पश्चिम में आधुनिक कोशविद्या

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ग्लाँस (Gloss)[संपादित करें]

रोमन धर्म औऱ साम्राज्य की धार्मिक एवं राजनीतिक महत्ता के कारण समस्त पश्चिमी योरप में लातिन (लैटिन) सर्वप्रमुख भाषा बन गई थी। उस भाषा के ग्रंथों का अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण मान लिया गया था। वह भाषा समस्त विद्या और ज्ञान की प्राप्ति का एक प्रकार से प्रवेशद्वार समझी जाने लगी थी। पाश्चात्य कोशविद्या का अंकुरण भी इन्हीं लातिन-शब्द-सूचिय़ों से हुआ था, जिन्हें ग्लोसेज कहते थे। 'ग्लासरी' शब्द भी इसी मूल से व्युपन्न है। ग्लोसेज का अर्थ होता था शब्दसूचियाँ। 'लातिन' ग्रंथों के पढ़ने वाले ग्रंथो के हाशिए पर उनके दुबोंध्य और कठिन शब्दों को लिख दिया करते थे। अपनी स्मृति द्वारा अथवा अन्य विज्ञों की सहायता से कभी सरल 'लतिन' में और कभी उससे भिन्न स्वभाषा में - इन शब्दों का अर्थ भी हलके अक्षरों में लिख लेते थे। इसी शब्द को 'ग्लास' कहते हैं।

'रोमानिक' भूमिवासियों के लिये प्राचीन रोमन भाषा (लातिन) बहुत कठिन नहीं थी। पर दूरस्थों के लिये वह भाषा दुर्बोध्य थी। अत: 'केल्टिक' और 'टयूटानिक' प्रदेशों के दूरस्थों की दृष्टि में उपर्युक्त 'ग्लास पद्धति' अधिक उपयोगी हुई। व्यापक रूप से और अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत आयाम में इस प्रकार की शब्दसूचियाँ बनीं। इनके माध्यम से सैक्सन, इंग्लिश, 'आयरिश' 'प्राचिन जर्मन' (गाथिक) आदि भाषाओं के ऐसे प्राचीन शब्दरूप बहुत बडी़ मात्रा में सुरक्षित रह गए हैं जिनमें उन-उन भाषाओं के बहुत से शब्द आज अन्यत्र दुर्लभ है।

कहा जाता है कि इंग्लैंड में उत्पन्न 'जोन्स दी गालैंडिया' ने लातिन के एक डिक्शनेरियस का निर्माण—१२२४ ईं० में किया था। लतिन शब्दों का यह लघु संग्रहकोश था। विषयवर्गानुसार वाक्यों में प्रयोग निदर्शन के रूप में भाषा के आरंभिक सीखनेवालों की उपयोगिता के निमित्त इसका निर्माण किया गया था। 'डिक्शनरी' शब्द का भी कदाचित् सर्वप्रथम प्रयोग इसी शब्दसूची में हुआ था। १४वीं शती के उत्तरार्ध में भी ऐसे कुछ कोश बने।

कालांतर में अलग पत्नों पर उक्त शब्दों—अर्थों की प्रतिलिपियाँ की जाने लगीं। उन्हें एकत्र भी किया जाने लगा। 'लातिन' भाषा के क्लिष्ट शब्दों का अर्थबोध कराने के लिये शब्दार्थसंग्रह का यह कार्य अत्यंत उपयोगी हो गया है। तत्तत् सूचियों में समाविष्ट शब्दों को आगे चलकर ग्लासेरियम कहने लगे, जिसका अर्थ है शब्दर्थसूची। १६वीं १७वीं— में इन्हीं 'ग्लासेरियम' के आधार पर वर्णक्रमानुसारी शब्दसारिणियाँ (टेबुल्स अल्फाबेटिकल) और क्लिष्ट—शब्दार्थ—बोधक संग्रहों का निर्माण हुआ।

अकारादिक्रम—१५वीं शती से भी दो तीन सौ वर्ष पूर्व योरप की विभिन्न भाषाओं में अनेक प्रकार के विभिन्न वर्गों के शब्दों की सूचियाँ संगृहीत होने लगी थी।

इन शब्दसूचियों में शब्दसंकलन वर्गीकृत होता था। जिस प्रकार संस्कृत के अमरकोश आदि ग्रंथों में अपनी दृष्टि से पर्यायवाची शब्दों का वर्गाश्रित संग्रह मिलता है उसी प्रकार इन शब्दसूचियों में शरीर के अंगों पारिवारिक संबंधों, मनुष्य के पदों और श्रणियों, घरेलू एवं पालित जानवरों, जंगली पशुओं, मछलियों, वृक्षों, व्यवसायों, वस्त्राभूषणों, अस्त्रशस्त्रों, चर्च की सामग्रीयों, रोग आदि के नामों की अर्थ- सहित सूचियाँ संगृहीत होती थी।

इन्हें 'वोकैब्युलेरियम्' कहा जाता था। अंग्रेजी का 'वोकैब्युलेरी' शब्द भी इसी से निर्गत है। कागज के अतिरिक्त चमडों पर भी इनका संग्रह होता था। मूलत भिन्न दृष्टि से संकलित होने पर भी 'ग्लाँस' और 'वोकैब्युलेरि' दोनों का व्यावहारिक उपयोग भाषाज्ञान में सहाय़ता देनेवाले उपकरण के रूप में होने लगा था। अत: इन दोनों प्रकार की शब्दर्थसूचियों का प्राय" एकत्र संयोजन कर दिया जाने लगा।

स्वज्ञान से अथवा दूसरों की 'ग्लाँसरी' और 'वोकैब्युलेरि' से नए शब्दों को लेकर शब्दसूचियों के स्वामी उनमें नए शब्द जोड़ते रहते थे। इनकी प्रतिलिपि करके अन्य व्यक्ति भी समय समय पर इनका संग्रह प्राप्त कर सकता था। प्रतिलिपि परंपरा द्वारा इनका प्रसार और विस्तार होता चल रहा था।

सर टामस् ईलियट (१५३८ ई०) का निर्मित शब्दकोश डिक्शनेरियम विशेष महत्व भी रखता है और नूतनपथ की भी प्रदर्शक है। जे० डब्ल्यू० विदाल्स् द्वारा अंग्रेजी के आरंभिक लातिन पाठकों की सुविधा के लिये रचित 'अंग्रेजी—लातिन' का लघुशब्दकोश भी विषयानुसारी वर्गों में ही ग्रंथित है। परंतु 'अंग्रेजी में लातिन' का कोश होने के कारण विशेष महत्व रखता है।

इससे भी अधिक महत्व का एक बहुभाषी लातिन शब्दकोश— १३३९ई० में ओर ऐस्टीम ने बनाया था जिसमें लातिन शब्दों के समानार्थक अंग्रेजी शब्दों के अलावा यूरोप की अनेक नव्यभाषाओं के भी पर्याय दिए गए थे। १५४७ ई० के बाद अंग्रेजी और नव्ययूरोपीय भाषा के भी कोश बनने लगे।

प्रतिलिपीकरण के माध्यम से प्रसारित इन सूचियों में शब्दों ओर वाक्यांशों को उपयोगिता की दृष्टे से अकारादि क्रमानुसार व्यवस्थित करना अधिक लाभकार जान पडा़। यहीं से इनमें अकारादि क्रमानुसारी संग्रहपद्धति का आरंभ होता है। शब्द या वाक्यांश के आरंभिक प्रथमाक्षर को क्रमबद्ध सूची में लिपिक संगृहीत कर देता था। उसमें द्वितियाक्षर अथवा आनुपूर्वी नहीं देखी जाती थी। अत: इस पद्धति को वर्णमालानुसारी प्रथमाक्षर क्रम कह सकते हैं। यह अवस्था सहस्रों शब्दोंवाली सूची में अनुभूत कठिनाई को दूर कर, सुविधाजनक पद्धति को ढूँढ निकालने के सायास व्यवस्था द्वारा प्रचलित हुई। फलत: धीरे—धीरे उसमें विकास होता गया और प्रथमाक्षर के साथ साथ द्वितौय, तृतीय अक्षरों पर भी ध्यान दिया जाने लगा। फिर धीरे धीरे वर्णानुपूर्वी के अनुसार आधुनिक युग में प्रचलित पद्धति से शब्दार्थसंग्रह होने लगा।

अंग्रजी कोश का उद्भव[संपादित करें]

अंग्रेजी कोश के आरंभिक विकास का त्वरित सिंहावलोकन

(१) — अंग्रेजी कोशों में सर्वप्रथम लिखित लैटिन शब्दसूचियों का सरल लैटिन और अंग्रेजी में अर्थ देने से कोशकला का प्रारंभ हुआ। ह प्रथम रूप था।

(२) — दूसरे सोपान पर अंग्रेजी शब्दसूचियों का तथा लैटिन और अंग्रेजी शब्दसंग्रहों का विस्तार हुआ।

(३) — तीसरे चरण में इंगलिश— लैटिन के शब्दसंग्रह का कार्य हुआ।

(४) — चतुर्थ अवस्था में अंग्रोजी और इतर भाषाओं के कोश बने।

(५) — पाँचवे चरण में अंग्रेजी के क्लिट शब्दों के शब्दसंग्रह वाले ओर कोश बने। वेष्ली द्वारा इनमें सामान्य शब्दों को जोड़ने के साथ साथ व्युत्पत्तिनिर्देश की भी चेष्टा की गई। अब शब्दप्रयोगों के उदाहरण भी संगृहीत होने लगे।

(६) — छठी अवस्था में उच्च कोटि के कोशनिर्माण की चेष्टा और अर्थम्पाष्टीकरण के लिये साहित्य में प्रयुक्त उद्धरणों का उपयोग प्रारंभ हुआ।

(७) — इसी के साथ साथ या कुछ पहले से ही अंग्रंजी कोशों में प्रयुज्यमान भाषा शब्दों के उच्चारणसंकेत देने की भावना प्रारंभ हुई।

(८) — अष्टम स्थिति वह है जब रिचर्डसन द्वारा शब्दव्याख्या छोड़वर केवल लदाहरणमाध्यम से अर्थबोध का प्रयास हुआ। और आगे चलकर अतिम रूप से इन सबकी परिणति डॉ॰ ट्रेंच की प्रेरणा से निर्मित महाकोश में दिखाई देती है। शब्दोतच्चारण, शब्द, अर्थ शब्दप्रयोग और व्यपत्ति संबंद्ध शब्दप्रोयग के इतिहासक्रम आदि को विस्तृत और ऐतिहासिक आयामो के साथ कोश में अनुस्यूत करने की चेष्टा हुई है।

विस्तृत विवरण के लिये अंग्रेजी शब्दकोशों का इतिहास देखें।

कोशविज्ञान की आरंभिक स्थिति में पश्चिम के कोश भी पर्याय सूचित करते हैं। धीरे-धीरे विभिन्न अर्थों का भी निर्देश होने लगा। पर व्याकरण, उच्चारणसंकेत, शब्दार्थप्रयोग का इतिहास, व्युत्पत्तिनिर्देश और उदारहण द्वारा तात्पर्यविवरण का उनमें अभाव था। संस्कृत कोशों में भी यह नहीं था। क्योंकि वे ऐसे छंदोबद्ध शब्दसंग्रह थे जो पर्यायों के माध्यम से एक या अनेक अर्थों का परिचय देते थे। परंतु संस्कृत के प्रसिद्ध वैयाकरण 'भानुजी दीक्षित' द्वारा निर्मित अमरकोश की 'व्याख्यासुधा' नामक टीका में सभी शब्दों की व्याकरणानुसारी व्य़ुत्पत्ति देने का स्तुत्य प्रयास किया गया है।

पश्चिम में ऐतिहासिक और भाषावैज्ञानिक अनुशीलन की दृष्टि ने कोश के आधुनिक रूप को पूर्ण बनाने का प्रयास किया गया। प्रथमतः फिलिप्स के कोश में शब्दमृल का व्युत्पत्ति के प्रसंग में निर्देश-मात्र हुआ। शब्दसागर के तत्सम और अनेक तदभव शब्दों की व्युत्पत्ति इसी रूप में संकेतित मात्र है। यहीं से अंग्रेजी कोशों में व्युत्पत्तिप्रदर्शन का अति सामान्य आरंभ होता है। इससे कुछ पहले या इसी के आसपास शब्दार्थबोध के लिये पर्याय मात्र देने के स्थान पर अर्थसूचक व्याख्या लिखने की पद्धति आरंभ हो गई थी। जाँनसन से एकाध ही वर्ष पूर्व प्रकाशित मार्टिन के कोश में अर्थच्छायाओं को यद्यपि विस्तृत संदर्भ में देखने का प्रयास हुआ, तथापि व्युत्पत्तिसंकेत वहाँ लुप्त हो गया। जाँनसान के कोश में नाना अर्थच्छायाओं और उदाहरणों के साथ साथ शब्दप्रयोगक के स्मृतिमूलक उदारहण भी दिए गए। संकेतरूप में मूल शब्द के निर्देश मात्र से व्युत्पत्तिसंबंध का सचन किया जाता था। समानार्थक फांसीसी पर्याय भी दिए गए। शेरिडन और वाकर के कोश, जाँनसन की अपेक्षा अल्प महत्व के होने पर भी उच्चारणसंकेत की दिशा में अधिक प्रयत्नशील रहे। वेबस्टर के कोश में छोटे पैमाने पर कोशकला की रचनाविधानसंबंधी पूर्वमान्यताओं के उपयोग का सर्वाधिक प्रयास हुआ। दूसरी ओर पूर्वोक्त विशेषताओं के अतिरिक्त डॉ॰ रिचर्डसन के कोश में लातिन के साथ फ्रांसीसी इताली, स्पेनी भाषा के शब्दों का उपन्यास यह सूचित करता है कि उस युग के कोशकारों की चेतना उदबुद्धतर हो रही थी और तुलनात्मक दृष्टि का विकास होने लगा था। इस अन्य कोश में तुलनात्मक रूपों की प्रवृत्ति तो लुप्त हो गई पर अर्थव्याख्या में कुछ कुछ विश्वकोशीय पद्धति का प्रभाव लक्षित होने लगा था। १८६० के 'वेबस्टर' के कोश में पुनः लातिन, इताली, स्पेनी और फ्रासीसी शब्दरुपों से भी तुलनात्मक बीध का आभास मिलता है पर अंग्रेजी कोशों की यह सीमा इन्हीं भाषाओं के घेरे में पडी़ रही।

धीरे-धीरे कोशकला के आदर्श रचना विधान की उपादान सामग्रियों का प्रयोग— थोडी़ या बहुत मात्रा में — आक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी की रचना के पहले से भी होने लगा था। पर उनमें वैज्ञानिक और ऐतिहासिक आधार सर्वथा पुष्ट और सुव्यवस्थित नहीं थे। वे उपादान किसी एक कोशों में योजनाबद्ध क्रम से सयोजित न होकर भिन्न भिन्न काशों में विकीर्ण थे। फिर भी उनसे कोशनिर्माण के आवश्यक उपादानों की उपयोगिता सूचित और निर्देशित ही चुकी थी। पूर्व कोशों की अपेक्षा परवर्ती कोशों में प्रायः अर्थप्रतिपादन की पूर्णता, यथार्थता और शुद्धता के साथ- साथ ऐतिहासिक और भाष वैज्ञानिक प्रौढ़ता बढती गई। डॉ॰ ट्रेंच की मनीषा ने समस्त पूर्वसंकेतिक उपादानों के समुचित विनियोग एवं समावेश का लिंगनिर्देश किया। उन्होंने सुव्यवस्थित ढंग से और योजनाबद्ध रूप में उनके उपयोग की महत्ता को ठीक ठीक समझा और उनके समुचित एवं व्यवस्थित विनियोग और प्रयोग से कोशरचना के कार्य को पूर्णता की दिशा में बढा़ने का प्रयास किया।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]