न्यायशास्त्र (भारतीय)

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वह शास्त्र जिसमें किसी वस्तु के यथार्थ ज्ञान के लिये विचारों की उचित योजना का निरुपण होता है, न्यायशास्त्र कहलाता है। यह विवेचनपद्धति है। न्याय, छह भारतीय दर्शनों में से एक दर्शन है। न्याय विचार की उस प्रणाली का नाम है जिसमें वस्तुतत्व का निर्णय करने के लिए सभी प्रमाणों का उपयोग किया जाता है। वात्स्यायन ने न्यायसूत्र के प्रथम सूत्र के भाष्य में "प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय" कह कर यही भाव व्यक्त किया है।

भारत के विद्याविद् आचार्यो ने विद्या के चार विभाग बताए हैं- आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति। आन्वीक्षिकी का अर्थ है- प्रत्यक्षदृष्ट तथा शास्त्रश्रुत विषयों के तात्त्विक रूप को अवगत करानेवाली विद्या। इसी विद्या का नाम है- न्यायविद्या या न्यायशास्त्र ; जैसा कि वात्स्यायन ने कहा है :

प्रत्यक्षागमाभ्यामीक्षितस्यार्थस्यान्वीक्षणमन्वीक्षा। तया प्रवर्तत इत्यान्वीक्षकी न्यायविद्या न्यायशास्त्रम्। (न्यायभाष्य प्रथम सूत्र)

आन्वीक्षिकी में स्वयं न्याय का तथा न्यायप्रणाली से अन्य विषयों का अध्ययन होने के कारण उसे न्यायविद्या या न्यायशास्त्र कहा जाता है। आन्वीक्षिकी विद्याओं में सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। वात्स्यायन ने अर्थशास्त्राचार्य चाणक्य के निम्नलिखित वचन को उद्धृत कर आन्वीक्षिकी को समस्त विद्याओं का प्रकाशक, संपूर्ण कर्मों का साधक और समग्र धर्मों का आधार बताया है-

प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम्।
आश्रयः सर्वधर्माणां विद्योद्देशे प्रकीर्तिता ॥ (न्यायभाष्य , सूत्र १)

न्याय के प्रवर्तक गौतम ऋषि कहे जाते हैं। गौतम के न्यायसूत्र अबतक प्रसिद्ध हैं। इन सूत्रों पर वात्स्यायन मुनि का भाष्य है। इस भाष्य पर उद्योतकर ने वार्तिक लिखा है। वार्तिक की व्याख्या वाचस्पति मिश्र ने 'न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका' के नाम से लिखी है। इस टीका की भी टीका उदयनाचार्य कृत 'ताप्तर्य-परिशुद्धि' है। इस परिशुद्धि पर वर्धमान उपाध्याय कृत 'प्रकाश' है।

न्यायशास्त्र के विकास को तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है - आद्यकाल, मध्यकाल तथा अंत्यकाल (1200 ई. से 1800 ई. तक का काल)। आद्यकाल का न्याय "प्राचीन न्याय", मध्यकाल का न्याय "सांप्रदायिक न्याय" (प्राचीन न्याय की उत्तर शाखा) और अंत्यकाल का न्याय "नव्यन्याय" कहा जाएगा।

विशेष

"न्याय" शब्द से वे शब्दसमूह भी व्यवहृत होते हैं जो दूसरे पुरुष को अनुमान द्वारा किसी विषय का बोध कराने के लिए प्रयुक्त होते है। (देखिये न्याय (दृष्टांत वाक्य)) वात्स्यायन ने उन्हें "परम न्याय" कहा है और वाद, जल्प तथा वितण्डा रूप विचारों का मूल एवं तत्त्वनिर्णय का आधार बताया है। (न्या.भा. 1 सूत्र)

न्यायशास्त्र का प्रयोजन[संपादित करें]

न्यायविद् विद्वानों ने निश्रेयस को न्यायशास्त्र के अध्ययन का प्रयोजन माना है। नि:श्रेयस का अर्थ है- अपवर्ग, मोक्ष अर्थात् सब प्रकार के दु:खों की आत्यंतिक निवृत्ति। ऐसी निवृत्ति जिसके बाद कभी किसी प्रकार के दु:ख होने की संभावना ही नहीं रह जाती। यही मनुष्य के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चतुर्विध पुरुषार्थों में सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ है।

न्यायशास्त्र के अध्ययन से पदार्थों का तत्वज्ञान होता है और उससे आत्मतत्व का साक्षात्कार होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। तत्व साक्षात्कार से मिथ्याज्ञान की निवृत्ति, मिथ्याज्ञान की निवृत्ति से राग, द्वेष और मोह रूपी दोषों की निवृत्ति, दोषों की निवृत्ति से अर्ध एवं अर्ध रूप प्रवृत्ति की निवृत्ति से पुनर्जन्म का अभाव और पुनर्जन्म के अभाव से समस्त दु:खों से आत्यंतिक मुक्ति होती है। जैसा कि गौतम ने कहा है :

दु:ख जन्मप्रवृत्तिदोष मिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनंतरा पायादप वर्ग:। (न्या.सू., अ. 1 आ. 1 सूत्र 2)

जिन पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मोक्ष होता है उनकी संख्या इस शास्त्र में सोलह मानी गई है; उनके नाम ये हैं :

प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान।

न्यायशास्त्र के भेद[संपादित करें]

भारतीय वाङ्मय में न्यायशास्त्र के दो भेद माने जाते हैं- वैदिक न्याय और अवैदिक न्याय। अवैदिक न्याय में बौद्ध न्याय तथा जैन न्याय का समावेश है। वैदिक न्याय में - वैशेषिक न्याय, सांख्य, योग न्याय, पूर्व मीमांसा तथा उत्तर मीमांसा न्याय का समावेश है, किंतु न्यायशास्त्र के नाम से अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र तथा उनके आधार पर निर्मित समस्त प्राचीन अर्वाचीन साहित्य को ही अभिहित किया जाता है।

वैदिक एवं अवैदिक न्याय में अन्तर[संपादित करें]

वैदिक न्याय में वेद को अकाट्य प्रमाण माना जाता है, किंतु भारतवर्ष में ऐसे भी न्यायशास्त्र प्रचलित हैं, जिन्हें "बौद्धन्याय" और "जैनन्याय" शब्द से व्यवहृत किया जाता है। इन न्यायशास्त्रों में वेद के प्रमाणत्व का बड़े अभिनिवेश से खंडन किया है और इनकी अधिकतर मान्यताएँ वैदिक न्याय से अत्यंत विरुद्ध हैं; किंतु यह होने पर भी ये अपने विकास के लिए वैदिक न्याय के निश्चित रूप से अधमर्ण हैं। यद्यपि इन दोनों के साथ चिर संघर्ष के फलस्वरूप वैदिक न्याय का भी पर्याप्त विकास और परिष्कार हुआ है तथापि उसका एक अपना मौलिक रूप भी है जो इनसे नितांत अप्रभावित है, जब कि इन अवैदिक न्यायों के संबंध में ऐसा प्रतीत होता है कि इसकी मौलिकता भी वैदिक न्याय से पूर्ण प्रभावित है। 400 ई. से 1200 ई. तक का काल अवैदिक न्याय के उत्कर्ष का काल माना जाता है।

न्याय का प्रादुर्भाव[संपादित करें]

न्यायशास्त्र का भारतवर्ष में कब प्रादुर्भाव हुआ ठीक नहीं कहा जा सकता। नैयायिकों में जो प्रवाद प्रचलित हैं उनके अनुसार गौतम वेदव्यास के समकालीन ठहरते हैं; पर इसका कोई प्रमाण नहीं है। 'आन्वीक्षिकी', 'तर्कविद्या', 'हेतुवाद' का निदापूर्वक उल्लेख रामायण और महाभारत में मिलता है। रामायण में तो नैयायिक शब्द भी अयोध्याकांड में आया है। पाणिनि ने न्याय से नैयायिक शब्द बनने का निर्देश किया है।

न्याय के प्रादुर्भाव के संबंध में साधारणतः दो प्रकार के मत पाए जाते हैं-

  • कुछ पाश्चात्य विद्वानों की धारणा है कि बौद्ध धर्म का प्रचार होने पर उसके खण्डन के लिये ही इस शास्त्र का अभ्युदय हुआ।
  • पर कुछ भारतीय विद्वानों का मत हे कि वैदिक वाक्यों के परस्पर समन्वय और समाधान के लिये जैमिनि ने पूर्वमीमांसा में जिन युक्तियों और तर्कों का ब्यवहार किया वे ही पहले न्याय के नाम से कहे जाते थे।

आपस्तंब धर्मसूत्र में जो न्याय शब्द आया है उसका पूर्वमीमांसा से ही अभिप्राय समझना चाहिए। माधवाचार्य ने पूर्वमीमांसा का जो सारसंग्रह लिखा उसका नाम 'न्यायमाला-विस्तार' रखा। वाचस्पति मिश्र ने भी 'न्यायकणिका' के नाम से मीमांसा पर एक ग्रंथ लिखा है। पर न्याय के प्राचीनत्व से बंगाल का गौरव समझनेवाले कुछ बंगाली पंडितों का कथन है कि न्याय ही सब दर्शनों में प्राचीन है क्योंकि और सब दर्शनसूत्रों में दूसरे दर्शनों का उल्लेख मिलता है पर न्यायसूत्रों में कहीं किसी दूसरे दर्शन का नाम नहीं आया है। यद्यपि यह नहीं कहा जा सकता कि न्याय सब दर्शनों में प्राचीन है, पर इतना अवश्य कह सकते हैं कि तर्क के नियम बौद्ध धर्म के प्रचार से बहुत पूर्व प्रचलित थे, चाहे वे मीमांसा के रहे हों या स्वतंत्र।

हेमचंद्र ने न्यायसूत्रों पर भाष्य रचनेवाले वात्स्यायन और चाणक्य को एक ही व्यक्ति माना है। यदि यह ठीक हो तो भाष्य ही बौद्ध-धर्म-प्रचार के पूर्व का ठहरता है। क्योंकि बौद्ध धर्म का प्रचार अशोक के समय से और बौद्ध न्याय का आविर्भाव अशोक के भी पीछे महायान शाखा स्थापित होने पर हुआ। पर वात्स्यायन और चाणक्य का एक होना हेमचँद्र के श्लोक (जिसमें चाणक्य के आठ नाम गिनाए गए है) के आधार पर ही ठीक नहीं माना जा सकता। कुछ विद्वानों का कथन है कि वात्स्यायन ईसा की पाँचवीं शताब्दी में हुए। ईसा की छठी शताब्दी में वासवदत्ताकार सुबन्धु ने मल्लनाग, न्यायस्थिति, धर्मकीर्ति और उद्योतकर इन चार नैयायिकों का उल्लेख किया है। इनमें धर्मकीर्ति प्रसिद्ध बौद्ध नैयायिक थे। उद्योतकराचार्य ने प्रसिद्ध बौद्ध नैयायिक दिङ्नागाचार्य के 'प्रमाणसमुच्चय' नामक ग्रंथ का खण्डन करके वात्स्यायन का मत स्थापित किया। 'प्रमाणसमुच्चय' में दिङ्नाग ने वात्स्यायन के मत का खंडन किया था। इससे यह निश्चित है कि वात्स्यायन दिङ्नाग के पूर्व हुए। मल्लिनाथ ने दिङ्नाग को कालिदास का समकालीन बतलाया है, पर कुछ लोग इसे ठीक नहीं मानते और दिङ्नाग का काल ईसा की तीसरी शताब्दी कहते हैं। सुबन्धु के उल्लेख से दिङ्नागाचार्य का ही काल छठी शताब्दी के पूर्व ठहरता है अतः वात्स्यायन को जो उनसे भी पूर्व हुए पाँचवीं शताब्दी में मानना ठीक नहीं। वे उससे पहले हुए होंगे। वात्स्यायन ने दशावयवादी नैयायिकों का उल्लेख किया है, इससे सिद्ध है कि उनके पहले से भाष्यकार नैयायिकों की परम्परा चली आती थी। अस्तु, सूत्रों की रचना का काल बौद्ध धर्म के प्रचार के पूर्व मानना पड़ता है। वैदिक, बौद्ध और जैन नैयायिकों के बीच विवाद ईसा की पाँचवीं शताब्दी से लेकर १३ वीं शताब्दी तक बराबर चलता रहा। इससे खण्डन मण्डन के बहुत से ग्रंथ बने। १४वीं शताब्दी में गंगेशोपाध्याय हुए जिन्होंने 'नव्यन्याय' की नींव डाली।

परिचय[संपादित करें]

गौतम का न्याय केवल प्रमाण, तर्क आदि के नियम निश्चित करनेवाला शास्त्र नहीं है बल्कि आत्मा, इंद्रिय, पुनर्जन्म, दुःख अपवर्ग आदि विशिष्ट प्रमेयों का विचार करनेवाला दर्शन है। गौतम ने सोलह पदार्थों का विचार किया है और उनके सम्यक् ज्ञान द्वारा अपवर्ग या मोक्ष की प्राप्ति कही है। सोलह पदार्थ या विषय ये हैं - प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान। इन विषयों पर विचार किसी मध्यस्थ के सामने बादी प्रतिवादी के कथोपकथन के रूप में कराया गया है।

किसी विषय में विवाद उपस्थित होने पर पहले इसका निर्णय आवश्यक होता है कि दोनों वादियों के कौन कौन प्रमाण माने जायँगे। इससे पहले 'प्रमाण' लिया गया है। इसके उपरान्त विवाद का विषय अर्थात् 'प्रमेय' का विचार हुआ है। विषय सूचित हो जाने पर मध्यस्त के चित्त में संदेह उत्पन्न होगा कि उसका यथार्थ स्वरुप क्या है। उसी का विचार 'संशय' या 'संदेह' पदार्थ के के नाम से हुआ है। संदेह के उपरान्त मध्यस्थ के चित्त में यह विचार हो सकता है कि इस विषय के विचार से क्या मतलब। यही 'प्रयोजन' हुआ। वादी संदिग्ध विषय पर अपना पक्ष दृष्टान्त दिखाकर बदलाता है, वही 'दृष्टान्त' पदार्थ है। जिस पक्ष को वादी पुष्ट करके बतलाता है वह उसका 'सिद्धान्त' हुआ। वादी का पक्ष सूचित होने पर पक्षसाधन की जो जो युक्तियाँ कही गई हैं प्रतिवादी उनके खण्ड खण्ड करके उनके खण्डन में प्रवृत्त होता है। युक्तियों की खंडित देख वादी फिर से और युक्तियाँ देता है जिनसे प्रतिवादी की युक्तियों का उत्तर हो जाता है। यही 'तर्क' कहा गया है। तर्क द्वारा पंचावयवयुक्त युक्तियों का कथन 'वाद' कहा गया है। वाद या शास्त्रार्थ द्वारा स्थिर सत्य पक्ष को न मानकर यदि प्रतिवादी जीत की इच्छा से अपनी चतुराई के बल से व्यर्थ उत्तर प्रत्युत्तर करता चला जाता है तो वह 'जल्प' कहलाता है। इस प्रकार प्रतिवादी कुछ काल तक तो कुछ अच्छी युक्तियाँ देता जायगा फिर ऊटपटाँग बकने लगेगा जिसे 'वितण्डा' कहते हैं। इस वितण्डा में जितने हेतु दिए जायँगे वे ठीक न होंगे, वे 'हेत्वाभास' मात्र होंगे। उन हेतुओं और युक्तियों के अतिरिक्त जान बूझकर वादी को घबराने के लिये उसके वाक्यों का ऊटपटाँग अर्थ करके यदि प्रतिवादी गड़बड़ डालना चाहता है तो वह उसका 'छल' कहलाता है और यदि व्याप्तिनिरपेक्ष साधर्म्य वैधर्म्य आदि के सहारे अपना पक्ष स्थापित करने लगता है तो वह 'जाति' में आ जाता है। इस प्रकार होते होते जब शास्त्रार्थ में यह अवस्था आ जाती है कि अब प्रतिवादी को रोककर शास्त्रार्थ बन्द किया जाय तब 'निग्रहस्थान' कहा जाता है।

न्याय का मुख्य विषय है प्रमाण । 'प्रमा' नाम है यथार्थ ज्ञान का । यथार्थ ज्ञान का जो करण हो अर्थात् जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान हो उसे प्रमाण कहते हैं। विभिन्न दर्शनों में प्रमाणों की संख्या अलग-अलग है। गौतम ने चार प्रमाण माने हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द ।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]