निम्बार्काचार्य
निम्बार्काचार्य भारत के प्रसिद्ध दार्शनिक थे जिन्होने द्वैताद्वैत का दर्शन प्रतिपादित किया। सम्प्रदाय का मानना है कि श्री निम्बार्काचार्य का प्रादुर्भाव ३०९६ ईसापूर्व (आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व) हुआ था। श्री निम्बार्क का जन्मस्थान वर्तमान महाराष्ट्र के छत्रपती संभाजी महाराज नगर के निकट मूंगीपैठनमें है। वे श्रीसुदर्शन चक्र के अवतार हैं।
श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय :- वैष्णव चतु:सम्प्रदाय में श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय अत्यन्त प्राचीन अनादि वैदिक सत्सम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय के आद्याचार्य श्रीसुदर्शनचक्रावतार जगद्गुरु श्रीभगवन्निम्बार्काचार्य है । आपकी सम्प्रदाय परम्परा चौबीस अवतारों में श्रीहंसावतार से प्रारम्भ होती है। श्रीहंस भगवान् से जिस परम दिव्य पंचपदी विद्यात्मक श्रीगोपाल-मन्त्रराज का गूढतम उपदेश जिन महर्षिवर्य चतु: सनकादिकों को प्राप्त हुआ, उसी का दिव्योपदेश देवर्षिप्रवर श्रीनारदजी को मिला और वही उपदेश द्वापरान्त में महाराज परीक्षित के राज्यकाल में श्रीनारदजी से श्रीनिम्बार्क भगवान् को प्राप्त हुआ। निखिलभुवनमोहन सर्वनियन्ता श्रीसर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण की मंगलमयी पावन आज्ञा शिरोधार्य कर चक्रराज श्रीसुदर्शन ने ही इस धराधाम पर भारतवर्ष के दक्षिण में महर्षिवर्य श्रीअरूण के पवित्र आश्रम में माता जयन्तीदेवी के उदर से श्रीनियमानन्द के रूप में अवतार धारण किया। अल्पवय में ही माता जयन्ती, महर्षि अरूण के साथ उत्तर भारत में व्रजमण्डल स्थित गिरिराज गोवर्धन की सुरम्य उपत्यका तलहटी में आपने निवास किया, जहाँ पर आपको देवर्षिप्रवर श्रीनारदजी से वैष्णवी दीक्षा में वही पंचपदी विद्यात्मक श्रीगोपालमन्त्रराज का पावन उपदेश तथा श्रीसनकादि संसेवित श्रीसर्वेश्वर प्रभु, जो सूक्ष्म शालग्राम स्वरूप दक्षिणावर्ती चक्रांकित है, उनकी अनुपम सेवा प्राप्त हुई यह सेवा श्रीहंस भगवान् से श्रीसनकादिकों को और इनसे श्रीनारदजी को मिली, जो आगे चलकर द्वापरान्त में श्रीनिम्बार्क भगवान् को प्राप्त हुई। वही सेवा अद्यावधि अखिल भारतीय श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ में आचार्य परम्परा से चली आ रही है। श्रीसुदर्शनचक्रराज ही नियमानन्द के रूप में इस भूतल पर प्रकट हुए और आप ही श्रीनिम्बार्क नाम से परम विख्यात हुए। सूर्यास्त के समय जगतसृष्टा श्रीब्रह्माजी ने छद्म रूप से एक दिवाभोजी दण्डी यति के रूप में व्रज में गिरिराज के निकटवर्ती आश्रम में सूर्यास्त होने पर भी नियमानन्द से निम्बवृक्ष पर सूर्य दर्शन कराके उनका भोजनादि से आतिथ्य ग्रहण किया, जिससे श्रीब्रह्माजी ने उन्हें श्रीनिम्बार्क नाम से सम्बोधित किया। इसी से आप श्रीनिम्बार्क नाम से ही वविश्व विख्यात हुए। आपने प्रस्थानत्रयी पर भाष्य रचना कर स्वाभाविक द्वैताद्वैत नामक सिद्धान्त का प्रतिष्ठापन किया। वृन्दावननिकुंजविहारी युगलकिशोर भगवान् श्रीराधाकृष्ण की श्रुति-पुराणादि शास्त्रसम्मत रसमयी मधुर युगल उपासना का आपने सूत्रपात कर इसका प्रचुर प्रसार किया। कपालवेध स़िद्धान्तानुसार विद्धा एकादाशी त्याज्य एवं शुद्धा एकादाशी ही ग्राह्य है, व्रतोपवास के सन्दर्भ में यही आपश्री का अभिमत सुप्रसिद्ध है। सम्प्रदाय के आद्य-प्रवर्तक आप ही लोक-विश्रुत हैं। आपका प्रमुख केन्द्र व्रज में श्रीगोवर्धन के समीप निम्बग्राम ही रहा है। जिसका संरक्षण परम्परा से अखिल भारतीय श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ, निम्बार्कतीर्थ के अधीनस्थ है। श्रीनिम्बार्क भगवान् के पट्टशिष्य पांचजन्य शंखावतार श्री श्रीनिवासाचार्यजी महाराज ने श्रीभगवन्निम्बार्काचार्य कृत वेदान्त पारिजातसौरभाख्य ब्रह्मसूत्र भाष्य पर वेदान्त कौस्तुभ भाष्य की बृहद् रचना की। श्रीनिम्बार्क भगवान् द्वारा विरचित वेदान्त कामधेनु दशश्लोकि पर आचार्यवर्य श्रीपुरुषोत्तमाचार्य जी महाराज ने वेदान्तरत्नमंजूषा नामक वृहद भाष्य को रचा, जो परम मननीय है। पूर्वाचार्य परम्परा में जगद्विजयी श्रीकेशवकश्मीरी भट्टाचार्यजी महाराज ने वेदान्त कौस्तुभ भाष्य पर प्रभावृत्ति नामक विस्तृत व्याख्या का प्रणयन किया। श्रीमद्भगवद्गीता पर भी आप द्वारा रचित तत्व-प्रकाशिका नामक व्याख्या भी पठनीय है। इसी प्रकार आपका क्रमदीपिका तन्त्र ग्रन्थ अति प्रसिद्ध है। आपने मथुरा के विश्राम घाट पर तान्त्रिक यवन काजी द्वारा लगाये गये यन्त्र को अपने यन्त्र से विफल कर हिन्दू संस्कृति एवं वैदिक सनातन वैष्णव धर्म की रक्षा की। आपके परम प्रख्यात प्रमुख शिष्य श्री श्रीभट्टाचार्यजी महाराज ने व्रजभाषा में सर्वप्रथम श्रीयुगलशतक की रचना कर व्रजभाषा का उत्कर्ष बढाया। आपकी यह सुप्रसिद्ध रचना व्रजभाषा की आदिवाणी नाम से लोक विख्यात है। आपके पट्टशिष्य जगद्गुरु निम्बार्काचार्य पीठाधीवर रसिकराजराजेवर श्रीहरिव्यासदेवाचार्यजी महाराज ने व्रजभाषा में श्रीमहावाणी की रचना कर जिस दिव्य निकुंज युगल मधुर रस को प्रवाहित किया, वह व्रज-वृन्दावन के रसिकजनों का सर्व शिरोमणि देदीप्यमान कण्ठहार के रूप में अतिशय सुशोभित है। आपश्री ने जम्बू में बलि ली जाने वाली देवी को वैष्णवी दीक्षा देकर उसे प्राणियों की बलि से मुक्त कर सात्विक वैष्णवी रूप प्रदान किया। आपने श्रीनिम्बार्क भगवान् कृत वेदान्त कामधेनु दशश्लोकी पर सिद्धान्त रत्नांजलि नाम से दिव्य विस्तृत व्याख्या की रचना कर वैष्णवजनों पर अनुपम कृपा की है। श्रीहरिव्यासदेवाचार्यजी महाराज के द्वादश प्रमुख शिष्यों में पट्टशिष्य श्रीपरशुरामदेवाचार्यजी महाराज ने राजस्थान में पुष्कर क्षेत्र में अखिल भारतीय श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ की संस्थापना की, जो सम्पूर्ण भारत में एकमात्र सर्वमान्य आचार्यपीठ है। आचार्य पीठ परम्परा में अब तक 48 आचार्य हुये है। जो निम्न कार से है:-
आचार्य पीठ परम्परा में अब तक 48 आचार्य हुये है। जो निम्नप्रकार से है:-
आचार्यश्री नाम माह पक्ष तिथि
1श्रीहंसभगवान् कार्तिक शुक्ल नवमी
2श्रीसनकादिकभगवान् कार्तिक शुक्ल नवमी
3श्रीनारदभगवान् मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी
4श्रीनिम्बार्काचार्यजी कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा
5श्रीश्रीनिवासाचार्यजी माघ शुक्ल पञ्चमी
6श्रीविश्वाचार्यजी फाल्गुन शुक्ल चतुर्थी
7श्रीपुरुषोत्तमाचार्यजी चैत्र शुक्ल षष्ठी
8श्रीविलासाचार्यजी वैशाख शुक्ल अष्टमी
9श्रीस्वरूपाचार्यजी ज्येष्ठ शुक्ल सप्तमी
10श्रीमाधवाचार्यजी आषाढ़ शुक्ल दशमी
11श्रीबलभद्राचार्यजी श्रावण शुक्ल तृतीया
12श्रीपद्माचार्यजी भाद्रपद शुक्ल द्वादशी
13श्रीश्यामाचार्यजी आश्विन शुक्ल त्रयोदशी
14श्रीगोपालाचार्यजी भाद्रपद शुक्ल एकादशी
15श्रीकृपाचार्यजी मार्गशीर्ष शुक्ल पूर्णिमा
16श्रीदेवाचार्यजी माघ शुक्ल पञ्चमी
17श्री सुन्दरभट्टाचार्यजी मार्गशीर्ष शुक्ल द्वितीया
18श्रीपद्मनाभभट्टाचार्यजी वैशाख कृष्ण तृतीया
19श्रीउपेन्द्रभट्टाचार्यजी चैत्र कृष्ण तृतीया
20श्रीरामचन्द्रभट्टाचार्यजी वैशाख कृष्ण पञ्चमी
21श्रीवामनभट्टाचार्यजी ज्येष्ठ कृष्ण षष्ठी
22श्रीकृष्णभट्टाचार्य जी आषाढ़ कृष्ण नवमी
23श्रीपद्माकरभट्टाचार्यजी आषाढ़ कृष्ण अष्टमी
24श्रीश्रवणभट्टाचार्यजी कार्तिक कृष्ण नवमी
25श्रीभूरिभट्टाचार्य जी आश्विन कृष्ण दशमी
26श्रीमाधवभट्टाचार्यजी कार्तिक कृष्ण एकादशी
27श्रीश्यामभट्टाचार्य जी चैत्र कृष्ण द्वादशी
28श्रीगोपालभट्टाचार्यजी पौष कृष्ण एकादशी
29श्रीबलभद्रभट्टाचार्यजी माघ कृष्ण चतुर्दशी
30श्रीगोपीनाथभट्टाचार्यजी श्रावण शुक्ल सप्तमी
31श्रीकेशवभट्टाचार्यजी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा
32श्रीगांगलभट्टाचार्यजी चैत्र कृष्ण द्वितीया
33श्रीकेशवकाशमीरीभट्टाचार्य ज्येष्ठ शुक्ल चतुर्थी
34श्रीश्रीभट्टदेवाचार्यजी आश्विन शुक्ल द्वितीया
35श्रीहरिव्यासदेवाचार्यजी कार्तिक कृष्ण द्वादशी
36श्रीपरशुरामदेवाचार्यजी भाद्रपद कृष्ण पञ्चमी
37श्रीहरिवंशदेवाचार्यजी मार्गशीर्ष कृष्ण सप्तमी
38श्रीनारायणदेवाचार्यजी पौष शुक्ल नवमी
39श्रीवृन्दावनदेवाचार्यजी भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी
40श्रीगोविन्ददेवाचार्यजी कार्तिक कृष्ण पञ्चमी
41श्रीगोविन्दशरणदेवाचार्यजी कार्तिक कृष्ण अष्टमी
42श्रीसर्वेश्वरशरणदेवाचार्यजी पौष कृष्ण षष्ठी
43श्रीनिम्बार्कशरणदेवाचार्यजी ज्येष्ठ शुक्ल षष्ठी
44श्रीब्रजराजशरणदेवाचार्यजी ज्येष्ठ शुक्ल पञ्चमी
45श्रीगोपीश्वरशरणदेवाचार्यजी माघ कृष्ण दशमी
46श्रीघनश्यामशरणदेवाचार्यजी आश्विन कृष्ण षष्ठी
47श्रीबालकृष्णशरणदेवाचार्यजी चैत्र कृष्ण द्वादशी
48श्रीराधासर्वेश्वरशरणदेवाचार्यजी ज्येष्ठ शुक्ल द्वितीया
परिचय
[संपादित करें]श्रीकृष्ण को उपास्य के रूप में स्थापित करने वाले निम्बार्काचार्य वैष्णवाचार्यों में प्राचीनतम माने जाते हैं। राधा-कृष्ण की युगलोपासना को प्रतिष्ठापित करने वाले निम्बार्काचार्य का प्रादुर्भाव कार्तिक पूर्णिमा को हुआ था। भक्तों की मान्यतानुसार आचार्य निम्बार्क का आविर्भाव-काल द्वापर के अन्त में कृष्ण के प्रपौत्र बज्रनाभ और परीक्षित पुत्र जनमेजय के समकालीन बताया जाता है।
इनका जन्म वैदूर्यपत्तन(मुंगीपैठन) में (औरंगाबाद के निकट) हुआ था। श्रीकृष्ण को परमब्रह्म के रूप में मानकर उनकी भक्ति को श्रीनिम्बार्क ने मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताया था। इनके दर्शन को द्वैताद्वैतवाद कहा गया तथा इनका सम्प्रदाय सनक सम्प्रदाय के नाम से विख्यात है। इन्हें सुदर्शन चक्र का अवतार माना जाता है।
इनके पिता अरुण ऋषि की, श्रीमद्भागवत में परीक्षित की भागवतकथा श्रवण के प्रसंग सहित अनेक स्थानों पर उपस्थिति को विशेष रूप से बतलाया गया है। सम्प्रदाय की मान्यतानुसार इन्हें भगवान के प्रमुख आयुध सुदर्शन का अवतार माना जाता है।
इनका जन्म वैदुर्यपत्तन (दक्षिण काशी) के अरुणाश्रण में हुआ था। इनके पिता अरुण मुनि और इनकी माता का नाम जयन्ती था। जन्म के समय इनका नाम 'नियमानन्द' रखा गया और बाल्यकाल में ही ये ब्रज में आकर बस गए। मान्यतानुसार अपने गुरु नारद की आज्ञा से नियमानंद ने गोवर्धन की तलहटी को अपनी साधना-स्थली बनाया।
बचपन से ही यह बालक बड़ा चमत्कारी था। एक बार गोवर्धन स्थित इनके आश्रम में एक दिवाभोजी यति (केवल दिन में भोजन करने वाला सन्यासी) आया। स्वाभाविक रूप से शास्त्र-चर्चा हुई पर इसमें काफी समय व्यतीत हो गया और सूर्यास्त हो गया। यति बिना भोजन किए जाने लगा। तब बालक नियमानन्द ने नीम के वृक्ष की ओर संकेत करते हुए कहा कि अभी सूर्यास्त नहीं हुआ है, आप भोजन करके ही जाएं। लेकिन यति जैसे ही भोजन करके उठा तो देखा कि रात्रि के दो पहर बीत चुके थे। चकित होकर ब्रह्माजी ने कहा- हे चक्रराज ! जिसलिए आपका अवतार हुआ है अब आप वह कार्य कीजिये। थोड़े ही समय बाद यहाँ नारदजी भी आने वाले हैं। आपने मुझे निम्ब पर अपना तेज दिखलाया अतः अब आप लोक और शास्त्र में निम्बार्क नाम से प्रख्यात होंगे। अरुण ऋषि के यहाँ प्रकट होने के कारण 'आरुणी', जयन्ती के उदर से प्रकट होने के कारण 'जायन्तेय' एवं वेदार्थ का विस्तार करने के कारण आप 'नियमानन्द' नाम से विख्यात होंगे। इसी प्रकार और भी आपके बहुत से नाम होंगे जिन्हें ऋषि मुनि प्रयोग में लायेंगे ऐसा कहकर ब्रह्माजी अन्तर्धान हो गये।
थोड़े ही समय के पश्चात् वहाँ वीणा बजाते हुए नारदजी पहुँचे। श्रीनिम्बार्काचार्य ने उनकी पूजा की और सिंहासन पर विराजमान करके प्रार्थना की- जो तत्व आपको श्रीसनकादिकों ने बतलाया था उसका उपदेश कृपाकर मुझे कीजिये। तब नारदजी ने श्रीनिम्बार्काचार्य को विधिपूर्वक पञ्च संस्कार करके श्रीगोपाल अष्टादशाक्षर मन्त्रराज की दीक्षा दी। उसके पश्चात् श्रीनिम्बार्काचार्य ने नारदजी से और भी कई प्रश्न किये, देवर्षि ने उन सबका समाधान किया। इनका संकलन- 'श्रीनारद नियमानन्द गोष्ठी' के नाम से प्रख्यात हुआ। स्वपुत्र श्रीनिम्बार्काचार्य के मुख से आध्यत्मिक ज्ञान प्राप्त करके अरुण ऋषि सन्यास लेकर तीर्थाटान करने लगे। श्रीनिम्बार्काचार्य ने माता को भी इसी प्रकार धर्मोपदेश किया और स्वयं नैष्ठिक ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर भारत-भ्रमण को निकले।
निम्बार्काचार्य ने ब्रह्मसूत्र, उपनिषद और गीता पर अपनी टीका लिखकर अपना समग्र दर्शन प्रस्तुत किया। इनकी यह टीका 'वेदान्त-पारिजात-सौरभ' के नाम से प्रसिद्ध है। इनका मत ‘स्वाभाविक द्वैताद्वैत’ या ‘स्वाभाविक भेदाभेद’ के नाम से जाना जाता है। आचार्य निंबार्क के अनुसार जीव, जगत और ब्रह्म में वास्तविक रूप से भेदाभेद सम्बन्ध है। निंबार्क इन तीनों के अस्तित्व को उनके स्वभाव, गुण और अभिव्यक्ति के कारण भिन्न (प्रथक) मानते हैं तो तात्विक रूप से एक होने के कारण तीनों को अभिन्न मानते हैं। निम्बार्क के अनुसार उपास्य राधाकृष्ण ही पूर्ण ब्रह्म हैं।
सम्प्रदाय का आचार्यपीठ श्रीनिम्बार्कतीर्थ,किशनगढ़, अजमेर,राजस्थान में स्थित है।
श्रीनिम्बार्कतीर्थ (सलेमाबाद) (जिला अजमेर) के श्रीराधामाधव मंदिर, वृन्दावन के निम्बार्क-कोट, नीमगांव (गोवर्धन) सहित भारत के विभिन्न हिस्सों में निम्बार्क जयन्ती विशेष समारोह पूर्वक मनाई जाती है।
जन्म कथा
[संपादित करें]एक समय बहुत से ऋषि-मुनि मिलकर ब्रह्माजी के पास गये और उनसे प्रार्थना करने लगे। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों प्रकार के वैदिक मार्ग हैं। उनमें प्रथम प्रवृत्त होकर साधक किस प्रकार निवृत्ति पथ का अनुसरण करे? ऋषियों के इस प्रश्न के समाधानार्थ उन्हें साथ लेकर ब्रह्माजी क्षीरसागर के तट पर गये और वहाँ विष्णु भगवान् की प्रार्थना की। तब आकाशवाणी हुई कि निवृत्तिमार्ग के उपदेशक सनकादिक एवं नारद आदि हैं, अब एक और भी आचार्य प्रकट होंगे।
आकाशवाणी सुनकर ऋषि-मुनि सब अपने आश्रमों को लौट आये। भगवान् ने श्रीसुदर्शन को आज्ञा प्रदान की- हे सुदर्शन ! भागवत धर्म के प्रचार-प्रसार में कुछ काल से शिथिलता आरही है, अतः सुमेरु पर्वत के दक्षिण में तैलंग देश में अवतीर्ण होकर आप निवृत्ति-लक्षण भागवत धर्म का प्रचार-प्रसार कीजिये। मथुरा मण्डल, नैमिषारण्य, द्वारका आदि मेरे प्रिय धामों में निवास कीजिये। भगवान् के आदेश को शिरोधार्य करके तैलंगदेशीय सुदर्शनाश्रम में भृगुवंशीय अरुण ऋषि की धर्मपत्नी श्रीजयन्तीदेवी जी के उदर से कार्तिक शुक्ल १५ को सायंकाल श्रीनिम्बार्काचार्य का अवतार हुआ।
ग्रन्थ सम्पदा
[संपादित करें]आचार्य निम्बार्क की ग्रन्थ सम्पदा इस प्रकार है-
- वेदान्तपारिजातसौरभ
- वेदान्तकामधेनु दशश्लोकी
- प्रपन्नकल्पवल्ली
- मन्त्ररहस्य षोडषी
- प्रपत्तिचिन्तामणि
- गीतावाक्यार्थ
- सदाचार प्रकाश
- राधाष्टकम्
- कृष्णाष्टकम्
- प्रातःस्मरणस्तोत्रम् ।
निम्बार्क के इन्ही ग्रन्थों पर द्वैताद्वैत सम्प्रदाय की नींव स्थिर है। इन ग्रन्थों में से प्रतिपत्तिचिन्तामणि, गीतावाक्यार्थ, और सदाचारप्रकाश, प्रायः अनुपलब्ध हैं। 'प्रपत्तिचिन्तामणि' तथा 'सदाचार प्रकाश' - इन दो ग्रन्थों का उल्लेख 'वेदान्त-रत्न-मञ्जूषा' में श्री पुरूषोत्तम आचार्य ने किया है।