पलायनवाद

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पलायनवाद (escapism) का कोशगत अर्थ है ऐसा साहित्य जो जीवनसंघर्ष से कुछ समय के लिए हमें दूर ले जा सके; जैसे जासूसी उपन्यास, संगीतात्मक सुखांत नाटक, चित्रपट आदि। किंतु यह अर्थ समझाने के पश्चात् शिपले न अपने अंगरेजी साहित्य कोश में यह भी लिखा है कि पलायनवादी साहित्य में जीवन से पलायन ही हो यह अनिवार्य नहीं है। पलायनवादी-साहित्य द्वारा जीवन का अनुसंधान भी होता है क्योंकि ऐसे साहित्य द्वारा हम जीवन की नीरस पुनरावृत्ति से कुछ क्षणों के लिए हटकर पुन: अधिक उत्साह से जीवनसंघर्ष में भाग ले सकते हैं। इस प्रकार पलायनवाद को प्रचलित अर्थ विवादास्पद है।

पलायनवाद का इतिहास[संपादित करें]

समाजशास्त्र के अनुसार आदिम सभ्यता में कबीलों द्वारा अभिचार या जादू, नृत्य, मान, चित्रांकन आदि क्रियाएँ, सतही दृष्टि से पलायन प्रतीत होती हैं, किंतु इन चेष्टाओं द्वारा कबीले बाह्य कठोर संघर्ष की तैयारी करते थे। मनुष्य प्रकृति पर बाह्यविजय की कल्पना सर्वप्रथम अपने मत में करता है, इससे वह प्रकृतिविजय के लिए उत्साहित हो उठता है। इस दृष्टि से अथर्ववेद के अभिचार ब्राह्मणों में प्रतिपादित यज्ञ, फसल बोने और पकने, ऋतुओं के बदलने, संतानोत्पत्ति, युद्ध आदि के अवसरों पर किए गए नृत्य गानादि पलायन भी है और संघर्ष की प्रस्तावना भी। सभ्यता के उन्नत होने पर भी ये उपयोगी क्रिया कवियों के दिवास्वप्नों, चित्रकारों के कल्पित चित्रों, राजनीतिज्ञों के यूटोपिया और धार्मिकों की निरर्थक प्रतीत होनेवाली कार्यपद्धतियों में देखी जा सकती है।

साहित्य में पलायनवाद[संपादित करें]

संस्कृत साहित्य[संपादित करें]

पलायनवाद साहित्य में विशेषत: यथार्थवाद का विरोधी माना जाने लगा है। संस्कृत साहित्य में कथासरित्सागर, दशकुमारचरित, वासवदत्ता, कांदबरी जैसी कथाओं में पलायनवादी तत्व कम नहीं हैं। घोर यथार्थवादी दृष्टि से नाटकों में भी, सूद्रक के मृच्छकटिक नाटक को छोड़कर, संस्कृत साहित्यकारों ने उच्चवर्ग के मनोरंजन के लिए प्राय: जीवन की वास्तविक स्थिति को छोड़कर रंजनात्मक पक्षों को ही अधिक प्रस्तुत किया है। काव्य में "कविपरंपराओं" और बाद में "कामशास्त्र" के प्रभाव के कारण जो नायक-नायिका-तत्व-वादी साहित्य लिखा गया, उसे भी एक सीमा तक पलायनवादी कहा जा सकता है, यद्यपि यथार्थ का सर्वथा अभाव उसमें कहीं नहीं है।

हिन्दी साहित्य[संपादित करें]

हिंदी में सिद्धों की बानी में समा, धर्म और साधना के दंभ की कठोर भर्त्सना मिलती है, यह यथार्थवादी प्रवृत्ति है। भक्तिकाल में जहाँ वैकुंठ की कल्पना है, राधाकृष्ण के अनवरत विलास का निरंतर ध्यान है, वह यथार्थवादी पंरपरा में न आ सकने के कारण पलायनवाद कहा जाएगा, यद्यपि राधाकृष्णवाद को मनोवैज्ञानिक दृष्टि से वासना का उदात्तीकरण भी कहा गया है।

रीतिकालीन श्रृंगार को आचार्य शुक्ल और उनके बाद प्रगतिवादियों ने पलायनवाद का ही एक रूप माना है क्योंकि इस काव्य में जनसंवेदना का सर्वथा अभाव है। भारतेंदु युग से हिंदी में समस्याओं का सीधा चित्रण प्रारंभ होता हे, किंतु छायावाद में पुन: कविगण कल्पित लोक में विचरते हैं; पंत की "ज्योत्स्ना", प्रसाद की कामायनी के "रहस्य" और "आनंद" सर्ग और निराला का "सूक्ष्म ब्रह्म" - यह सब द्विवेदीयुगीन प्रत्यक्ष कविता के संदर्भ में पलायन प्रतीत होता है। प्रसाद की यह पंक्ति पलायनवाद की स्तरीय पंक्ति मानी जाती है - "ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे धीरे"।

पलायनवाद और यथार्थवाद[संपादित करें]

यथार्थवाद सामाजिक समस्याओं से सीधे टकराने में विश्वास करता है। पलायनवाद संघर्ष से श्रांत व्यक्ति को कल्पना के क्षेत्र में ले जाता है। पलायनवाद को वस्तुत: मनोरंजन का पर्याय नहीं समझना चाहिए। जीवन के लिए स्मृति और विस्मृति दोनों आवश्यक हैं। किंतु ऐसी रचनाएँ और कलारूप अवश्य पलायनवादी कहलाएँगे जिनमें जागरूक होकर पाठक या दर्शक को वास्तविकता से दूर रखने का प्रयत्न हो। शरच्चंद्र के देवदास के मदिरापान में यह प्रवृत्ति स्पष्ट दिखाई पड़ती है। आज के यथार्थवादी और वैज्ञानिक युग में प्रत्येक प्रकार का रहस्यवाद पलायनवाद माना जाएगा; यों रहस्यवादी साधक केवल उसी को यथार्थवादी कहेंगे। अमरीका, यूरोप और अब भारत में भी अपराध कथाओं, जासूसी उपन्यासों और चित्रपट का अधिक प्रकार है किंतु इनमें भी सभी रचनाओं और चित्रों को पलायनवादी नहीं कह सकते। इधर नई कविता और नव साहित्य में निराशा, अवसाद, अनिश्चय और मनुष्य के भविष्य में अविश्वास की प्रवृत्तियाँ पलायनवाद का स्पर्श करती हुई प्रतीत होती हैं। किसी युग की वास्तविकता को ध्यान में रखकर पलायनवाद का निर्णय संभव है।

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]