इस अन्धविश्वास के चलते बड़े पैमाने पर वृक्ष काल-कवलित होते रहे हैं।

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एक ठेठ आदिवासी घर : सौजन्य: घनश्याम शर्मा, प्रतापगढ़

आदिवासी-आवास

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हालांकि पीने का पानी नीचे से ऊपर चढ़ाने में आदिवासी स्त्रियों को हर दिन बहुत मेहनत-मशक्कत करनी पड़ती है, परन्तु गांवों में केलू की छतों वाले में कच्चे मकान या झोंपडियां पहाड़ की ऊँचाई पर बनाने का रिवाज़ इस इलाके में बड़ा पुराना है, ताकि नीचे से ऊपर की तरफ़ आते अजनबियों को दूर से ही देखा जा सके. आगंतुक मेहमानों का ढोल बजा कर स्वागत करने और उन्हें नया साफा बांधने की रस्म भी यहां पुरानी है। मकान कच्चे और केलू के खपरैलों वाले हैं, जो घास, बांस, अधपकी ईंटों, काली मिट्टी और लकड़ी से बनाये जाते हैं। कारण अज्ञात है, पर प्रायः यहां के ग्रामीण घरों में खिड़कियाँ ही नहीं होतीं!

पहनावा और जेवर

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ग्रामीण अंचलों की औरतों का मुख्य पहनावा सूती घाघरा, छपी हुई गहरी लाल-भूरी ओढनी और कब्ज़ा (ब्लाउज) है, गहने प्रायः चांदी के ही होते हैं। शादी में भी यथाशक्ति चांदी ही भेंट में दी जाती है। औरतें पाँव, हाथ, गर्दन, कान और सिर पर विभिन्न तरह के गहने धारण करती हैं, स्त्रियां सिर पर 'बोर' या 'बोरला', पांवों में 'कड़ी', बाहों में 'बाजूबंद', बालों में 'लड़ी-झुमका', उँगलियों में अंगूठियां और नाक में 'नथ' या 'लोंग' धारण करती हैं। आदमी अक्सर साफा, पाग (पगड़ी) धोती और सूती कमीज़ या अंगरखा-कुर्ता पहनते हैं, पर वे शरीर पर कोई खास आभूषण नहीं पहनते। कुछ खास 2 जातियों में मर्दों के कान में 'मुरकी' ज़रूर दिखलाई देती है। बोहरा मुसलमान सिर पर सामान्यतः (क्रोशिये से बुनी कलापूर्ण) टोपी लगाते हैं।

वार-त्यौहार और मेले-ठेले

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प्रतापगढ़ जिले में अम्बामाता, गुप्तेश्वर महादेव, सीतामाता, गोतमेश्वर, शोली हनुमान, भंवर माता, दीपेश्वर और कुछ अन्य मंदिरों और तीर्थों पर निर्धारित तिथियों पर ग्रामीण मेले लगते हैं और काका साहब की दरगाह पर सालाना उर्स।

सारे प्रमुख हिन्दू और मुस्लिम त्यौहार यहांमनाये जाते हैं। दिवाली, गोवर्धन पूजा, होली, रंग-तेरस, राखी, महाशिवरात्रि, हनुमान जयन्ती और दशहरा उनमें सर्वप्रमुख त्यौहार हैं। शरद नवरात्र और वसंत नवरात्रि भी यहां लोकप्रिय हैं। होली पर 'ढून्ढोत्सव' मनाये जाने का रिवाज़ है। पूरे हिंदुस्तान की तरह लोग 'धुलेंडी' पर रंग नहीं खेलते, होली के १३ दिन बाद पड़ने वाली तिथि 'रंग-तेरस' के दिन रंग-गुलाल लगाने की प्रथा है। 'दशामाता उत्सव' के दौरान गांवों में गैर नृत्य किया जाता है, 'भाग-दशमी तीज' पर बाबा रामदेव की सवारी निकलती है और 'शीतला सप्तमी' पर जब घरों में अक्सर चूल्हा नहीं जलाया जाता, मकई से बने एक दिन पुराने (ठन्डे) ढोकले खाए जाते हैं। कोई भी शुभ काम करने पहले 'गंगोज' और रात्रि-जागरण यहां के ग्रामीण अंचलों में हमेशा आयोजित होते हैं, देवरा-पूजन कर के 'देवरे की पाती' भी मांगलिक अवसरों पर अक्सर ली जाती है।

जिले में मुस्लिम जनसँख्या बहुतायत में न होने पर भी यहाँ ईद, मुहर्रम,बारावफात,२२ रज्जब, १४ शबेरात, जमात-उल-विदा आदि त्यौहार स्थानीय मुस्लिम मनाते हैं। सिंधी हिन्दू पर्वों और त्योहारों के अलावा के अलावा लोहड़ी और चेटीचंड जैसे त्यौहार भी मनाते हैं। सिक्ख और ईसाई आबादी लगभग नगण्य होने से यहाँ गुरुद्वारे और चर्च नज़र नहीं आते.

भाषा, साहित्यकार, तीर्थ, हस्तकला-परंपरा और नगर

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भाषा

क्षेत्र की सर्वप्रचलित भाषा हिन्दी है, पर 'कान्ठली' स्थानीय ग्रामीण बोली है, जिसमें मेवाड़ी, मालवी, गुजराती और वागडी जैसी बोलियों के शब्द हैं।

जिले के साहित्यकार

यहां भी हर शहर की तरह कई छोटे-मोटे कवि और शायर हैं, पर पूछने पर प्रमुख लेखक के रूप में लोग 'परदेशी' (वास्तविक नाम : मन्नालाल शर्मा (1923-1977) का नाम बड़े सम्मान से लेते हैं, जिन्होंने अपने छोटे से जीवन-काल में १५ उपन्यास, १६ कविता संग्रह, ८ बाल-साहित्य पुस्तकें, ३ नाटक और १४ अनूदित किताबें हिन्दी में प्रकाशित कीं. उनकी स्मृति में नगरपालिका प्रतापगढ़ ने एक छोटा सा सार्वजनिक पार्क भी निर्मित किया है। 'परदेसी-परिवार' की नई पीढ़ी पत्रकारिता और फिल्म-निर्माण में लगी है।

जिले की प्रवासी-आबादी
प्रतापगढ़ शहर में स्थित 'काका साहब' की दरगाह : हे. शे.

प्रतापगढ़ के अनेकानेक संपन्न मुस्लिम बोहरा परिवार मध्य-पूर्व के देशों में रह कर व्यापार में संलग्न हैं, पर साल में एकाध बार प्रवासी बोहरा व्यवसाइयों को अपने शहर की याद उन्हें प्रतापगढ़ खींच ही लाती है। पर उनके बनवाए बहुत से महंगे, आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त साल भर खाली पड़े मकान, अपने मालिकों के लौटने की बाट जोहते से दिखते हैं! यहाँ मुस्लिमों का प्रमुख आकर्षण है- मुस्लिम संत सैयदी काका साहब की दरगाह, जिसकी इधर बड़ी मान्यता है! खास तौर पर सैयदी काका साहब के उर्स पर, जो हर बरस आयोजित होता है, दुनिया भर के बोहरा-मुसलमान प्रतापगढ़ आते और श्रद्धापूर्वक काका साहब, उनकी मरहूम बेगम और उनके साहबजादे की पास-पास बनी तीन मजारों पर अकीकत के फूल पेश करते हैं।

प्रतापगढ़ जिले के कई मामूली छोटे-मोटे गाँवों के फिटर, प्लंबर, कारीगर और खाती तक मध्य-पूर्वी देशों में प्रवासी भारतीयों के बतौर मजदूर अपना जीवन-यापन कर रहे हैं।

प्रतापगढ़ जिले में दर्शनीय

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आदिवासी-तीर्थ–गौतमेश्वर
पुराणकालीन मन्दाकिनी कुंड, गोतमेश्वर, चौथी-पांचवीं सदी : हे. शे.

दूसरा और बड़ा 'आदिवासी-तीर्थ' है–गौतमेश्वर, जो अरनोद से कुछ ही दूर एक सुरम्य पहाड़ी घाटी की तलहटी में है, जहाँ चौथी और पांचवी शताब्दी के प्राचीन मंदिर हैं। हर बरस यहाँ 'मीणा' समाज के जनजातीय श्रृद्धालुओं का सालाना-मेला भरता है, जिसमें दूर-दूर तक के हजारों आदिवासी जोर-शोर से हिस्सा लेते हैं। यहाँ का मंदाकिनी-कुंड भारत की सबसे पवित्र और पूजनीय मानी जाने वाली नदी गंगा की सी मान्यता रखता है।

कहा जाता है कि त्रेता युग में महर्षि श्रृंग ने इस स्थल पर रह कर कठोर तपस्या की थी जिनके प्रताप से यहाँ 'गंगा' की भूमिगत धारा प्रकट हुई. स्थानीय लोगों का विश्वास है कि जैसे ऋषिवर गौतम को गौ-हत्या के पाप से यहां मंदाकिनी-कुंड आ कर 'मुक्ति' मिली थी, उसी तरह इस कुंड में स्नान करने और गौतमेश्वर-महादेव के दर्शन से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। हालत यहां तक है कि इसी धार्मिक-स्थल पर बनी हुई आदिवासियों की पुरानी “कचहरी” फीस ले कर औपचारिक तौर पर छपा हुआ और मुहर लगा हुआ 'पापमुक्ति-प्रमाणपत्र' भी जारी करती है!

राजस्थान सरकार ने पर्यटन विभाग के माध्यम से लगभग १ करोड़ २० लाख रुपयों के आर्थिक सहयोग से इस तीर्थस्थान के 'पुनरुद्धार' की योजना वर्ष २०११ के लिए स्वीकृत की थी।

हिंदुओं के दूसरे लोकप्रिय धार्मिक-स्थान

भंवरमाता के मंदिर के आसपास का भूगोल और कुंड में स्नानार्थी : हे. शे.

यों तो हर भारतीय शहर की तरह यहां भी शिव, हनुमान, अम्बा, आदि के अनगिनत छोटे-मोटे-मंदिर हैं, किन्तु 'भ्रामरीदेवी' या 'भंवरमाता' शक्तिपीठ (छोटी सादडी), 'अम्बामाता', 'कमलेश्वर महादेव', 'गुप्तेश्वर' मंदिर आदि प्रमुख देवस्थान हैं, जिन पर नियमित रूप से श्रद्धालु आते हैं।

छोटी सादडी से बस थोडी ही दूर स्थित भंवरमाता मन्दिर का निर्माण आज से लगभग १२५० साल पहले 'मान्वायनी-गोत्र' के एक राजा गौरी ने करवाया था, जैसी कि उसके तत्कालीन राजकवि सोम द्वारा उत्कीर्ण करवाए गए मन्दिर के भीतर स्थापित एक बहुत ही पुराने शिलालेख से जानकारी मिलती है। 'भंवरमाता' शक्तिपीठ का भूगोल भी रोचक है, ऊंची-ऊंची कठोर चट्टानों के बीच, खास तौर पर बरसात की ऋतु में लगभग सत्तर-अस्सी फुट की ऊँचाई से गिरने वाले एक प्राकृतिक झरने के कारण, जो सिर्फ वर्षाकाल में जीवित रहता है।

जाखम बाँध

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सिंचाई के लिए निर्मित यह बाँध [17] एक लोकप्रिय पर्यटक स्थान है।

प्रतापगढ़ जिले की हस्तकला

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थेवा आभूषण-एक मौलिक परंपरा
प्रतापगढ़ के लोकप्रिय थेवा-आभूषण : हे. शे.

प्रतापगढ़ की एक सुप्रसिद्ध हस्तकला है- कांच पर मीनाकारी के आभूषण बनाने का हस्तशिल्प थेवा, जिसके आविष्कार का श्रेय पुराने ज़माने के एक स्वर्णकार नाथूजी सोनी को दिया जाता है। इस हस्तशिल्प में हरे, लाल, पीले, नीले और हरे कांच की परत पर सोने की परम्परागत नक्काशी और चित्रांकन किया जाता है। आभूषणों के अलावा कई उपयोगी सजावटी वस्तुओं के रूप में भी 'थेवा-कला' अपना विस्तार कर रही है।

अब थेवा बनाने वाले स्थानीय सुनार-परिवार स्वयं को 'राजसोनी' लिखते हैं। उनके बाद की पीढ़ी के कई स्वर्णकारों ने राज्य-स्तरीय, राष्ट्रीय, यहां तक कि कई अंतरराष्ट्रीय स्वर्णाभूषण प्रतिस्पर्धाओं में शिरकत करते हुए अपने लिए महत्वपूर्ण पुरूस्कार और सम्मान जीते हैं। यहां तक कि प्रतापगढ़ की इस विशिष्ट हस्तकला 'थेवा' का उल्लेख एन्सैक्लोपेडिया ब्रिटानिका के "पी" खंड में तक में किया जा चुका है। इस पुरानी कला-परंपरा में डिजाइन सम्बंधी आधुनिक नवाचारों की बड़ी गुंजाइश है, पर अधिकांश राजसोनी अब भी आभूषणों की डिजाइन में नयापन लाने के प्रति अनुत्सुक जान पड़ते हैं! संयोग से पूरे राज्य में थेवा कला का कोई अलग (एक्सक्लूसिव) एम्पोरियम नहीं खुला है, जब कि इस आभूषण कला के निर्यात की पर्याप्त संभावनाएं हैं।

प्रतापगढ़ नगर
प्रतापगढ़ में नवनिर्मित सर्किट-हाउस : हे. शे.

पुराने ढब के शहर देखने हों तो प्रतापगढ़ भूली-बिसरी नगर नियोजन परम्परा की कहानी आप कहता क़स्बा है, इसे सही मायनों में 'शहर' कहना आपकी उदारता ही कही जाएगी! प्रतापगढ़ चार सौ साल पुरानी बसावट का कस्बानुमा शहर है, इसीलिये ठसाठस बसे शहर के पुराने हिस्से में एक-दूजे से जुडे मकान हैं, गलियां तंग और अंदरूनी सड़कें काफी संकरी हैं, पर शुभ है, पिछले कुछ एक सालों के दौरान शहर का विस्तार तेज़ी से हो रहा है। जैसे- भव्य सरकारी इमारतों में नई बनी कलेक्ट्री का पहला चरण (देखें ऊपर चित्र), हाल में निर्मित ४८ सरकारी बंगलों वाली सिविल लाइन, नवनिर्मित सर्किट हाउस, नया पोलिटेक्नीक भवन, १०२ मकानों की पुलिस लाइन और शीघ्र पूरा होने वाले जिला स्टेडियम आदि ध्यानाकर्षक हैं, तो निजी स्तर पर आधुनिक-शैली के कई बंगले और महंगे मकान बनवाये गए हैं, (खास तौर पर संपन्न बोहरा-मुस्लिम परिवारों द्वारा) जो अक्सर बाहर ही रहते हैं।

प्रतापगढ़ शहर में दो-तीन मंदिर अपेक्षाकृत प्राचीन हैं- २०० साल पुराना 'दीपेश्वर महादेव'(निर्माता महाराज दीप सिंह), गुप्तेश्वर महादेव, केशवराय मंदिर और 'शंखेश्वर पार्श्वनाथ', जिसके बारे में किंवदंती ये है कि यह मंदिर सैंकडों साल पहले जब आकाश-मार्ग से उड़ा कर कहीं और ले जाया जाया रहा था, तो मेवाड़-मालवा क्षेत्र के तत्कालीन एक विख्यात तांत्रिक 'यति जी महाराज' ने, जहाँ वह तपस्यारत थे, अपने योगबल से इसे आकाश से बीच ही में धरती पर उतार लिया था। किंवदंतियाँ बहुधा इतिहास से ज्यादा रोचक होती हैं!

राजा दीपसिंह के शासन काल में निर्मित 'दीपेश्वर महादेव' के किनारे प्रतापगढ़ का एकमात्र बड़ा ताल, 'दीपेश्वर-तालाब' है, जहाँ अब शहर के धोबी, आज निर्बाध मैले कपड़े धोते हैं।

यहां के बाजारों का दृश्य निराशाजनक है। आज तक भी कोई आधुनिक' मॉल' या बड़ा डिपार्टमेंटल स्टोर शहर में नहीं है! इसके लिए कुछ लोग पडौसी मंदसौर या उदयपुर के बाजारों का रुख भी करते हैं। आधुनिक 'बाजार-संस्कृति' और यातायात-संस्कार (ट्रेफिक सेन्स) के लिहाज़ से प्रतापगढ़ आज भी एक शहर नहीं, एक अर्द्ध-शहरी कस्बा ही नज़र आता है! पशुओं को खुले आम सडकों पर आवारा खुले छोड़ देना यहां के पशुपालकों के स्वभाव में शामिल है।

प्रमुख फसलें

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प्रतापगढ़ में अफीम की खेती: अधिकतम उत्पादन के लिए पुरस्कार-विजेता कृषक बद्रीलाल पाटीदार का खेत : हे. शे.

पुराने ज़माने में खरीफ की प्रमुख फसलें ज्वार, मक्का, तिल, कोदरा, कूरी, सामली, माल, चावल, मूंग, उड़द, चौलाई, अरहर, सन, कपास थीं, जब कि रबी की फसलों में गेंहूँ, जौ, चना, अफीम, सरसों, अलसी, अजवाइन, राई, मटर, मसूर और सुआ आदि प्रमुख थे।

आज इस क्षेत्र की प्रमुख फसलें गेंहूँ, मक्का, जौ, मूंगफली, सरसों और प्रमुख दलहन-फसलें सोयाबीन, चना, मूंग, उड़द , चौलाई आदि हैं।



जन-प्रतिनिधि

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सोलहवीं लोकसभा में चित्तौड़गढ़ लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र संसदीय क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के चन्द्रप्रकाश जोशी वर्तमान सांसद हैं।

परिवहन और यातायात

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प्रतापगढ़-बांसवाडा सड़क : हे. शे.
सड़क-मार्ग

राष्ट्रीय राजमार्ग-११३ (निम्बाहेडा से दहोद) पर अवस्थित प्रतापगढ़ सड़क-मार्ग से राजस्थान के अलावा गुजरात और मध्य प्रदेश से जुड़ा हुआ है। १२-ए यहां की अंतरराज्यीय एम.डी.आर. (मुख्य जिला सड़क) है। राजस्थान परिवहन निगम की और प्राइवेट बसें प्रतिदिन सभी प्रमुख गांवों के अलावा कई शहरों- मंदसौर(३२) निम्बाहेडा (८२)बांसवाड़ा (८५) चित्तौडगढ़ (११०) उदयपुर (१४५) राजसमन्द (१३३) अजमेर(३००), डूंगरपुर (९५) जयपुर (४१९) जोधपुर (४३५), धौलपुर(५८५), सूरत (५१२) और दिल्ली (७०५) के बीच चलती हैं। जिले में १८७९ किलोमीटर लंबी पक्की सड़कें और ७,५०० से ज्यादा (सभी श्रेणियों के) पंजीकृत वाहन हैं।

रेलवे-लाइन

'अपेक्षाकृत ऊँचाई पर होने' से और रेल मंत्रालय की दृष्टि में 'खर्चीला सौदा' होने से अभी तक प्रतापगढ़ में रेल नहीं आ पाई है, जिसके लिए यहां के प्रशासक और नागरिक संयुक्त रूप से उत्सुक और प्रयासरत हैं।

हवाई-संबद्धता

यहाँ का निकटतम हवाईअड्ड १४५ किलोमीटर दूर, डबोक, उदयपुर में है। मुंबई और दिल्ली के हवाई मार्ग के लगभग एकदम बीच में होने की वजह से प्रतापगढ़ शहर के नज़दीक धरियावद मार्ग पर 'एयरपोर्ट ऑथोरिटी ऑफ इंडिया' ने एक 'वी ओ आर स्टेशन' (वायुयान संकेतक केंद्र) स्थापित किया है। राजस्थान सरकार ने अप्रैल २०११ में लगभग २ किलोमीटर लंबी, बड़े जेट विमानों तक के उतरने लायक एक हवाई पट्टी गांव वरमंडल में (जो मुख्यालय से १२ कि॰मी॰ दूर है) मंज़ूर की है, जिसका लगभग ९ करोड की लागत से निर्माण-कार्य शुरू हो गया है! यही हवाई पट्टी 'भविष्य का हवाई-अड्डा' होगी!

पुरानी पुलिस

अगर इतिहास के पन्नों में जाएँ तो महाराजा रघुनाथ सिंह के ज़माने में १९१२ में डिस्ट्रिक्ट पुलिस कप्तान (एस पी) का नया पद बनाया गया था जो घुडसवार पुलिस, पैदल सिपाहियों और हथियारखाने की व्यवस्थाएं भी देखते थे। उस ज़माने में प्रतापगढ़ राज्य में बस तीन थाने थे, सात पुलिस नाके, चार पुलिस चौकियां और नौ अन्य 'निगरानी स्थल'. आपत्काल से निपटने के लिए तब की पुलिस लोहे के भाले, 'मुंजाल', 'सींगल' टोपीदार (बारूदी) बंदूकों और घुडसवार टुकडियों से लैस थी। शहर के अलग अलग नौ नाकों पर तत्कालीन जागीरदारों की 'ठिकाना-फ़ौज' के सिपाही तैनात हुआ करते थे।[18]







न्यायिक व्यवस्था

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प्रतापगढ़ राज्य में न्याय व्यवस्था का इतिहास


पुराने समूचे प्रतापगढ़ राज्य में महारावत, कामदार और ११ दूसरे सरदारों की मदद से न्यायिक मामले देखे जाने की व्यवस्था थी। बाद में जब तत्कालीन प्रतापगढ़ राज्य ने नए पांच जिले- प्रतापगढ़, कनौरा, बजरंगगढ़, सकथली और मंगरा बनाये, तो उन पर 'जिला-हाकिमों' की तैनाती की गयी। आज के जिला कलेक्टर की ही तरह वे जिला-हाकिम राजस्व के अलावा न्याय कार्य भी निपटाया करते थे। इन जिला हाकिमों के आदेशों की अपीलें खुद राजा (महारावत) सुनते थे। महारावत के आदेश की कहीं अपील नहीं हो सकती थी। सुप्रीम कोर्ट के बराबर तब की 'राज्यसभा' थी, जिसकी 'इजलास-खास' में महारावत अन्य सदस्यों की सलाह से निर्णय लेते थे। राजसभा को मृत्यु दंड (सजा-ए-मौत) देने की शक्ति तक थी। प्रतापगढ़ के पुराने गढ़-परिसर में क्षत-विक्षत फांसीघर के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। 'इजलास शाखा' के सारे फैसलों की अपील महाराज खुद सुना करते थे। जागीरदारों की अपील सेशन-जज के न्यायालय में होती थी।[19]

राज्य के दूसरे प्रमुख ठिकानों में न्याय व्यवस्था लागू करते हुए धमोत्तर, झांतला, बरडिया, रायपुर, कल्याणपुर, आबीरामा, अचलावदा, अरनोद और सालमगढ के ठिकानों को कुछ दीवानी और कुछ फौजदारी अधिकार ही दिए थे। १९३८ के बाद 'नई न्याय व्यवस्था' के तहत हाईकोर्ट को 'सेशन-जज' और नीचे की अदालतों की अपीलें सुनने के अधिकार मिल गए।[20]

प्रतापगढ़ में वर्ष १९४४ में स्वाधीनता से पूर्व 'हाईकोर्ट' के रूप में आज का जिला एवं सत्र न्यायाधीश कोर्ट स्थापित किया गया था, जिसके बाद १९८० में छोटी सादडी में अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, १९८३ में न्यायिक मजिस्ट्रेट (कनिष्ठ-वर्ग), १९८९ में अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, १९९२ में अनुसूचित-जाति-जनजाति अत्याचार निवारण न्यायालय, १९९४ में मादक पदार्थों से सम्बद्ध अपराधों की रोकथाम के लिए न्यायालय, २००८ में जिला उपभोक्ता मंच, अरनोद और धरियावद में दो अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट कोर्ट और २०१० में एक जिला स्तरीय ग्रामीण न्यायालय खोले गए हैं। राजस्व अधिकारियों के यहां १३ दूसरे न्यायालय भी हैं जो राजस्व अपील प्राधिकारी, कलेक्टर, अतिरिक्त कलेक्टर, उपखंड अधिकारी (५) और तहसीलदारों (५) के हैं।

चिकित्सा और स्वास्थ्य सेवाएँ

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प्रतापगढ़ का रियासतकालीन ज़नाना अस्पताल : हे. शे.

रियासत काल में सन १८९४ ईस्वी में खोला गया सदर अस्पताल [2] और १९३६ में बना ज़नाना अस्पताल पुरानी चिकित्सा इकाइयां हैं। जहाँ जिला मुख्यालय पर २७७ रोगी-शैय्याओं का एक जिला अस्पताल है, वहीं ७ सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, ५३ आयुर्वेदिक और होम्योपैथी अस्पताल/दवाखाने, २३ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, २ एलोपथिक डिस्पेंसरियां और १५३ स्वास्थ्य उप-केन्द्र (ए.एन.एम्. सेंटर) भी कार्यरत हैं।

'१०८ आपतकालीन एम्बुलेंस सेवा सुविधा" भी आरम्भ में केवल प्रतापगढ़, छोटी सादडी और धरियावद में उपलब्ध थी-कालांतर में जिले के अन्य दो उपखंडों में भी ये 108 सेवा जून २०११ में आ गयी है। आधुनिक मेडिकल सुविधाओं से युक्त एक मेडिकल मोबाइल यूनिट भी जिले में है!



डाक सेवाएँ

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जिले में ८ पोस्ट ऑफिस हें जो प्रतापगढ़, प्रतापगढ़-कचहरी, छोटी सादड़ी, अरनोद, दलोट, रठांजना, धरियावद, पीपलखूंट हैं। बम्बोरी और धमोत्तर में डाक विभाग के शाखा-डाकखाने हैं।


बैंक सुविधाएँ

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प्रतापगढ़ जिले में 'पोस्टपेड मोबाइल सेवा' देने वाली केवल एक कंपनी है बी एस एन एल, जिसके ग्रामीण इलाके में ९४९२ और शहरी क्षेत्र में ४०१० (कुल १३,५०२) उपभोक्ता हें. अलबत्ता एयरटेल, एयरसेल,वोडाफोन, आइडिया, टाटा इंडिकॉम और रिलायंस आदि 'प्री पेड' सुविधा मोबाइल ग्राहकों को देते आ रहे हैं। शहर में दो प्राइवेट केबल ऑपरेटर भी हैं- 'प्रताप' और 'राज'।







पर्यटन-स्थल

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अभयारण्य में स्थित प्राचीन सीता कुंड: हे. शे.
सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य में 'सदानीरा' जाखम नदी: हे. शे.
उड़न गिलहरी महुआ पेड़ के अपने कोटर में : हे. शे.
सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य

यह अभयारण्य ४२२.९५ वर्गकिलोमीटर में फैला है, जो जिला मुख्यालय से केवल २६ किलोमीटर, उदयपुर से १०० और चित्तौडगढ़ से करीब ६० किलोमीटर दूर है। यह अद्वितीय अभयारण्य प्रतापगढ़ जिले में, राजस्थान के दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में अवस्थित है, जहाँ भारत की तीन पर्वतमालाएं- अरावली, विन्ध्याचल और मालवा का पठार आपस में मिल कर ऊंचे सागवान (Tectona grandis) के वनों की उत्तर-पश्चिमी सीमा बनाते हैं। आकर्षक जाखम नदी, जिसका पानी गर्मियों में भी नहीं सूखता, इस वन की जीवन-रेखा है। चित्ताैड़गढ़, पतापगढ़ और उदयपुर जिले के क्षेत में फैले वन क्षेत्र में सीतामाता अभयारण्य की स्थापना दो जनवरी 1979 को की गई थी। लगभग 423 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैले सेंचुरी में सघन वन, पहाड़ियों के बीच अत्यंत पुराना धर्मस्थल सीतामाता के नाम से है। प्रतापगढ़ इतिहास के आरम्भ से ही प्रकृति की नायाब संपदा से धनी क्षेत्र रहा है। इस के उत्तर-पश्चिमी हिस्से में मूल्यवान सागवान के बड़े सघन जंगल थे, इसलिए अंग्रेज़ी शासन के दौर में इस वन-संपदा के व्यवस्थित देखरेख की गरज से एक अलग महकमा-जंगलात, १८२८ ईस्वी में कायम किया गया।[21] यहीं ऐसे स्थान भी थे, जहाँ सूरज की किरण आज तक ज़मीन पर नहीं पडी!

स्थानीय लोगों की मान्यता है कि त्रेता युग (रामायण काल) में, राम द्वारा बहिष्कृत कर दिए जाने के बाद सीता ने यहीं अवस्थित महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में न केवल निवास किया था, बल्कि उसके दोनों पुत्रों- लव और कुश का जन्म भी यहीं वाल्मीकि आश्रम में हुआ था। यहां तक कि सीता अंततः जहाँ भूगर्भ में समा गयी थी, वह स्थल भी इसी अभयारण्य में स्थित है![22]


यहां की सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण वन्यजीव प्रजातियों में उड़न गिलहरी और चार सींग वाला चौसिंघा हिरण(four Horned Antelope) उल्लेखनीय हैं।[23] यहां स्तनधारी जीवों की ५०, उभयचरों की ४० और पक्षियों की ३०० से ज्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं। भारत के कई भागों से कई प्रजातियों के पक्षी प्रजनन के लिए यहां आते हैं। 14 किलोमीटर क्षेत में फैली इस सेंचुरी में कई दुर्लभ वनस्पति, वन्यजीव हैं । इसे नेशनल पार्क का दर्जा दिलाने की मांग बरसों से उठ रही है लेकिन अक्सर इसके बाद तैयार होने वाली रिपोर्ट में ही यह मांग दब जाती है। सीतामाता सेंचुरी में करमोई, जाखम, सीतामाता, नालेश्वर आदि नदियां बहती है। इनमें से करमोई नदी पूरे साल बहती है। इस सेंचुरी में पैंथर, चीतल, सांभर, नीलगाय लेंगूर, बिल्ली, खरगोश, चौसिंगा देखने को मिलते हैं। इस जंगल में मुख्य तौर पर सागवान, सालर, गोदल, खैर, महुआ, पलाश, बहेडा, चंदन, सेमल, आंवला, और बांस पाए जाते हैं। वृक्षों, घासों, लताओं और झाडियों की बेशुमार प्रजातियां इस अभयारण्य की विशेषता हैं, वहीं अनेकानेक दुर्लभ औषधि वृक्ष और अनगिनत जड़ी-बूटियाँ अनुसंधानकर्ताओं के लिए शोध का विषय हैं। वनों के उजड़ने, खेतीबाडी और माही बांध के श्रमिकों द्वारा अतिक्रमण कर लेने से अब वन्यजीवों की संख्या और वन क्षेत्र में कमी आती जा रही है।[24]

आज भी यह प्रतापगढ़ का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्यटक स्थल है - प्रकृति की इस नायाब निधि को अंधाधुंध अतिक्रमण, क्षरण और मनुष्यों के अनावश्यक हस्तक्षेप से बचाने के लिए इसे राष्ट्रीय उद्यान बनवाने के लिए जिला प्रशासन और वन विभाग के संयुक्त प्रयास किये जा रहे हैं।[3] सेंचुरी को राष्टीय उद्यान घोषित करने के संबंध में हो रहे प्रयास जयपुर (एसएनबी)। चित्ताैड़गढ़ स्थित सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य क्षेत्र को राष्टीय पार्क घोषित कराने की बहुपतीक्षित मांग के संबंध में वन विभाग फिर से सर्वेक्षण करा रहा है। इसके लिए एक स्वतंत्र एजेंसी को अधिकृत किया गया है। वन विभाग ने बताया है कि सीतामाता सेंचुरी को राष्ट्रीय उद्यान घोषित करने के संबंध में एजेंसी से तीन बिंदुओं पर सवेक्षण कराकर विस्तृत रिपोर्ट तैयार कराई जा रही है। इसमें प्रस्तावित क्षेत में स्थित गांवों की भौगोलिक स्थिति व उनके विस्थापन के संबंध में कठिनाइयों, मौजूद वन्यजीव व वनस्पति को सूचीबद्ध करना व अजा, जजा परिवारों की संख्या, जनजाति अधिनियम के तहत कारवाई का उल्लेख होगा। सवेक्षण तथा विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने के लिए गीन फ्यूचर फाउंडेशन उदयपुर को अधिकृत किया गया है। इसकी रिपोर्ट राज्य वन्यजीव मंडल की स्थाई समिति में विचार के लिए प्रस्तुत होगी।

इन्हें भी देखें

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सन्दर्भ

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  1. "Lonely Planet Rajasthan, Delhi & Agra," Michael Benanav, Abigail Blasi, Lindsay Brown, Lonely Planet, 2017, ISBN 9781787012332
  2. "Berlitz Pocket Guide Rajasthan," Insight Guides, Apa Publications (UK) Limited, 2019, ISBN 9781785731990
  3. जैन, संतोष कुमारी (1981). आदिवासी भील-मीणा. Sādhanā Buksa.
  4. "संग्रहीत प्रति". distancebetweencities.com. मूल से 8 अगस्त 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 30 जुलाई 2014.
  5. 'विविध आलेख': मदन वैष्णव, प्रतापगढ़
  6. 'जिला प्रतापगढ़ निर्देशिका': प्रकाशक: जिला प्रशासन, प्रतापगढ़,२००८
  7. "Pratapgarh". rajforest.nic.in. मूल से 9 जनवरी 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 30 जुलाई 2014.
  8. "Pratapgarh District Population Census 2011 - 2021 - 2024, Rajasthan literacy sex ratio and density". www.census2011.co.in. मूल से 2 जुलाई 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2024-09-26.
  9. महामहोपाध्याय रायबहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा संग्रह सूची: प्रधान संपादक: धर्मपाल शर्मा : प्रकाशक-'प्रताप शोध संस्थान, उदयपुर,२००८
  10. "PRATAPGARH (Princely State)". मूल से 8 अगस्त 2014 को पुरालेखित.
  11. 'इम्पीरिअल गजेटियर ऑफ इंडिया:प्रोविंशियल सीरीज़'; राजपूताना
  12. 'इम्पीरियल गजेटियर ऑफ इंडिया : प्रोविंशियल सीरीज़': राजपूताना
  13. 'गौरीशंकर हीराचंद ओझा:'राजपूताना का इतिहास' सीरीज़ : "प्रतापगढ़ राज्य का इतिहास " प्रकाशक : राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, 2000. ISBN 81-87720-02-6
  14. राजस्थान में प्रजा मंडल आन्दोलन :अमितेश कुमार : [1] Archived 2016-04-15 at the वेबैक मशीन
  15. "मौताणा निबटा, तब उठाया शव". 19 फ़रवरी 2014. मूल से 8 अगस्त 2014 को पुरालेखित.
  16. "जोर-जबदस्ती से नहीं रूकेगा मौताणा : भाले – Udaipur News : latest news, social news, crime news" (अंग्रेज़ी में). मूल से 11 अगस्त 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2024-09-26.
  17. "सीतामाता वन्यजीवन अभयारण्य, चित्तौड़गढ़". hindi.nativeplanet.com/. नैटिव प्लेनेट. मूल से 9 अगस्त 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि २१ जुलाई २०१५.
  18. 'जिला प्रतापगढ़ निर्देशिका': प्रकाशक: जिला प्रशासन, प्रतापगढ़,2008
  19. गौरीशंकर हीराचंद ओझा:'राजपूताना का इतिहास' सीरीज़ : "प्रतापगढ़ राज्य का इतिहास " प्रकाशक : राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, 2000. ISBN 81-87720-02-6
  20. गौरीशंकर हीराचंद ओझा:'राजपूताना का इतिहास' सीरीज़ : "प्रतापगढ़ राज्य का इतिहास " प्रकाशक : राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, 2000. ISBN 81-87720-02-6
  21. District Gazetteer of Chittaurgarh
  22. कई मौखिक और साहित्यिक स्रोत
  23. वन विभाग, प्रतापगढ़
  24. नया इंडिया टीम (२८ मई २०१३). "विभाग ने की वन्य जीवों की गणना". नया इंडिया. अभिगमन तिथि २१ जुलाई २०१५.[मृत कड़ियाँ]

बाहरी कड़ियाँ

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