पंचपरगनिया भाषा

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पंचपरगनिया
तमड़िया
दिकुकाजी, खेरवारी, गंवारी, सदानी
पंचपरगनिया

''झाड़ लिपि'' में पंचपरगनिया शब्द
बोलने का  स्थान भारत
तिथि / काल 2011 ई.
क्षेत्र झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा
समुदाय आदिवासी/मूलवासी
मातृभाषी वक्ता 15 लाख
भाषा परिवार
लिपि देवनागरी लिपि, झाड़ लिपि
भाषा कोड
आइएसओ 639-3 tdbPanchpargania
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पंचपरगनिया भाषा झारखण्ड प्रदेश की एक मुख्य भाषा है। इस भाषा को इस प्रांत में द्वितीय राजभाषा के रूप में राज्य सरकार द्वारा सूचीबद्ध किया गया है। यह भाषा मुख्यतः छोटानागपुर के पठारी क्षेत्र में बोली जाने वाली प्रमुख भाषा है और यहाँ इसका विशेष महत्व है। मूलतः पंचपरगनिया भाषा की उत्पत्ति और विकासक्रम, "पाँचपरगना" (दो शब्द ‘पाँच’ और ‘परगना’ शब्द से निर्मित है) क्षेत्र से ही प्रारंभ हुआ है। यहाँ "पाँच-परगना" क्षेत्र का तात्पर्य है- सिल्ली, बुण्डू, बारेन्दा, राहे, तमाड़ (पूर्वी तमाड़, पश्चिमी तमाड़ तथा अड़की) आदि परगनों से है। यह भाषा इस विशेष क्षेत्र के लिए रीढ़ है। पंचपरगनिया भाषा का व्यापक स्वरूप सिर्फ "पाँचपरगना" कहने मात्र से सीमित नहीं है। संप्रति पाँचपरगना का व्यापक क्षेत्र वर्तमान समय के प्रशासनिक इकाई के रूप में- अनगड़ा, नामकुम, सिल्ली, सोनाहातु, राहे, बुंडू, तमाड़, अड़की, खूँटी, मुरहू, बंदगांव, चौका, चांडिल, ईचागढ़, कुकड़ू, नीमडीह, काँड्रा, गम्हरिया, कुचाई, सरायकेला, खरसावाँ, गोबिन्दपुर, चक्रधरपुर, चाईबासा, पोटका, मुसाबनी, झालदा, पुरुलिया, बाईगनकुदर, बाघमुंडी, पातकुम, धालभूमगढ़, मानभूम, क्योंझर तथा अन्य प्रखण्डों एवं झारखण्ड के ही हजारीबाग, गिरिडीह, धनबाद, बोकारो जिले के कुछ गांवों और असम के चाय बगानों तक इसका व्यापक फैलाव है। इसी संबंध में भोजपुरी भाषा-साहित्य के लेखक डाॅ॰ उदय नारायण तिवारी ने इस ओर संकेत करते हुए लिखा है कि राँची की पूर्वी क्षेत्र सिल्ली, सोनाहातु, बुण्डू, तमाड़ एवं राहे को पांचपरगना कहते हैं। यहाँ बसने वाले सभी समुदायों (आदिवासियों और मूलवासियों) के लिए यह भाषा आम बोलचाल, व्यापार, शिक्षा, संपर्क और संचार का सबसे उपयोगी माध्यम है। इसके साथ ही यह एक अंतर-प्रांतीय भाषा भी है।

पंचपरगनिया, भारोपीय कुल की भाषा है और भारतीय आर्य भाषाओं से इसका सीधा संबंध है। भारत में जिस समय आर्यो का आगमन हुआ, उस समय संस्कृत भाषा का उद्भव हो चुका था। संस्कृत का प्राचीनतम रूप हमें वेदों में मिलता है जो उस समय के जन-भाषा के रूप में व्यवहृत थी। समय के अंतराल में ज्यों-ज्यों संस्कृत भाषा अलंकृत और समृद्ध होती गयी, धीरे-धीरे यह भाषा जनजीवन से उसका संबंध दूर होता चला गया। एक समय ऐसा आया कि संस्कृत भाषा आमलोगों के लिए कठिन हो गई, क्योंकि संस्कृत की साहित्यिक भाषा के विकास के साथ मूल भाषा का भी विकास हुआ जो आर्यो की भाषा थी। ऐसा संभव है कि आमजनों की भाषा, द्रविड़ भाषा के बहुत से शब्द आकर समाहित हो गए होंगे। जब साहित्यिक भाषा और जन-भाषा का स्वरूप नितांत भिन्न हो गया तो स्वाभाविक है उनके अलग-अलग नामकरण भी हो गए। महात्मा गौतम बुद्ध के समय संस्कृत साहित्य की भाषा थी और जनता की भाषा को ‘पाली’ कहा जाता था। इसी भाषा का परिवर्तित रूप ‘प्राकृत’ कहलाने लगा। सम्राट अशोक के काल में अनेक धर्म-लिपियाँ ‘प्राकृत’ भाषा में उपलब्ध हैं। महावीर स्वामी तथा गौतम बुद्ध ने भी अपने धर्म-उपदेशों के लिए ‘प्राकृत भाषा का सहारा लिया, वस्तुतः ‘प्राकृत’ जनभाषा थी, फलस्वरूप इसका साहित्य और अधिक लोकप्रिय हुआ।

"प्राकृत भाषा में स्वतंत्र रूप से काव्य और धार्मिक ग्रंथों की रचनाएँ हुई, किन्तु साहित्यिकता से बोझिल होते ही इसका संबंध भी आमजनों से छूटता गया। अधिकांश विद्वानों की प्राकृत भाषा लेखनीय और व्यवहारिक रूप में अशुद्ध प्रतीत होती थी। अतः विद्वानों ने उसे ‘अपभ्रंश भाषा’ की संज्ञा दी जो बाद में प्राकृत से भी अधिक लोकप्रिय हुई। अपभ्रंश में भी व्याकरण की नियमबद्धता और कृत्रिमता तथा साहित्य की अलंकृति आ गई, जिससे वह भी  निष्प्राण हो गई। प्राकृत भाषा की तरह अपभ्रंश के भी दो भेद हो गये-1. परिनिष्ठित अपभ्रंश और 2. अशुद्ध अपभ्रंश।"[1] पहले समूह के परिनिष्ठित अपभ्रंश विद्वानों की भाषा थी और अशुद्ध अपभ्रंश लोक-भाषा थी। अपभ्रंश भाषा-साहित्य में भाषागत भेद बहुत कम मिलते हैं, क्योंकि समस्त अपभ्रंश साहित्य एक परिनिष्ठित भाषा में है। विशेषकर उत्तर कालीन व्याकरणों ने अपभ्रंश के देश-भेद के आधार पर अनेक भेद बताए हैं। डाॅ॰ तगारे ने अपने ‘हिस्टोरिकल ग्रामर ऑफ अपभ्रंश’ में अपभ्रंश के तीन भेद बताए हैं-1. दक्षिणी 2. पश्चिमी तथा 3. पूर्वी। वस्तुतः भारतीय आर्य भाषा की पूर्ववत्ती परंपरा के अनुुसार अपभ्रंश के भी केवल दो क्षेत्रीय भेद थे- 1. पश्चिमी और 2. पूर्वी। जिनमें पश्चिमी अपभ्रंश परिनिष्ठित थी तथा पूर्वी अपभ्रंश उसकी विभाषा मात्र थी। अपभ्रंश के इससे अधिक भेदों की सही शर्त नहीं मानी जा सकती है। पूर्वी अथवा मागधी अपभ्रंश अशुद्ध थी। व्याकरणिक जटिलता इसमें क्रमशः कम हो गई और लोकप्रिय भाषा बनी। इसी मागधी अपभ्रंश से मगही, भोजपुरी, मैथली, बंगला, असमिया, ओड़िया, गुजराती तथा मराठी आर्य भाषाओं का विकास हुआ। इनमें से मगही, मैथली तथा भोजपुरी को डाॅ॰ ग्रियर्सन ने ‘बिहारी’ नाम दिया। मागधी अपभ्रंश से प्रसूत बिहारी परिवार की अन्य भाषाओं की तरह पंचपरगनिया भी मागधी अपभ्रंश से विकसित एक भाषा है जो अब तक मगही, भोजपुरी और नागपुरी की विभाषा मानी जाती थी। विद्वानों ने एक अन्य भाषा समुदाय अर्द्ध-मागधी प्राकृत भी माना है, जिसमें वे अवधी, भोजपुरी इत्यादि बोलियों को स्थान देते हैं तथा पूर्वी हिन्दी के नाम से पुकारते हैं। नागपुरी, सदानी भाषा भी इसी पूर्वी हिन्दी के अन्तर्गत आती हैं। पंचपरगनिया का विकास भी इन्हीं भाषाओं के साथ-साथ ही हुआ है। वर्तमान में यह एक स्वतंत्र भाषा के रूप में पहचान बना चुकी है और अपने अस्तित्व लिए भाषा-साहित्य के विकास के पथ पर दिन-प्रतिदिन अग्रसर है।

भाषाविद् प्रो. परमानंद महतो के मतानुसार- साहित्य में कहीं अपभ्रंश का काल सन् 600 से 950 ई॰ तक माना गया है और इसी काल अवधि को अन्य विद्वानों ने सन् 600 से 1200 ई॰ तक का समय माना है। प्राकृत और अपभ्रंश जो लोकप्रिय बोली थी, गुजरों और आमीरों समुदायों से बहुत प्रभावित हुई। एक महत्वपूर्ण प्राकृत-गुर्जरी, जिससे आधुनिक गुजराती भाषा का जन्म हुआ यह गुजरों की देन है और आमारी (अहीरी) अथवा आभीर (अहीर) आदि समुदायों से प्रभावित होकर ऊपजी है। छठी सदी के महान भाषाविद् और सौन्दर्यशास्त्री ‘दंडी’ ने अपभ्रंश प्रकृति को आमीरों (अहीरों) की भाषा के प्रभाव से उत्पन्न पद्य शैली के रूप में परिभाषित किया है। पंचपरगनिया वैय्याकरणी डॉ० करम चन्द्र अहीर के अनुसार- "पंचपरगनिया भाषा का मूल स्रोत ‘आभीरी अपभ्रंश’ से है और अहीर जातियों का समूह मध्यप्रदेश के ’अहीरवाड़ा’ क्षेत्र से पलायन कर झारखंड के पाँचपरगना क्षेत्र में आकर बसे।"[2]

विद्वान ‘भंडारकर’ का विचार है कि भारत में ईसा मसीह की कथाएँ आभीरों ने ही फैलायी और उसका समावेश कृष्ण गाथाओं में भी कर दिया गया। इनकी जातीय बोली अहीरी थी जो पाँचपरगना क्षेत्र में आगे चलकर "खेरवारी" और पंचपरगनिया कहलायी। "यह जाति पाँचपरगना क्षेत्र में अन्य जातियों से पहले यहाँ आई। इस जाति की भाषा में पंचपरगनिया लोकगीत अधिकांश मौखिक और अल्प रूप में संकलित कहीं-कहीं मिलते हैं। यहाँ के सोहराई गीतों के तुलनात्मक अध्ययन से पता चलता है कि ये गीत अहीर जातियों की ही उपज है, जिनका रचनाकाल भी संभवतः 8वीं या 9वीं सदी की होगी। 15वीं सदी से यहाँ के शिष्ट गीतों में पंचपरगनिया भाषा के आधुनिक रूप का प्रमाण मिलना प्रारंभ होता है।"[3] पंचपरगनिया, नागपुरी भाषा की सगी बहन है, ऐसा पूर्व के विद्वानों द्वारा कहा गया है, किंतु इस कथन के सत्यता सिद्ध करने के लिए इसके पूर्वकालीन साहित्य भी उपलब्ध नहीं है। पंचपरगनिया भाषा ने कब अपने आधुनिक रूप को प्राप्त किया, सही-सही नहीं कहा जा सकता है। इतना जरूर कहा जा सकता है कि संभवतः बंगला, ओड़िया, मगही, भोजपुरी, मैथली, नागपुरी आदि भाषाओं के साथ ही पंचपरगनिया भाषा का उद्भव और विकास हुआ है, चूँकि सांस्कृतिक और लौकिक धरोहर को सुरक्षित रखने में उपर्युक्त आधुनिक भारतीय भाषाओं की तरह पंचपरगनिया भाषा की निजी मौलिकता है।

"पाँचपरगना में अहीर जातियों के आगमन (8वीं, 9वीं शताब्दी) के बाद पंचपरगनिया के बीज यहाँ पड़ गए होंगे और चैतन्य महाप्रभु (सन् 1485 ई॰) के कृष्ण भक्ति प्रचार के परिणामस्वरूप ये फूले-फले होंगे और 14वीं, 15वीं शताब्दी तक वे सारी विशेषताएँ इसमें आ गई होंगी, जो आधुनिक पंचपरगनिया भाषा में विद्यमान हैं।" [4] पाँचपरगना का अर्थ होता है वे सभी परगने जहाँ तक की संस्कृति, सामाजिक रीति-रिवाज, नैतिकता, पर्व-त्योहार, नाच-गीत, ताल-लय आदि एक ही प्रकार की रहती है एवं इस भाषा को बोलने वाले और समझने वाले लोग निवास करते हैं। इसी आधार पर पाँचपरगना का विस्तृत क्षेत्र होता है- अनगड़ा, नामकोम, सिल्ली, मुरी, बन्ता-हजाम, पतराहातु, ईचाहातु, जामुदाग, पोगड़ा, बसंतपुर, तेंतला, बारेन्दा, बोंगादार-दुलमी, टोड़ांग, चोकाहातु, बारेडीह, राहे, दुलमी, लोवाहातु, सताकी, महेशपुर, पुरनानगर, उरांवडीह, माझीडीह, महुआडीह, माड़नाडीह, कूबाडीह, चंदनडीह, बरवाडीह, हितजारा, गोआली, रेलाडीह, पोवादिरी, भोड़गाडीह, बुण्डू, सुमानडीह, बारूहातु, सारजोमडीह, कोटा, मायपा, काँची, तुंजू, पूर्वी तमाड़, पश्चिमी तमाड़, सिंदरी, नौढ़ी, अड़की, खूँटी, मुरहू, बंदगाँव, चौका, चांडिल, ईचागढ़, कुकड़ू, नीमडीह, काँड्रा, कुचाई, गम्हरिया, सरायकेला, खरसावाँ, झालदा, पुरुलिया, बाईगनकुदर, बाघमुण्डी, चक्रधरपुर, चाईबासा, गोबिन्दपुर, पोटका, पातकुम, धालभूमगढ़, क्योंझर परगने इत्यादि। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि "पंचपरगनिया भाषा आधा राँची (पूर्वी और उत्तरी क्षेत्र पूर्ण रूप से), आधा पुरूलिया, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम, सरायकेला-खरसावाँ (पूर्ण रूप से), पश्चिम बंगाल और ओडिशा के सीमावर्ती क्षेत्रों में फैला हुआ है।"[5]

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि पंचपरगनिया भाषा, पाँचपरगना क्षेत्र की सबसे अधिक प्रचलित भाषा है। लगभग 15 लाख (पंद्रह लाख) पंचपरगनिया भाषी लोग यहाँ निवास करते हैं। इस भाषा की प्राचीन साहित्यिक परंपरा भी है और इनके स्वतंत्र आधुनिक गद्य-पद्य साहित्य भंडार है। पंचपरगनिया भाषा क्षेत्र के सभी विद्यालयों और महाविद्यालयों जैसी शिक्षण संस्थानों में भी विद्यार्थी इसे शिक्षा का माध्यम बनाकर उच्चतर शिक्षा प्राप्त कर सरकारी/गैर-सरकारी सेवाओं का लाभ ले रहे हैं। यह भाषा पूरे पाँचपरगना क्षेत्र में आदिवासियों और मूलवासियों की मुख्य सम्पर्क भाषा है जो समूहों को एक सूत्र में बाँध के रखती है। यह भाषा विभिन्न भाषा-भाषियों के बीच अन्तर प्रांतीय संपर्क, व्यापार, विपणन का मूल साधन है। यह भाषा किसी विशेष धार्मिक परंपरा या आस्था से जुड़ी हुई नहीं है और सभी धर्मावलम्बी इसका प्रयोग करते हैं। यह भाषा व्याकरणिक विशिष्टताओं से भी यह एक स्वतंत्र भाषा है। इस भाषा को लिखने-पढ़ने के लिए डॉ० करम चन्द्र अहीर ने झाड़ लिपि तैयार किया है और साथ ही इस भाषा का व्याकरण और साहित्यिक इतिहास भी लिखा है। वर्तमान समय में पंचपरगनिया में पठन-पाठन अथवा अध्ययन-अध्यापन मुख्यतः देवनागरी लिपि में ही किया जाता है।

कुछ वाक्यांश[संपादित करें]

पंचपरगनिया वाक्यांश हिन्दी अनुवाद
सोमा आतेहे। सोमा आ रहा है।
उ पढ़त रहे। वह पढ़ रहा था।
तयं केसन आहिस। तुम कैसे हो?
बलाइ घरे नेखे। बोलाई घर में नहीं है।
संजय गाइ चाराय जाए रहे। संजय गाय चराने गया था।
सउब लकेक दुइ टा हाथ हयला। सभी लोगों के दो हाथ होते हैं।
बुड़ूँ टा छटे सहर हेके। बुण्डू छोटा शहर है।
सतीघाट माहान बड़े मेला लागेला। सतीघाट में बहुत बड़ा मेला लगता है।
पाँचपरगनाक सउब लेक बड़े मकर सांकराइत केर टुसू परब हेके। पाँचपरगना का सबसे बड़ा त्योहार मकर संक्रान्ति का टुसू पर्व है।

पंचपरगनिया के प्रमुख व्यक्ति[संपादित करें]

पंचपरगनिया लोकगीत[संपादित करें]

पंचपरगनिया लोकगीत लोक-जन द्वारा विशेष परिस्थिति, स्थल, कर्म तथा रीति-रीवाज के समय हुई अनुभूतियों की लयात्मक सामूहिक अभिव्यक्ति है। ग्राम्य जन-जीवन में सामाजिक चेतना के विकास के साथ-साथ लोकगीतों का भी जन्म हुआ। इसका सीधा संबंध जीवन के साथ घनिष्ठता का है। मानव में जैसे-जैसे ज्ञान-परिज्ञान का विकास हुआ और उसके लयबद्ध वाणी में अपने सुख-दुःख की कथा को कहना प्रारंभ किया तभी भावनाओं के रूप में गीतों की अभिव्यक्ति हुई है। पंचपरगनिया के उदाहरणार्थ कुछ गीत इस प्रकार हैं-

टुसू गीत :
आमरा जे माँ टुसू थापी, अघन साँकराइते गो!
अबला बाछुरेर गोबर, लबन चाउलेर गुँड़ी गो!!


तेल दिलाम, सलिता दिलाम, दिलाम सरगेर बाती गो!
सकल देवता संइझा लेव माँ लखी, सरसती गो!!


गाइ आइल', बाछुरी आइल' भगबती गो!
सइंझा निये बाहिराव टुसू छरेर कुल बाती गो!!


करम गीत :
काँसी फूल फूटी गेल,
आसा मर बाढ़ी गेल!
देखी-देखी आँखिया टाटाय,
पड़ल' भादर' मास! कहि-कहि भइया के पाठाइ।
काँसी फूल झड़ि गेल,
आसा मर टूटी गेल!
कांदी-कांदी छातिया धवाए।।


दसईं गीत :
दसाइंया का झल-मल देबी रे दुरूगा,
नाइयाँ का झलो-मलो खेइल रे।
मयँ तो जाबूँ देसे-देसे बुले गो।
मयँ तो जानँ' देबी हो दुरूगा, दसरथ जाने खेइल हो।
पएँरी ना पएँरी साथे नागरी सुनलँ' मयँ बाजना,
हरि-हरि ताल बाजे कांसा बाजे रे करइला,
देवता साइर खेल हो।।


सहरईं गीत :

अहीरे...
कन सिंगे लेबे बरदा तेल सिंदुरा हो,
कन सिंगे लेबे मेंदुवाइर रे ?
काहाँहिं लेबे बरदा टिकली सिंदुरा हो।
काहाँहिं लहसले जाइ रे ?

अहीरे...
बावाँ सिंगे लेबे बरदा तेल, सिंदुरा हो,
दहिना सिंगे लेबे मेंदुवाइर रे।
माझ कापाड़े लेबे टिकली सिंदुरा हो,
कुल्ही माझे लहसले जाइ रे।।

पंचपरगनिया साहित्य[संपादित करें]

पंचपरगनिया साहित्य की रचनाएँ और रचनाकार

1. आदर्श पंचपरगनिया व्याकरण : डॉ. करम चन्द्र अहीर

2. पंचपरगनिया बेआकरन : डॉ. चन्द्रमोहन महतो

3. पंचपरगनिया निबंध-संग्रह : डॉ. करम चन्द्र अहीर तथा कैलाश सेठ

4. पंचपरगनिया लोक-साहित्य : डॉ. सुनीता कुमारी गुप्ता

5. पंचपरगनिया लोक साहित्य : डॉ. दिनेश प्रसाद सिंह

6. पंचपरगनिया भाषा : प्रो. परमानन्द महतो

7. पंचपरगनिया लोकगीत : डॉ. अम्बिका स्वाँसी

8. पंचपरगनिया मध्यकालीन कबि आर उनखर रचना : डॉ. पराग किशोर सिंह

9. आधुनिक पंचपरगनिया साहितकार आर कलाकार : डॉ. पराग किशोर सिंह

10. जदि एसन हतक हले का हतक : संतोष साहु 'प्रीतम'

11. पूस पीठा : प्रो. परमानन्द महतो

12. तुलसी चउरा : राजकिशोर सिंह 'बुड़ूँआर'

13. राबन बध : डॉ. चन्द्रमोहन महतो

14. ऊँजरा भइर फूल : प्रो. जगन्नाथ सिंह मुण्डा तथा डॉ. करम चन्द्र अहीर

15. मेसाकोसा : डॉ. दीनबंधु महतो तथा राजकिशोर सिंह 'बुड़ूँआर'

पाँचपरगना संस्कृति / पंचपरगनिया संस्कृति[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. महतो, प्रो. परमानन्द (1990). पंचपरगनिया भाषा. राँची: जनजातीय भाषा अकादमी, बिहार सरकार. पृ॰ 11.
  2. अहीर, डॉ. करम चन्द्र (2011). पंचपरगनिया निबंध-संग्रह. राहे, राँची: डॉ. करम चन्द्र अहीर. पृ॰ 24.
  3. अहीर, डॉ. करम चन्द्र (2012). पंचपरगनिया भाषा और साहित्य का इतिहास. बुण्डू, राँची: पंचपरगनिया भाषा विकास केंद्रीय समिति. पपृ॰ 16, 17.
  4. सिंह, डॉ० दिनेश प्रसाद (2019). पंचपरगनिया लोक साहित्य. नई दिल्ली: प्रगतिशील प्रकाशन. पृ॰ 15. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9789386246752.
  5. गुप्ता, डॉ. सुनीता कुमारी (2009). पंचपरगनिया लोक-साहित्य. नई दिल्ली: क्लासिकल पब्लिशिंग कंपनी. पृ॰ 19. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788170545156.
  • "बिहान" पंचपरगनिया वार्षिक पत्रिका, अंक 1, अक्टूबर 1994 ई., संपा.- डॉ. करम चन्द्र अहीर, प्रकाशक- पंचपरगनिया भाषा विकास केन्द्रीय समिति, बुण्डू (राँची)।
  • "पंचपरगनिया भासा साहित्य और व्याकरण", ले.- प्रो. परमानन्द महतो, प्रथम संस्करण- 2021 ई., मार्गदर्शन पब्लिकेशन, राँची।

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

संस्थाएँ :[संपादित करें]

1. पंचपरगनिया भाषा विकास केन्द्रीय समिति, बुण्डू (राँची), स्थापना वर्ष : 1982 ई.।

  • अध्यक्ष - डॉ. गोबिन्द महतो
  • सचिव / संयोजक - डॉ. करम चन्द्र अहीर

2. पंचपरगनिया भाषा-साहित्य एवं कला परिषद्, गोमेयाडीह, सोनाहातु (राँची), स्थापना वर्ष : 2017 ई.।

  • अध्यक्ष - डॉ. दिनेश प्रसाद सिंह
  • सचिव - डॉ. विष्णुचरण सिंह मुण्डा

पत्रिकाएँ :[संपादित करें]

1. "बिहान" पंचपरगनिया वार्षिक पत्रिका, संपादक- डॉ. करम चन्द्र अहीर, स्थान- बुण्डू (राँची)।

2. "पाँचपरगना" वार्षिक पत्रिका, संपादक- डॉ. पराग किशोर सिंह, स्थान- बुण्डू (राँची)।

जालस्थल :[संपादित करें]

1. http://books.google.co.in/books?id=-NinRMPp1cUC&pg=PA129&lpg=PA129&dq=panchpargana&source=bl&ots=oiuElSUMq0&sig=u8YkVGWKh9GRGy9P0jxATP9_Rig&hl=en&sa=X&ei

2. http://multitree.org/codes/tdb.html

इन्हें भी देखें[संपादित करें]