निर्भरता का सिद्धान्त

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अंतरराष्ट्रीय राजनीति में नैर्भर्य सिद्धान्त यह है कि संसाधन, निर्धन एवं अल्पविकसित देशों के परिधि से धनी देशों के केन्द्र की ओर प्रवाहित होते हैं और निर्धन देशों को और गरीब करते हुए धनी देशों को और धनी बनाते हैं। नैर्भर्य सिद्धान्त इस मूल मान्यता पर आधारित है कि राजनैतिक एवं आर्थिक कारकों के बीच एक गहन सम्बन्ध होता है। ये दोनों कारक परस्पर प्रभावित करते हैं तथा काफी हद तक आर्थिक कारकों के आधार पर राजनीति में महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिलते हैं।

नैर्भर्य सिद्धान्त मूल रूप से मार्क्सवाद से प्रभावित रहा है। मार्क्सवाद के साथ-साथ होबसनलेनिन के साम्राज्यवाद की अवधारणा ने इसे और शक्तिशाली बना दिया है। परन्तु चुंकी मार्क्सवादी 'राज्य' के अस्तित्व को नहीं मानते इसीलिए इसे 'नव-मार्क्सवादी' अवधारणा मानना अधिक तर्कसंगत होगा। वैसे तो यह अवधारणा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में 1950 के दशक से विद्यमान है, परन्तु 1970 के दशक से ज्यादा महत्वपूर्ण बन गई है। इस काल के अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन हेतु राजनीतिक-आर्थिक तत्वों में सम्बन्ध पर अधिक बल दिया जाने लगा है।

इस सिद्धान्त के मुख्य समर्थकों में फ्रांसेस सांडर्स, स्टुअर्ट हालैंड और ंंपांल बरान, पॉल स्वीजी, हेरी मैडगाफ, एंड्रि गुंडर फैंक, अग्रहीरी इमेनुअल, समीर अमीन, इमेनुअल वालरस्टेन आदि प्रमुख हैं।

परिचय[संपादित करें]

1970 के दशक के बाद यह सिद्धान्त बहुत महत्वपूर्ण बन गया। निम्नलिखित कारणों से इस सिद्धान्त की चर्चा पर अधिक बल दिया जाने लगा-

  • 1. सर्वप्रथम, अंतरराष्ट्रीय राजनीति में आये विभिन्न बदलावों के परिणामस्वरूप इस सिद्धान्त को अधिक महत्व मिला। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद राष्ट्रों के मध्य संबंधों का मुख्य आधार परस्पर अन्तः निर्भरता रहा। धीरे-धीरे यह अंतर्निर्भरता उनके (विशेषकर तीसरी दुनिया के राष्ट्रों की) अस्तित्व का प्रश्न बन गया। परन्तु इसके साथ-साथ विकास का दौर भी जारी रहा। लेकिन यह विकास आर्थिक रूप से समान नहीं रहा। अतः एक दूसरे पर निर्भरता और अधिक उजागर होने लगी तथा इनके प्रभावों के आंकलन की प्रक्रिया में निर्भरता के सिद्धान्त का जन्म हुआ।
  • 2. द्वितीय, द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् एशिया, अफ्रीकादक्षिणी अमेरिका के बहुत से राज्य स्वतन्त्र हुए। स्वतन्त्रता के उपरान्त इन राज्यों को राष्ट्र निर्माण की बहुत सी समस्याओं से जूझना पड़ा। तब इन नव-स्वतन्त्र राष्ट्रों को अनुभव हुआ कि राजनैतिक स्वतन्त्रता के बाद भी ये राज्य वास्तव में आजाद नहीं है। बहुत से आर्थिक मुद्दों पर ये आज भी अपने ऐतिहासिक सन्दर्भों से जुड़े हुए हैं। इसके अतिरिक्त, प्राचीन दृष्टिकोणों के माध्यम से उनकी इन समस्याओं का अध्ययन करना भी सम्भव नहीं रहा था। अतः एक नये दृष्टिकोण की आवश्यकता महसूस होने लगी जो राजनैतिक-आर्थिक व्यवस्थाओं के संबंधों के अनुरूप इनकी समस्याओं का अध्ययन कर सके।
  • 3. तृतीय, स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद दक्षिणी अमेरिकी देशों में से ज्यादातर अपना प्रशासन सुचारू रूप से नहीं चला सके तथा वहां पर अराजकता, राजनैतिक अस्थिरता, प्रशासनिक विफलता आदि सामान्य बात हो गई। इससे एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठा कि क्यों इन राष्ट्रों का विकास नहीं हो पा रहा है? किन कारणों से यहां अशांति एवं विफलताएं फैली हुई हैं? इनके कारणों के जांच के बिना इनका समाधान सम्भव नहीं था। और इस जांच हेतु यह पाया गया कि इसमें आर्थिक व राजनैतिक तत्वों के संबंध की जानकारी अति महत्वपूर्ण रहेगी।
  • 4. अन्ततः, 1970 के दशक तक आते-आते ज्यादातर तीसरी दुनिया के देश 'स्वतन्त्र राष्ट्रों' की श्रेणी में आ चुके थे। अब उनके राज्यों में राजनैतिक व प्रशासनिक गतिविधियां पूर्ण हो चुकी थी। परन्तु उन राष्ट्रों के समक्ष मुख्य चुनौतियों के रूप में राष्ट्र निर्माण, व्यापार, आर्थिक विकास, औद्योगिक विकास आदि की बहुत सी समस्याएं उपलब्ध थी। इन सभी कारणों से अब राजनैतिक की बजाए आर्थिक विषय अत्यन्त महत्वपूर्ण होते चले गये। इसलिए बढ़ते हुए आर्थिक महत्व के परिणामस्वरूप निर्भरता का सिद्धान्त अत्यन्त महत्वपूर्ण बन गया।

विश्लेषण[संपादित करें]

इस सिद्धान्त को परिभाषित करना अति कठिन है, क्योंकि अलग-अलग लेखकों ने विभिन्न प्रकार से इसकी व्याख्या प्रस्तुत करने की कोशिश की है। मुख्य रूप से विभिन्न विद्वानों का मानना है कि -

  • प्रथम, निर्भरता एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से परिधि वाले राष्ट्रों को अंतरराष्ट्रीय पूंजीवादी प्रणाली में संगठित करने का प्रयास किया जाता है।
  • द्वितीय, इस प्रक्रिया के माध्यम से राष्ट्रों के संरचनात्मक स्थिति में परिवर्तन से उनके समाजों में विकृतियां पैदा होती हैं।

इस सिद्धान्त को विश्लेषण की सुविधा हेतु दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-

  • (१) निर्भरता पर आधारित
  • (२) विश्व प्रणाली सिद्धान्त

निर्भरता पर आधारित विश्लेषण[संपादित करें]

बहुत से विद्वानों ने इस सिद्धान्त को ‘केन्द्र’ व ‘परिधि’ के राष्ट्रों के मध्य हुई आर्थिक व राजनैतिक अन्तःक्रियाओं के रूप में देखा है। मूल रूप में उनकी सोच में विशेष अन्तर नहीं दिखाई पड़ता, परन्तु किसी कारक विशेष को अधिक व कम महत्व की दृष्टि से उन्हें तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है जिसका विवरण इस प्रकार से है -

संरचनात्मक स्कूल[संपादित करें]

इस वर्ग के अग्रणी लेखक के रूप में राऊल प्रबीसिच का नाम लिया जा सकता है जो संयुक्त राष्ट्र के दक्षिणी अमेरिकी आर्थिक आयोग के अध्यक्ष रहे। इसके साथ-साथ फुरटाडो व शंकल को भी इसी वर्ग में शामिल माना जा सकता है।

इस विचार के समर्थक विद्वान अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को केन्द्र व परिधि के राज्यों में बंटा हुआ मानते हैं। उनके अनुसार उत्पादन के परम्परागत तरीकों से केन्द्र के राष्ट्रों के पास अत्याधिक सम्पदा इकट्ठी हो गई है। इसीलिए उन विद्वानों का मानना है कि विकास व गैर विकास या अविकसित को अलग नहीं किया जा सकता, बल्कि ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसके अतिरिक्त, न ही आज आन्तरिक व बाह्य कारकों के बीच अन्तर रखा जा सकता है, बल्कि दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसीलिए लैटिन अमेरिकी देशों के आधारभूत औद्योगिक विकास के बाद ही उनको औपनिवेशिक व साम्राज्यवादी बन्धनों से मुक्ति मिल सकती है।

परन्तु इस वर्ग के विचारकों की उदारवादी एवं प्रगतिशील दोनों ही ने आलोचना की है। उदारवादियों का कहना है कि ये व्यापार चक्र के आर्थिक विकास प्रक्रिया पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन नहीं करते। जबकि प्रगतिशील विद्वानों का आरोप यह है कि संरचनात्मक स्कूल से जुड़े लोग शोषण के बारे में उचित व सही अध्ययन करने में असक्षम रहे हैं। इसके अतिरिक्त, ये विद्वान इस बात को भी नजर अन्दाज कर देते हैं कि परिधि वाले राष्ट्रों में विकास केन्द्र के राष्ट्रों द्वारा तकनीकों के विश्वीकरण के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

अविकसितता का विकास[संपादित करें]

इस मत से जुड़े लोगों में प्रमुख हैं एंड्रिगुंडर फ्रैंक, पाल बरान, समीन अमीन आदि। ये विद्वान विश्व व्यवस्था को 'महानगरों' व 'उपग्रहों' के रूप मे विभाजित मानते हैं। फैंक का मानना है कि पूंजीवाद के माध्यम से हमेशा ‘उपग्रहों’ वाले राज्यों में 'गैर-विकास का विकास' होता है। महानगरों वाले राष्ट्र अपने अतिरिक्त पूंजी के लाभांश से इन्हें और अविकसित बना देते हैं। उपग्रहों वाले राज्यों में 'अविकसितता का विकास' (Development of Underdevelopment) एक सम्पूर्ण ऐतिहासिक प्रक्रिया का ही हिस्सा है, अपने आप में कोई स्वतन्त्र गतिविधि नहीं है। इसीलिए जब-जब इन उपग्रह वाले राष्ट्रों का महानगरों वाले राष्ट्रों के कमजोर बन्धन रहा है इन्होंने अपनी विकास दर को बढ़ाया है तथा जब जब ये उनसे अधिक जुड़े रहे हैं यह प्रक्रिया विपरीत रही है। इसीलिए किसी राष्ट्र में पिछड़ेपन का विकास पूंजीवादी व्यवस्था में उस राज्य के पदसोपान के आधार पर अध्ययन की जा सकती है। इसके अतिरिक्त, इसका उस समाज में स्थापित आर्थिक ढांचों के आधार पर भी मूल्यांकन किया जा सकता है।

इस मत की भी दो आधारों पर आलोचनाएं की गई हैं - प्रथम, पूंजी की उपलब्धता व पूंजीवाद दो अलग-अलग बिन्दु हैं सो उन्हें एक नहीं मानना चाहिए। द्वितीय, इस सिद्धान्त के आधार पर पूर्ण रूप से यह स्थापित नहीं किया जा सकता कि विकास से किस प्रकार लैटिन अमेरिकी देशों में पिछड़ेपन का विकास हुआ है।

निर्भरता-विकास स्कूल (partial development or dependent development school)[संपादित करें]

तीसरा वर्ग उन विचारकों का है जो निर्भरता व विकास के संबंधों को जुड़ा मानते हैं। इनमें से प्रमुख विचारक हैं - कारडोसों, फालेटो व ओसवाल्डो शंकल। इनका मानना है कि ऐतिहासिक-संरचनात्मक दृष्टि से दक्षिणी अमेरिकी देशों में पूंजी निवेश के संदर्भ में मूलभूत परिवर्तन आये हैं। उनका मानना है कि पूंजी निवेश कृषि या कच्चा माल के उत्पाद की बजाय तैयारशुदा माल में लगाया गया है तथा इसके जुड़े संयुक्त उद्यमों में स्थानीय व बाह्य पूंजीनिवेशकों में सहयोग रहा है। इसीलिए निर्भरता, पूंजीवाद वर्चस्व व विकास विरोधाभाषपूर्ण न होकर तीसरी दुनिया के देशों में एक संग्रहित वर्चस्व स्थापित करने की स्थिति रही है। इसीलिए उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पाद को बढ़ा कर तीसरी दुनिया के देशों के शहरी आबादी की आवश्यकता की पूर्ति बाह्य बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा की गई है। इसीलिए इन समाजों की संरचनात्मक व्यवस्था में बिखराव पैदा कर दिया गया है। इसीलिए इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने तीसरी दुनिया के देशों में निर्भरता से जुड़े विकास की स्थिति पैदा कर दी है।

यद्यपि इस वर्ग के विचारकों ने एक पूर्व निर्धारित व्याख्या से अलग हटकर नई व्याख्या दी है, परन्तु इससे वर्ग के सिद्धान्त को एक मूल ईकाई के रूप में उचित प्रयोग नहीं किया जा सका।

उपरोक्त तीनों वर्गों में विचारों में कहीं-कहीं भिन्नता भी देखने को मिलती है तथा परम्परागत मार्क्सवाद से भी कई संदर्भों में अलग है। परन्तु यह सत्य है कि इन सभी के अनुसार आर्थिक विकास की दृष्टि से ‘परिधि’ वाले राष्ट्र आज भी महानगरीय केन्द्रों पर निर्भर हैं। इसी कारण से शायद महानगरों मे 'विकास का विकास' तथा परिधि राष्ट्रों में 'अविकास का विकास' हो रहा है।

विश्व प्रणाली सिद्धान्त[संपादित करें]

निर्भरता सिद्धान्त के ही अन्य रूप को विश्व-प्रणाली सिद्धान्त के अंतर्गत भी अध्ययन किया गया है। यद्यपि कुछ विचारक इन दोनों को अलग मानते हैं, परन्तु दोनों की मूल मान्यताओं में कोई अन्तर नहीं है। अन्तर केवल व्याख्या को लेकर है। अतः इसे निर्भरता के ही एक रूप के अंतर्गत स्वीकारना ज्यादा उचित है।

विश्व प्रणाली सिद्धान्त के प्रमुख प्रणेता इमेनुअल वालरस्टेन को कहा जा सकता है जिन्होंने अपनी पुस्तक द मॉडर्न वर्ल्ड सिस्टम में इसका विस्तृत उल्लेख किया है। वालरस्टेन का मानना है कि इतिहास में दो प्रकार की विश्व प्रणालियां पाई जाती हैं - ‘विश्व साम्राज्य’ व ‘विश्व अर्थव्यवस्था’। दोनों में मुख्य अन्तर यह है कि संसाधनों के बंटवारे के बारे में किस प्रकार से निर्णय लिए जाते हैं। उनका मानना है कि ‘विश्व साम्राज्य’ व्यवस्था में शक्ति का प्रयोग 'परिधि राज्यों' से 'केन्द्र राज्यों' की ओर संसाधनों का बंटवारा किया जाता है। इसके विपरीत विश्व अर्थव्यवस्था प्रणाली में एक केन्द्रीयकृत राजनीतिक ढांचे का अभाव होता है। अतः कानून के द्वारा संसाधन का बंटवारा किए जाने की बजाए बाजार के माध्यम से इसे सम्पन्न किया जाता है। इस प्रकार यद्धपि संसाधनों के बंटवारे के सम्बन्ध में दोनों के तरीके भिन्न हैं परन्तु दोनों का ही कुल परिणाम एक समान है। वह है परिधी वाले राष्ट्रों से केन्द्रीय राज्यों की ओर संसाधनों का हस्तांतरण हो रहा है।

वालरस्टेन के अनुसार 'केन्द्र राष्ट्रों' की विशेषता है - प्रजातांत्रिक सरकारें, उच्च वेतन, कच्चे माल का आयात, तैयारशुदा माल का निर्यात, उच्च पूंजी निवेश, कल्याणकारी सेवाएं आदि। ठीक इसके विपरीत 'परिधि वाले राष्ट्रों' की विशेषताएं हैं - गैर-प्रजातान्त्रिक सरकार पद्धति, कच्चे माल का निर्यात, तैयार माल की आयात, निम्नस्तरीय वेतन, कल्याणकारी सेवाओं का अभाव। परन्तु वालरस्टेन निर्भरतावादियों से थोड़ा भिन्न हैं। वे केन्द्र व परिधि के इलावा राष्ट्रों की एक तृतीय श्रेणी 'सम परिधि' भी मानते हैं। इस प्रकार के राष्ट्रों की विशेषताएं हैं - सत्तात्मक सरकारें, कच्चे व तैयार माल का निर्यात, तैयार माल व कच्चे माल का आयात, कम वेतनमान, निम्न स्तरीय कल्याणकारी सेवाएं आदि।

वालरस्टेन का भी मानना है कि ये तीनों श्रेणी के राष्ट्र आपस में उत्पादन के शोषणात्मक तरीकों से जुड़े हुए हैं जिसके माध्यम से सम्पदा का हस्तांतरण परिधि के केन्द्र वाले राज्यों की तरफ हो रहा है। इसका मानना है कि क्रमिक उतार-चढ़ाव, धर्मनिरपेक्ष पद्धति एवं विरोधाभासों के कारण विश्व प्रणाली में संकट आते हैं। इन्हीं संकटों के कारण नई विश्व व्यवस्था का जन्म होता है।

वालरस्टेन के विश्व प्रणाली सिद्धान्त की मार्क्सवादियों एवं गैर-मार्क्सवादियों दोनों ही ने आलोचनाएं की है। कुछ लेखकों जैसे चेज व पून का मानना है कि वालरस्टेन ने इसे केवल आर्थिक कारकों तक ही सीमित कर दिया, जबकि अन्य कारकों की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। द्वितीय, फ्रैंक व गिल का मानना है कि वालरस्टेन ने इस सारे प्रकरण को यूरोप केन्द्रित बना कर रख दिया जिसके उत्पत्ति मध्ययुगीन यूरोप से मानी जाती है। परन्तु यदि गहन अध्ययन किया जाए तो वर्तमान विश्व प्रणाली की जड़ें मध्ययुगीन यूरोप से कहीं अधिक मजबूत हैं।

निर्भरता के सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएं[संपादित करें]

उपरोक्त दोनों ही अवस्थाओं में अध्ययन के पश्चात् हम कह सकते हैं कि निर्भरता के सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं -

  • (१) सर्वप्रथम अधिकतर विद्वानों का मानना है कि वर्तमान संदर्भ में राज्यों की उत्पत्ति का प्रमुख कारण पूंजीवाद का विकास है। इसी पूंजी के विकास के कारण अंतरराष्ट्रीय अन्तः क्रियाओं का आरम्भ माना जा सकता है। राज्यों के बीच संसाधनों को लेकर संघर्ष तथा केन्द्र वाले राज्यों का परिधि वाले राज्यों के साथ शोषण युक्त संबंधों का मूल कारण पूंजीवाद का विकास ही माना जा सकता है।
  • (२) अधिकतर विद्वानों का मत है पूंजी व उत्पादन के संबंधों की दृष्टि से विश्व दो भागों या तीन (वालरस्टेन) भागों में बंटा हुआ है। ये तीनों भाग हैं - केन्द्र, परिधि व सम-परिधि (semi-periphery) वाले राष्ट्र। इन राष्ट्रों को मूल रूप में देखें तो विकसित या पिछड़े राष्ट्रों की श्रेणी में रख सकते हैं। इसके अतिरिक्त, वालरस्टेन के सम-परिधि वाले राष्ट्रों को दोनों का मिश्रण (दोनों के बीच का) या विकासोन्मुख राष्ट्र कहा जा सकता हैं
  • (३) यदि केन्द्र व परिधि वाले राष्ट्रों की तुलना करें तो दोनों की गतिविधियां एक दूसरे के विरोधी पाई जाती हैं केन्द्र वाले राज्य मुख्य रूप से विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में आते हैं अतः मूलतः प्रजातान्त्रिक पद्धति के साथ साथ जनसाधारण का रहन सहन का स्तर उच्च दर्जे का है। यहां पर आयात मुख्य रूप से कच्चा माल किया जाता है तथा तैयारशुदा माल निर्यात होता है। यहां कल्याणकारी सेवाएं उपलब्ध कराई जाती हैं। इसके विपरीत परिधि वाले राष्ट्र मुख्यतः विकासशील या पिछड़े राज्यों की श्रेणी में आते हैं। यहां पर ज्यादातर देशों में सरकारें निरंकुश व तानाशाही पर आधारित होती हैं। ये मुख्यतः अपना कच्चा माल निर्यात कर विकसित राष्ट्रों से तैयार माल आयात करते हैं। इनके यहां सार्वजनिक व कल्याणकारी सेवाओं का अभाव भी मिलता है। इस प्रकार दोनों की स्थित एक-दूसरे के विपरीत पाई जाती है।
  • (४) दोनों वर्गों के देशों में अतिरिक्त मूल्य की उपलब्धता में भी बड़ा अन्तर देखने को मिलता है। जहां तक केन्द्र वाले राज्य हैं वहां तकनीकि व औद्योगिक विकास होने के कारण उत्पादकता अधिक होती है। इसके साथ-साथ लागत कम होने से अतिरिक्त मूल्य काफी मात्रा में पाया जाता है। दूसरी ओर विकासशील देश औद्योगिक व तकनीकी दोनों की दृष्टियों से पिछड़े होने के कारण अतिरिक्त मूल्य अर्जित करने में सक्षम नहीं होते। अतः विकसित राष्ट्र ही बाह्य देशों में पूंजीनिवेश या वर्चस्व बनाने की सोच सकते हैं, विकासशील राष्ट्रों का तो मात्र शोषण ही होता है।
  • (५) इस सिद्धान्त के समर्थकों का मत है कि ज्यादातर विकासशील देश राजनैतिक रूप से तो स्वतन्त्र हैं लेकिन आर्थिकरूप से अभी भी वे अपने केन्द्रों (औपनिवेशिक ताकतों) से जुड़े हुए हैं। इस कारण से वे राष्ट्र सैद्धान्तिक रूप से तो आजाद है, परन्तु व्यवहारिक रूप से ऐसा नहीं है। अपनी आर्थिक निर्भरता के कारण वे अभी भी ‘केन्द्र’ सम्बन्धित राष्ट्रों की ओर ही देखते हैं।
  • (६) यदि केन्द्र व परिधि वाले राज्यों के आर्थिक उत्पादन की दिशा देखें तब दोनों प्रकार के राष्ट्रों की स्थिति बड़ी ही विरोधाभासपूर्ण प्रतीत होती है। जहां तक केन्द्र वाले राज्यों का प्रश्न है वहां पर एड्री गुंडर फ्रैंक की भाषा में ”विकास का और विकास“ हो रहा है। जबकि परिधि वाले राष्ट्रों की स्थिति बिल्कुल ठीक इसके विपरीत है। इन देशों में ”अविकास या पिछड़ेपन का और विकास“ हो रहा है। अर्थात् जहां पर केन्द्र वाले राज्य उन्नति की ओर अत्याधिक अग्रसर हैं, वहीं परिधि वाले राष्ट्र अवनति या पतन की ओर अधिक अग्रसर हैं।
  • (७) इस सिद्धान्त के समर्थकों का मानना है कि केन्द्र व परिधि वाले राष्ट्रों के मध्य शोषण का रिश्ता होता है (केन्द्र वाले राज्य अलग-अलग तरीकों के माध्यम से परिधि वाले राज्यों के संसाधनों का हस्तांतरण कर अपना विकास करते रहते हैं। यह संबंध ऐतिहासिक काल में ही नहीं, अपितु वर्तमान समय में भी बदले हुए रूप में जारी है। वर्तमान समय में ये राष्ट्र बहुराष्ट्रीय या राष्ट्रोपरि कम्पनियों के माध्यम से इनके संसाधनों का निरंतर हस्तांतरण अपने पक्ष में करते रहते हैं। इन राष्ट्रों की राजनैतिक आजादी के बाद आज तक इस प्रकार का शोषण बदले हुए स्वरूप में जारी है।
  • (८) केन्द्र व परिधि वाले राष्ट्रों के मध्य नवीन आर्थिक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप राज्यों की स्थिति व स्वरूप बदल गए हैं। नवीन शक्ति समीकरण बन गये हैं जिसके अंतर्गत केन्द्र के राज्य अत्याधिक पूंजी के विकास के कारण शक्तिशाली राष्ट्र बन गए हैं। परन्तु परिधि के राष्ट्रों के पास साधनों का अभाव है इसीलिए मात्र छोटे राज्यों की श्रेणी में आ गए हैं दोनों राष्ट्रों के बीच राजनैतिक व आर्थिक विभिन्नता के साथ-साथ शक्तिशाली व कमजोर राष्ट्रों का बंधन स्थापित हो गया है।
  • (९) इन बदली हुई परिस्थितियों के कारण अब विश्व व्यवस्था का शक्ति संतुलन भी केन्द्र वाले राष्ट्रों के हाथ में आ गया है। वे राष्ट्र अब अपनी शक्ति के विस्तार व प्रदर्शन हेतु मूलतः दो प्रकार की नीतियों का अनुसरण करते हैं। प्रथम, ये राष्ट्र परस्पर शक्ति संतुलन का सिद्धान्त लागू करते हैं। इसके माध्यम से ये सतत् रूप से शक्ति के बढ़ाने व संतुलन बनाने में लगे रहते हैं। द्वितीय, आपसी संतुलन के बावजूद इन शक्तिशाली राष्ट्रों का अन्तिम उद्देश्य अपना वर्चस्व या सर्वाधिकार स्थापित करना रहता है। इन्हीं दोनों नीतियों के कारण वे शक्तिशाली होकर भी हमेशा यथास्थिति बनाए रखने में संघर्षरत रहते हैं।
  • (१०) इन दोनों प्रकार के राष्ट्रों के संबंध मात्र राजनैतिक एवं आर्थिक स्थिति तक ही सीमित नहीं हैं। केन्द्र वाले राज्यों द्वारा परिधि के राष्ट्रों का शोषण करने की प्रक्रिया में मजदूरों का सम्मिलित होना भी अनिवार्य हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप इन राष्ट्रों के मध्य रंगभेद की विचारधारा का जन्म भी हो गया है। जातीय या चमड़ी के रंग को लेकर भी अब विकसित देश अपने को श्रेष्ठ एवं विकासशील राष्टों को हेय मानने लगे हैं। अतः राजनैतिक व आर्थिक के साथ-साथ सांस्कृतिक दृष्टि से भी इन राष्ट्रों के बीच की खाई और गहरा गई है।

आलोचनाएँ[संपादित करें]

निर्भरता के सिद्धान्त की निम्नलिखित प्रमुख आधारों पर आलोचनाएं की गई हैं-

  • (१) सभी विद्वानों इस सिद्धान्त के अंतर्गत केन्द्र व परिधि को एक संगठित स्वरूप प्रदान करते हैं। परन्तु इस प्रकार की मान्यता बिल्कुल गलत है। दोनों श्रेणियों के राष्ट्रों में कितनी भी समानता हो फिर भी पूर्णरूप से सभी राष्ट्रों के मध्य एकरूपता मानकर चलना गलत है। केन्द्र वाले राष्ट्रों एवं परिधि वाले राष्ट्रों में आपसी मतभेद भी व्याप्त है। इन समूहों के आन्तरिक विवादों/मतभेदों को नकारना व्यर्थ है। अतः इस मोटे रूप में विभाजन से इन समूहों के आपसी मतभेदों/समस्याओं का विश्लेषण नहीं हो पाता।
  • (२) इस सिद्धान्त की एक सबसे महत्वपूर्ण कमी इसके पूर्व निर्धारित स्वरूप की है। इसमें पूंजीवाद को ही एकमात्र राष्ट्रों के शोषण का कारण माना है। अतः सिद्धान्त की सारी प्रक्रिया को मात्र एक तत्व में समेट कर रख दिया है। यह सत्य है कि केन्द्र व परिधि वाले राष्ट्रों के मध्य आर्थिक संबंध एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि सिर्फ यही एक मात्र कारण नहीं है। अन्य कारक भी काफी हद तक इन राष्ट्रों के स्वरूप में परिवर्तन हेतु उत्तरदायी हैं।
  • (३) इस सिद्धान्त के आधार पर विश्व प्रणाली की पद सोपान के बारे में तो बताया गया है, परन्तु इसमें परिवर्तन या बदलाव हेतु कुछ नहीं कहा गया। इसका अर्थ यह है कि यह सिद्धान्त मानकर चलता है कि राष्ट्र हमेशा इन दो श्रेणियों में ही बंटे रहेंगे। इसके अतिरिक्त राष्ट्रों को इसी स्वरूप में अनन्त मान लिया गया है तथा यह मानकर चला गया है कि यह निरन्तरता जारी रहेगी। परन्तु वास्तविकता इसके बिल्कुल भिन्न है। विश्व परिवर्तनशील व गतिमान है। अतः इस सिद्धान्त को विश्व प्रणाली में बदलाव के तरीकों एवं इसके परिवर्तित स्वरूप की स्थिति के बारे में कुछ आंकलन अवश्य करना चाहिए था।
  • (४) इस सिद्धान्त के आधार पर माना गया है कि परिधि वाले विकासशील देशों को पूंजीवाद का लाभांश नहीं मिला तथा वे विकास प्रक्रिया से वंचित रहे हैं। परन्तु ऐसी सम्पूर्ण तीसरी दुनिया के देशों में नहीं हुआ। पूर्व एशिया व दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में पूंजीवाद से अत्यन्त लाभ कमाया है। तथा 1997 से पूर्व दक्षिणपूर्वी एशियाई देशों को पूंजीगत विकास में एशियाई टाईगर माना जाता रहा है। इसी प्रकार कुछ अन्य तीसरी दुनिया के देश भी मध्य दर्जे की अर्थव्यवस्था व शक्ति के रूप में उभर कर सामने आये हैं।
  • (५) कुछ आलोचकों का मानना है कि निर्भरता के सिद्धान्त ने विकासशील देशों की व्यवस्थाओं को समझने के बहुत कम प्रयास किए हैं। उन्होंने उनके पिछड़ेपन के कारण का विश्लेषण करने से ज्यादा कम विकसित देशों को एक विचारधारा प्रदान करने की कोशिश की है। इस दृष्टिकोण का मुख्य केन्द्र बिन्दु विकसित राष्ट्र, उनसे सम्बद्ध बहुराष्ट्रीय कम्पनियों एवं राष्ट्रोपरि कम्पनियों की आलोचना रहा है। परन्तु वास्तव में इन कारकों के साथ विकासशील देशों की आन्तरिक कमजोरियों, वहां के नेतृत्व द्वारा की गई फिजूलखर्ची, योजनाओं का गलत प्रारूप एवं लागू करना आदि भी उनकी वर्तमान स्थिति हेतु समान भागीदार रहे हैं।
  • (६) इस दृष्टिकोण पर यह भी आरोप लगाया है कि इसके माध्यम से समस्याओं का अत्याधिक सरलीकरण कर दिया गया है। सैद्धान्तिक रूप से अति आधुनिकतम पद्धतियों व तरीकों की खोज करने की बजाए मोटे तौर पर वृहत निष्कर्ष निकाल कर सैद्धान्तिक बारीकियों की खोज का मार्ग अवरुद्ध किया है। व्यावहारिक स्तर पर समस्याओं की गम्भीरता, गहन विश्लेषण व क्रमबद्ध अध्ययन का स्थान सरलीकरण ने ले लिया है। अतः कई आलोचक इस सिद्धान्त के सैद्धान्तिक एवं व्यवहारिक योगदान को विकासशील राष्ट्रों की समस्याओं के समाधान हेतु महत्वपूर्ण नहीं मानते हैं।

उपयोगिता[संपादित करें]

उपरोक्त आलोचनाओं के बावजूद इस सिद्धान्त की उपयोगिता को भी नकारा नहीं जा सकता जो निम्नलिखित हैं-

  • (१) द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एशिया, अफ्रीका व लैटिन अमेरिका के नव-स्वतन्त्र राष्ट्रों के उदय से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में आधार भूत परिवर्तन आए। उन्हीं परिवर्तनों का आंकलन करने हेतु कई सिद्धान्तों का प्रतिपादन भी हुआ जिनमें से मुख्य रहे - यथार्थवाद, अंतरराष्ट्रीय प्रणाली, खेल, सौदेबाजी, संचार आदि। परन्तु इन सभी सिद्धान्तों ने विश्व व्यवस्था में यथास्थिति का अध्ययन मात्र किया है। इसके अतिरिक्त इन सिद्धान्तों की उत्पत्ति पाश्चात्य विद्वानों के पूर्व निर्धारित मनः स्थिति का प्रतीक भी रही। परन्तु यह पहला सिद्धान्त था जो यथास्थिति की बजाए बदलाव की बात करने लगा। इसके अतिरिक्त, इसके माध्यम से विकासशील राष्ट्रों के शोषण की समस्या पर गहन मंथन किया गया। परिधि वाले राष्ट्रों को केन्द्र बिन्दु मानकर इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया।
  • (२) इस सिद्धान्त से पूर्व सभी सिद्धान्त राजनैतिक ढांचों के अध्ययन पर बल देने वाले रहे हैं। इस सिद्धान्त के माध्यम से पहली बार आर्थिक कारकों के महत्व को केन्द्र बिन्दु माना है। आर्थिक तत्व को महत्वपूर्ण मानने के साथ-साथ इसने राजनैतिक व आर्थिक कारकों के सम्बन्धों एवं उनके प्रभावों का गहन विश्लेषण किया है। पहली बार इस सिद्धान्त के माध्यम से सतही कारणों की बजाए परिधि राष्ट्रों के पिछड़ेपन की समस्या का गहन अध्ययन करने का प्रयास किया। इस सिद्धान्त के माध्यम से विभिन्न श्रेणी के राष्ट्रों के बीच ऐतिहासिक संबंध एवं वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उत्पादन नव-उपनिवेशवाद की समस्याओं को समझने का प्रयास किया गया। अतः यह सिद्धान्त इन नव-स्वतन्त्र राष्ट्रों की स्थिति की सत्यता के अधिक निकट प्रतीत होता है।

अतः निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि निर्भरता के सिद्धान्त के माध्यम से केन्द्र (विकसित) एवं परिधि (विकासशील) राष्ट्रों के संबंधों के माध्यम से विश्व व्यवस्था के परिवर्तित स्वरूप को अध्ययन करने का प्रयास किया गया है। इस सिद्धान्त के माध्यम से वर्तमान व ऐतिहासिक संदर्भों में समन्वय पैदा करने के साथ-साथ पूंजीवाद के परिणामस्वरूप राष्ट्रों के संबंधों को समझने के उचित प्रयास किये गये हैं। यद्यपि विभिन्न विद्वानों के विचारों में भिन्नता अवश्य है, परन्तु आर्थिक कारक या पूंजीवाद के अंतरराष्ट्रीय राजनीति को समझने में महत्व प्रदान करने पर मुख्य तौर पर आम सहमति नजर आती है। लेकिन इस सिद्धान्त के वृहत स्वरूप व व्यष्टिपूर्वक अध्ययन से इस सिद्धान्त में कई सैद्धान्तिक व व्यावहारिक कमियां स्पष्ट झलकती हैं। परन्तु आवश्यकता इस सिद्धान्त को त्यागने की न होकर इसे और बारीकियों के साथ तराशने की की है। केन्द्र व परिधि राष्ट्रों के बीच उत्पन्न वर्चस्व स्थापित करने व विकास अवरुद्ध होने की समस्याओं के गहन अध्ययनों से नए सामान्यीकरणों के स्थापित करने की अति शीघ्र आवश्यकता है।