पर्यावरणीय नीतिशास्त्र

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विभिन्न पर्यावरणीय घटकों में मानव एक ऐसा घटक है जो कुछ हद तक अपने अनुरूप पर्यावरण में परिवर्तन करने की क्षमता रखता है।

विगत दशकों में विश्व जनसंख्या में काफी तेज़ी से वृद्धि हुई है, जिसके वर्ष 2050 तक लगभग 9-10 अरब हो जाने का अनुमान है। तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या एवं आधुनिक तकनीकी विकास के कारण मानव प्रभाव में वृद्धि हुई है। इसी का परिणाम है कि पर्यावरणीय समस्याएँ आज विश्व के समक्ष विकराल दैत्य के समान मुँह फैलाए खड़ी हैं। वस्तुत: मानव ने प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन एवं दुरुपयोग किया है जिसके कारण पर्यावरण निम्नीकरण, जलवायु परिवर्तन, वैश्विक तापन जैसी समस्याओं का जन्म हुआ है। अत: संसाधनों की सततता, पर्यावरण संरक्षण आदि के प्रति मानव की जि़म्मेदारी से ही ‘पर्यावरणीय नैतिकता’ संबंधित है। क्या है पर्यावरणीय नैतिकता? पर्यावरणीय नीतिशास्त्र व्यावहारिक दर्शनशास्त्र की एक शाखा है जिसके अंतर्गत आस-पास के पर्यावरण के संरक्षण से संबंधित नैतिक समस्याओं का अध्ययन किया जाता है। अर्थात् मनुष्य एवं पर्यावरण के आपसी संबंधों का नैतिकता के सिद्धांतों एवं नैतिक मूल्यों के आलोक में अध्ययन किया जाता है। मुख्यत: मनुष्य के उन क्रियाकलापों का नैतिक आधार पर मूल्यांकन किया जाता है जिससे पर्यावरण प्रभावित होता है। नेचर पत्रिका के अनुसार, ‘‘पर्यावरणीय नीतिशास्त्र व्यावहारिक दर्शनशास्त्र की एक शाखा है जिसके अंतर्गत पर्यावरणीय मूल्यों की आधारभूत अवधारणाओं के अध्ययन के साथ-साथ जैव विविधता एवं पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण एवं उसे बनाए रखने के लिये आस-पास के सामाजिक दृष्टिकोण, कार्य एवं नीतियों जैसे मुद्दों का अध्ययन किया जाता है।’’ पर्यावरणीय नैतिकता इस विश्वास पर आधारित है कि मनुष्य के साथ-साथ पृथ्वी के जैवमंडल में निवास करने वाले विभिन्न जीव-जंतु, पेड़-पौधे भी इस समाज का हिस्सा हैं। अमेरिकी विद्वान एल्डो लियोपोल्ड (Aldo Leopold) का मानना है कि सभी प्राकृतिक पदार्थों में मूल्य अंतर्निहित होते हैं, इसलिये मानव द्वारा दावा किये जा रहे सभी अधिकार, सभी प्राकृतिक पदार्थों पर भी लागू होते हैं तथा मानव को उनका सम्मान करना चाहिये। पर्यावरणीय नैतिकता से संबंधित मुद्दे प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग: प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग एवं अत्यधिक दोहन से पर्यावरण में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो रही है। क्योंकि मानव प्रकृति का हिस्सा है, अत: प्रकृति के साथ सहयोग एवं समन्वय स्थापित करके प्राकृतिक संसाधनों का धारणीय उपयोग किया जा सकता है। वनों का विनाश: बड़े-बड़े उद्योगों एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की स्थापना हेतु वनों की अंधाधुंध कटाई की जा रही है। इसके अलावा कृषि के लिये भी वनों का सफाया किया जा रहा है। वनों के विनाश से न केवल गरीब एवं जनजातीय लोगों जो कि आजीविका हेतु वनों पर निर्भर रहते हैं, पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है बल्कि जैव विविधता में भी कमी आ रही है। निर्वनीकरण के कारण पशु-पक्षियों के निवास स्थान समाप्त हो रहे हैं। अत: वनों का संरक्षण पर्यावरणीय नैतिकता से संबंधित है। पर्यावरण प्रदूषण विभिन्न मानवीय गतिविधियों के कारण पर्यावरण प्रदूषण को बढ़ावा मिल रहा है। इसका सर्वाधिक नकारात्मक प्रभाव गरीब एवं वंचित वर्गों पर पड़ रहा है। प्रदूषण जैसी मानवीय गतिविधियाँ प्राकृतिक श्रृंखला में व्यवधान डालती हैं तथा संतुलन की स्थिति को असंतुलित कर देती है। मानव पर्यावरण का महत्त्वपूर्ण घटक है , अत: मानव का नैतिक कर्त्तव्य है कि वह पर्यावरण को प्रदूषित न होने दे। इक्विटी प्राकृतिक संसाधनों पर सभी का समान अधिकार है, परंतु आंशिक रूप से मज़ूबत लोगों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का अधिकांश दोहन एवं दुरुपयोग किया जा रहा है , जबकि अन्य गरीब एवं वंचित लोग इनका उपभोग नहीं कर पा रहे हैं। पशु अधिकार जीव-जंतुओं एवं पौधों का भी प्राकृतिक संसाधनों पर मानव के समान अधिकार है। अत: नैतिकता के आधार पर मानव को प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग रोकना चाहिये। पशु कल्याण की भावना पर्यावरणीय नैतिकता से संबंधित है, क्योंकि पशु भी प्राकृतिक पर्यावरण में रहते हैं , अत: पशुओं के अधिकारों का भी संरक्षण होना चाहिये। पर्यावरणीय नैतिकता को बनाए रखने के उपाय अमेरिकी विद्वान एल्डो लियोपोल्ड (Aldo Leopold) ने ‘भूमि नैतिकता’ (Land Ethics) की अवधारणा प्रस्तुत की। उन्होंने कहा कि हमें भूमि को संसाधन मात्र समझने के विचार को रोकना/त्यागना होगा। वस्तुत: भूमि का अभिप्राय केवल मृदा नहीं है, बल्कि भूमि ऊर्जा का प्रवाह प्रदान करती है जिसमें मृदा के साथ-साथ जीव-जंतु एवं पौधे पनपते हैं। अत: भूमि को संसाधन मानकर इसके दुरुपयोग को रोकना होगा तथा भूमि का संरक्षण करना होगा। पृथ्वी पर मानवीय एवं गैर-मानवीय कल्याण एवं समृद्धि स्वयं में एक मूल्य है। यह मूल्य मानवीय उद्देश्यों के लिये गैर-मानवीय जीवन की उपयोगिता से स्वतंत्र है। प्राकृतिक संसाधनों की समृद्धि एवं विविधता का स्वयं में ही मूल्य है, अत: मानव को यह समझना होगा कि इनके दोहन का अधिकार इसे नहीं है । मानव जीवन एवं संस्कृति की समृद्धि के लिये जनसंख्या को नियंत्रित करना भी आवश्यक है। गैर-मानव जीवन की समृद्धि के लिये भी जनसंख्या में कमी करने की आवश्यकता है। आर्थिक एवं सामाजिक नीतियों में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग को रोककर संतुलन स्थापित करने की आवश्यकता है। पर्यावरण संरक्षण की पारंपरिक गतिविधियों को व्यवहार में लाने की आवश्यकता है।