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नेहरु-लियाक़त समझौता

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नेहरु-लियाकत समझौता
भारत सरकार और पाकिस्तान के बीच अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और अधिकारों के सम्बन्ध में समझौता
संधि का प्रकार अधिकारों की रक्षा करने को लेकर आपसी समझ
मसौदा 2 अप्रैल 1950
हस्ताक्षरित
- स्थान
8 अप्रैल 1950; 75 वर्ष पूर्व (1950-04-08)
नई दिल्ली, भारत
समाप्ति 8 अप्रैल 1956 (1956-04-08)
हस्ताक्षरी जवाहरलाल नेहरु
(भारत के प्रधानमन्त्री)
लियाकत अली खान
(पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री)
पार्टियां  भारत
 पाकिस्तान
भाषाएं हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी

नेहरु-लियाकत समझौता (या दिल्ली पैक्ट ) भारत के विभाजन[1] के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच हुई एक द्विपक्षीय सन्धि थी। इस समझौते के अन्तर्गत :

  1. शरणार्थी अपनी सम्पत्ति का निपटान करने के लिए भारत-पाकिस्तान आ जा सकते थे।
  2. अपहरण की गयी महिलाओं और लूटी गयी सम्पत्ति को वापस किया जाना था।
  3. बलपूर्वक मतान्तरण को मान्यता नहीं दी गयी थी।
  4. दोनों देशों ने अपने-अपने देश में अल्पसंख्यक आयोग गठित किये।[2]

सन्धि पर नई दिल्ली में भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के प्रधान मंत्री लियाक़त अली ख़ान के द्वारा 8 अप्रैल, 1950 को हस्ताक्षर किए गए। यह सन्धि भारत के विभाजन के बाद दोनों देशों में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की गारण्टी देने और उनके बीच एक और युद्ध को रोकने के लिए की गई छह दिनों की वार्ता का परिणाम थी।

दोनों देशों में अल्पसंख्यक आयोग गठित किये गये। भारत में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश ) से पश्चिम बंगाल में दस लाख से अधिक शरणार्थी पलायन कर पहुँचे।

नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, २०१९ को पारित करने से पहले हुई लोक सभा बहस में (नागरिकता संशोधन) विधेयक को सही ठहराते हुए गृह मन्त्री अमित शाह ने इस समझौते का उल्लेख किया। उन्होंने नेहरू-लियाकत समझौते को इस संशोधन की वजह बताते हुए कहा, यदि पाकिस्तान द्वारा सन्धि का पालन किया गया होता, तो इस विधेयक को लाने की कोई आवश्यकता नहीं होती।[2]

दिल्ली पैक्ट के नाम से भी मशहूर इस समझौते का विरोध करते हुए नेहरू सरकार में उद्योगमंत्री रहे डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने इस्तीफा दे दिया था। मुखर्जी तब हिंदू महासभा के नेता थे। उन्होंने समझौते को मुस्लिम तुष्टिकरण करने वाला बताया था।

नेहरू-लियाकत समझौते ने अपने घोषित उद्देश्यों को हासिल किया या नहीं, यह बहस का विषय बना हुआ है। हालांकि, नेहरू-लियाकत समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद महीनों तक पूर्वी पाकिस्तान के हिंदुओं का पलायन भारत के पश्चिम बंगाल में जारी रहा।

1966 में बहस[2]

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अगस्त 1966 में, भारतीय जनसंघ के नेता निरंजन वर्मा ने तत्कालीन विदेश मंत्री सरदार स्वर्ण सिंह से तीन प्रश्न पूछे।

पहला सवाल: नेहरू-लियाकत समझौते की वर्तमान स्थिति क्या है?

दूसरा सवाल: क्या दोनों देश अभी भी समझौते की शतरें के अनुसार कार्य कर रहे हैं?

तीसरा सवाल: वह साल कौन सा है, जब से पाकिस्तान समझौते का उल्लघंन कर रहा है?

स्वर्ण सिंह ने अपने जवाब में कहा, 1950 का नेहरू-लियाकत समझौता भारत और पाकिस्तान के बीच एक स्थायी समझौता है। दोनों देशों को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि अल्पसंख्यकों को भी नागरिकता के समान अधिकार प्राप्त हों।

दूसरे सवाल पर, स्वर्ण सिंह ने जवाब दिया, हालांकि भारत में, अल्पसंख्यकों के अधिकारों और सुरक्षा को लगातार और प्रभावी रूप से संरक्षित किया गया है, पाकिस्तान ने अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों की लगातार उपेक्षा और उत्पीड़न करके समझौते का लगातार उल्लंघन किया है।

तीसरे प्रश्न का उत्तर नेहरू-लियाकत समझौते की विफलता के बारे में अमित शाह द्वारा किए गए दावे को परिलक्षित करता है। स्वर्ण सिंह ने कहा, इस तरह के उल्लंघनों के उदाहरण समझौते होने के तुरंत बाद ही सामने आने लगे थे।

2019 में गृह मंत्री का बयान[2]

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नागरिकता संशोधन विधेयक का बचाव करते हुए, अमित शाह ने दोहराया कि पाकिस्तान और बांग्लादेश विभाजन के बाद धार्मिक अल्पसंख्यकों की रक्षा करने में विफल रहे। उन्होंने कहा, मोदी सरकार इस ऐतिहासिक गलती को सही कर रही है।

यह भी देखें

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  1. Bipan C, Mridula M, Aditya M. India Since Independence. ISBN 8184750536.
  2. "जानिए क्‍या था नेहरू-लियाकत समझौता, जिसकी विफलता का परिणाम है नागरिकता कानून". Archived from the original on 12 दिसंबर 2019. {{cite news}}: Check date values in: |archive-date= (help)

बाहरी कड़ियाँ

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