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नित्य कर्म

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नित्य कर्म वेद के अनुसार कर्मों का एक प्रकार है। रजोगुण को कर्म का मूल प्रेरक माना गया है। वेद की मान्यता को स्वीकार करते हुए मीमांसकों ने कर्मों के पालन और निषेध का निर्देश किया है। नित्य किया जाने वाला कर्म नित्य कर्म की श्रेणी में रखा गया है। नित्य कर्म को अनिवार्यतः दिनचर्या के रूप में ही सीमित नहीं माना गया है। इसके अनुसार एक प्रातःकाल से दूसरे प्रातःकाल तक शास्त्रोक्त रीति से दिन-रात के अष्टयामों के आठ यामार्द्ध कृत्यों—ब्राह्म मुहूर्त में निद्रात्याग, देव, द्विज और ऋषि स्मरण, शौचादि से निवृत्ति, वेदाभ्यास, यज्ञ, भोजन, अध्ययन, लोक-कार्य आदि—का निर्देश किया गया है। मीमांसकों ने द्विविध कर्म—अर्थकर्म और गुणकर्म—की बात कही है। इनमें अर्थकर्म के तीन भेद हैं—नित्य कर्म, नैमित्तिक कर्म और काम्य कर्म। गृहस्थों के लिए इन तीनों को करने का निर्देश है। इनमें प्रथम कर्म नित्य कर्म है जिसके अंतर्गत पंचयज्ञादि आते हैं। इन्हें करने से मनुष्य के प्रति दिन के पापों का क्षय होता है। इनके साथ निषिद्ध और प्रायश्चित कर्म का भी विधान किया गया है।[1] जो इस कर्तव्यों का निर्वहन नहीं करता वह शास्त्र के अनुसार पाप का भागी होकर पतित और निंद्य हो जाता है।[2]

सन्दर्भ

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  1. हरेन्द्र प्रसाद, सिन्हा (1963). भारतीय दर्शन की रूपरेखा (2018 संस्करण). दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास. पृ॰ 290. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-208-2143-9.
  2. विष्णुकान्त, शास्त्री (1997). ज्ञान और कर्म : ईशावास्य अनुवचन (2008 संस्करण). इलाहाबाद: लोकभारती प्रकाशन. पृ॰ 71. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-8031-310-3.