नरेन्द्र कोहली
नरेन्द्र कोहली | |
|---|---|
कालजयी कथाकार एवं मनीषी डॉ॰ नरेन्द्र कोहली | |
| राष्ट्रीयता | भारतीय |
| नागरिकता | भारत |
| शिक्षा | पीएचडी |
| आलमा माटर | दिल्ली विश्वविद्यालय |
| काल | १९६० - २०२१ |
| साहित्यिक आंदोलन | 'सांस्कृतिक पुनर्जागरण के युग' के प्रणेता |
| उल्लेखनीय रचनाएँ | महासमर, अभ्युदय, तोड़ो, कारा तोड़ो, वसुदेव, साथ सहा गया दुःख, अभिज्ञान, पांच एब्सर्ड उपन्यास, आश्रितों का विद्रोह, प्रेमचन्द, हिन्दी उपन्यास : सृजन और सिद्धान्त |
| उल्लेखनीय पुरस्कार | शलाका सम्मान, पंडित दीनदयाल उपाध्याय सम्मान, अट्टहास सम्मान |
| जीवनसाथी | डॉ॰ मधुरिमा कोहली |
| संतान | कार्तिकेय एवं अगस्त्य |
| वेबसाइट | |
| http://www.narendrakohli.org | |
डॉ॰ नरेन्द्र कोहली (जन्म ६ जनवरी १९४०, निधन १७ अप्रैल २०२१, चैत्र शुक्ल पंचमी, नवरात्रि) प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार हैं। उन्होंने साहित्य के सभी प्रमुख विधाओं (यथा उपन्यास, व्यंग्य, नाटक, कहानी) एवं गौण विधाओं (यथा संस्मरण, निबंध, पत्र आदि) और आलोचनात्मक साहित्य में अपनी लेखनी चलाई है। उन्होंने शताधिक श्रेष्ठ ग्रंथों का सृजन किया है। हिन्दी साहित्य में 'महाकाव्यात्मक उपन्यास' की विधा को प्रारम्भ करने का श्रेय उनको ही जाता है। पौराणिक एवं ऐतिहासिक चरित्रों की गुत्थियों को सुलझाते हुए उनके माध्यम से आधुनिक सामाज की समस्याओं एवं उनके समाधान को समाज के समक्ष प्रस्तुत करना कोहली की अन्यतम विशेषता है। कोहलीजी सांस्कृतिक राष्ट्रवादी साहित्यकार हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय जीवन-शैली एवं दर्शन का सम्यक् परिचय करवाया है। जनवरी, २०१७ में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। मरणोपरांत, कोहली जी की जयंती, ६ जनवरी को हिन्दी साहित्य जगत में 'साहित्यकार दिवस' के रूप में स्थापित कर, २०२३ में पहली बार मनाया गया।
जीवन
[संपादित करें]नरेन्द्र कोहली का जन्म ६ जनवरी १९४० को संयुक्त पंजाब के सियालकोट नगर, भारत मे हुआ था जो अब पाकिस्तान मे है। प्रारम्भिक शिक्षा लाहौर मे आरम्भ हुई और भारत विभाजन के पश्चात परिवार के जमशेदपुर चले आने पर वहीं आगे बढ़ी। दिलचस्प है कि प्रारम्भिक अवस्था में हिन्दी के इस सर्वकालिक श्रेष्ठ रचनाकार की शिक्षा का माध्यम हिन्दी न होकर उर्दू था। हिन्दी विषय उन्हें दसवीं कक्षा की परीक्षा के बाद ही मिल पाया। विद्यार्थी के रूप में नरेन्द्र अत्यन्त मेधावी थे एवं अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होते रहे। वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भी उन्हें अनेक बार अनेक प्रतियोगिताओं में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ।
बाद मे दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर और डाक्टरेट की उपाधि भी ली। प्रसिद्ध आलोचक डॉ॰ नगेन्द्र के निर्देशन में "हिन्दी उपन्यास : सृजन एवं सिद्धांत" इस विषय पर उनका शोध प्रबन्ध पूर्ण हुआ। इस प्रारम्भिक कार्य में ही युवा नरेन्द्र कोहली की मर्मभेदक दृष्टि एवं मूल तत्व को पकड़ लेने की शक्ति का पता लग जाता है।
डा. मधुरिमा कोहली से उनका विवाह हुआ। कार्तिकेय एवं अगस्त्य नाम के उनके दो पुत्र हैं।
१९६३ से लेकर १९९५ तक उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय मे अध्यापन कार्य किया और वहीं से १९९५ में पूर्णकालिक लेखन की स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए स्वैच्छिक अवकाश ग्रहण किया।
श्रेष्ठ साहित्यकार होने के साथ-साथ वे एक श्रेष्ठ एवं ओजस्वी वक्ता थे. उनका व्यक्तित्व एक सरल, सहृदय एवं स्पष्टवादी पुरुष का था.
कोरोना महामारी के दूसरे दौर में २ अप्रैल को संस्कृत भारती २०२१ के कार्यक्रम में उन्होंने अंतिम बार सार्वजनिक रूप से भाग लिया। १० अप्रैल, २०२१ को कोरोना संक्रमण के लक्षण प्रबल होने पर उन्हें दिल्ली के संत स्टीफन अपताल में भर्ती कराया गया। १७ अप्रैल, २०२१ को सायं ६:४० पर उन्होंने नश्वर देह त्याग दी।
पौराणिक विषयों पर हजारीप्रसाद द्विवेदी की विश्लेषण दृष्टि का नरेन्द्र कोहली पर प्रभाव
[संपादित करें]प्रायः छह-सात दशकों के पश्चात् आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के साहित्यिक अवदान का मूल्यांकन करते समय अब एक प्रमुख तथ्य उसमें और जोड़ा जा सकता है। आचार्य द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य में एक ऐसे द्वार को खोला जिससे गुज़र कर नरेन्द्र कोहली ने एक सम्पूर्ण युग की प्रतिष्ठा कर डाली. यह हिन्दी साहित्य के इतिहास का सबसे उज्जवल पृष्ठ है और इस नवीन प्रभात के प्रमुख वैतालिक होने का श्रेय अवश्य ही आचार्य द्विवेदी का है जिसने युवा नरेन्द्र कोहली को प्रभावित किया। परम्परागत विचारधारा एवं चरित्रचित्रण से प्रभावित हुए बगैर स्पष्ट एवं सुचिंतित तर्क के आग्रह पर मौलिक दृष्ट से सोच सकना साहित्यिक तथ्यों, विशेषतः ऐतिहासिक-पौराणिक तथ्यों का मौलिक वैज्ञानिक विश्लेषण यह वह विशेषता है जिसकी नींव आचार्य द्विवेदी ने डाली थी और उसपर रामकथा, महाभारत कथा एवं कृष्ण-कथाओं आदि के भव्य प्रासाद खड़े करने का श्रेय आचार्य नरेंद्र कोहली का है। संक्षेप में कहा जाए तो भारतीय संस्कृति के मूल स्वर आचार्य द्विवेदी के साहित्य में प्रतिध्वनित हुए और उनकी अनुगूंज ही नरेन्द्र कोहली रूपी पाञ्चजन्य में समा कर संस्कृति के कृष्णोद्घोष में परिवर्तित हुई जिसने हिन्दी साहित्य को हिला कर रख दिया।
'दीक्षा' का प्रकाशन
[संपादित करें]आधुनिक युग में नरेन्द्र कोहली ने साहित्य में आस्थावादी मूल्यों को स्वर दिया था। सन् १९७५ में उनके रामकथा पर आधारित उपन्यास 'दीक्षा' के प्रकाशन से हिंदी साहित्य में 'सांस्कृतिक पुनर्जागरण का युग' प्रारंभ हुआ जिसे हिन्दी साहित्य में 'नरेन्द्र कोहली युग' का नाम देने का प्रस्ताव भी जोर पकड़ता जा रहा है। तात्कालिक अन्धकार, निराशा, भ्रष्टाचार एवं मूल्यहीनता के युग में नरेन्द्र कोहली ने ऐसा कालजयी पात्र चुना जो भारतीय मनीषा के रोम-रोम में स्पंदित था। महाकाव्य का ज़माना बीत चुका था, साहित्य के 'कथा' तत्त्व का संवाहक अब पद्य नहीं, गद्य बन चुका था। अत्यधिक रूढ़ हो चुकी रामकथा को युवा कोहली ने अपनी कालजयी प्रतिभा के बल पर जिस प्रकार उपन्यास के रूप में अवतरित किया, वह तो अब हिन्दी साहित्य के इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ बन चुका है। युगों युगों के अन्धकार को चीरकर उन्होंने भगवान राम की कथा को भक्तिकाल की भावुकता से निकाल कर आधुनिक यथार्थ की जमीन पर खड़ा कर दिया. साहित्यिक एवम पाठक वर्ग चमत्कृत ही नहीं, अभिभूत हो गया। किस प्रकार एक उपेक्षित और निर्वासित राजकुमार अपने आत्मबल से शोषित, पीड़ित एवं त्रस्त जनता में नए प्राण फूँक देता है, 'अभ्युदय' में यह देखना किसी चमत्कार से कम नहीं था। युग-युगांतर से रूढ़ हो चुकी रामकथा जब आधुनिक पाठक के रुचि-संस्कार के अनुसार बिलकुल नए कलेवर में ढलकर जब सामने आयी, तो यह देखकर मन रीझे बिना नहीं रहता कि उसमें रामकथा की गरिमा एवं रामायण के जीवन-मूल्यों का लेखक ने सम्यक् निर्वाह किया है।
दिग्गज साहित्यकारों एवं आलोचकों की प्रतिक्रिया
[संपादित करें]आश्चर्य नहीं कि तत्कालीन सभी दिग्गज साहित्यकारों से युवा नरेन्द्र कोहली को भरपूर आशीर्वाद भी मिला और बड़ाई भी. मूर्धन्य आलोचक और साहित्यकार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर, यशपाल, जैनेन्द्रकुमार इत्यादि प्रायः सभी शीर्षस्थ रचनाकारों ने नरेन्द्र कोहली की खुले शब्दों में खुले दिल से भरपूर तारीफ़ करी. जैनेन्द्र जैसे उस समय के प्रसिद्धतम रचनाकारों ने भी युवा कोहली को पढ़ा और जिन शब्दों में अपनी प्रतिक्रया व्यक्त की उसने हिन्दी साहित्य में किसी विशिष्ट प्रतिभा के आगमन की स्पष्ट घोषणा कर दी.
मैं नहीं जानता कि उपन्यास से क्या अपेक्षा होती है और उसका शिल्प क्या होता है। प्रतीत होता है कि आपकी रचना उपन्यास के धर्म से ऊंचे उठकर कुछ शास्त्र की कक्षा तक बढ़ जाती है। मैं इसके लिए आपका कृतज्ञ होता हूँ और आपको हार्दिक बधाई देता हूँ. -जैनेन्द्र कुमार (१९.८.७७)
मैंने आपमें वह प्रतिभा देखी है जो आपको हिन्दी के अग्रणी साहित्यकारों में ला देती है। राम कथा के आदि वाले अंश का कुछ भाग आपने ('दीक्षा' में) बड़ी कुशलता के साथ प्रस्तुत किया है। उसमें औपन्यासिकता है, कहानी की पकड़ है। भगवतीचरण वर्मा, (१९७६)[1]
आपने राम कथा, जिसे अनेक इतिहासकार मात्र पौराणिक आख्यान या मिथ ही मानते हैं, को यथाशक्ति यथार्थवादी तर्कसंगत व्याख्या देने का प्रयत्न किया है। अहल्या की मिथ को भी कल्पना से यथार्थ का आभास देने का अच्छा प्रयास. यशपाल (८.२.१९७६)[1]
रामकथा को आपने एकदम नयी दृष्टि से देखा है। 'अवसर' में राम के चरित्र को आपने नयी मानवीय दृष्टि से चित्रित किया है। इसमें सीता का जो चरित्र आपने चित्रित किया है, वह बहुत ही आकर्षक है। सीता को कभी ऐसे तेजोदृप्त रूप में चित्रित नहीं किया गया था। साथ ही सुमित्रा का चरित्र आपने बहुत तेजस्वी नारी के रूप में उकेरा है। मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि यथा-संभव रामायण कथा की मूल घटनाओं को परिवर्तित किये बिना आपने उसकी एक मनोग्राही व्याख्या की है। ...पुस्तक आपके अध्ययन, मनन और चिंतन को उजागर करती है।- हजारीप्रसाद द्विवेदी, (३.११.१९७६)[1]
दीक्षा में प्रौढ़ चिंतन के आधार पर रामकथा को आधुनिक सन्दर्भ प्रदान करने का साहसिक प्रयत्न किया गया है। बालकाण्ड की प्रमुख घटनाओं तथा राम और विश्वामित्र के चरित्रों का विवेक सम्मत पुनराख्यान, राम के युगपुरुष/युगावतार रूप की तर्कपुष्ट व्याख्या उपन्यास की विशेष उपलब्धियाँ हैं। डॉ॰ नगेन्द्र (१-६-१९७६)[1]
यूं ही कुतूहलवश 'दीक्षा' के कुछ पन्ने पलटे और फिर उस पुस्तक ने ऐसा intrigue किया कि दोनों दिन पूरी शाम उसे पढ़कर ही ख़त्म किया। बधाई. चार खंडों में पूरी रामकथा एक बहुत बड़ा प्रोजेक्ट है। यदि आप आदि से अंत तक यह 'tempo' रख ले गए, तो वह बहुत बड़ा काम होगा. इसमें सीता और अहल्या की छवियों की पार्श्व-कथाएँ बहुत सशक्त बन पड़ी हैं।धर्मवीर भारती २७-२-७६)[1]
मैनें डॉ॰ शान्तिकुमार नानुराम का वाल्मीकि रामायण पर शोध-प्रबंध पढ़ा है। रमेश कुंतल मेघ एवं आठवलेकर के राम को भी पढ़ा है; लेकिन (दीक्षा में) जितना सूक्ष्म, गहन, चिंतनपूर्ण विराट चित्रण आपने किया वैसा मुझे समूचे हिन्दी साहित्य में आज तक कहीं देखने को नहीं मिला. अगर मैं राजा या साधन-सम्पन्न मंत्री होता तो रामायण की जगह इसी पुस्तक को खरीदकर घर-घर बंटवाता". रामनारायण उपाध्याय (९-५-७६)[1]
आप अपने नायक के चित्रण में सश्रद्ध भी हैं और सचेत भी. ...प्रवाह अच्छा है। कई बिम्ब अच्छे उभरे, साथ साथ निबल भी हैं, पर होता यह चलता है कि एक अच्छी झांकी झलक जाती है और उपन्यास फिर से जोर पकड़ जाता है। इस तरह रवानी आद्यांत ही मानी जायगी. इस सफलता के लिए बधाई. ... सुबह के परिश्रम से चूर तन किन्तु संतोष से भरे-पूरे मन के साथ तुम्हें बहुत काम करने और अक्षय यश सिद्ध करने का आशीर्वाद देता हूँ. अमृतलाल नागर (२०.१० १९७६)[1]
प्रथम श्रेणी के कतिपय उपन्यासकारों में अब एक नाम और जुड़ गया-दृढ़तापूर्वक मैं अपना यह अभिमत आपतक पहुंचाना चाहता हूँ. ...रामकथा से सम्बन्धित सारे ही पात्र नए-नए रूपों में सामने आये हैं, उनकी जनाभिमुख भूमिका एक-एक पाठक-पाठिका के अन्दर (न्याय के) पक्षधरत्व को अंकुरित करेगी यह मेरा भविष्य-कथन है। -कवि बाबा नागार्जुन[1]
रामकथा की ऐसी युगानुरूप व्याख्या पहले कभी नहीं पढ़ी थी। इससे राम को मानवीय धरातल पर समझने की बड़ी स्वस्थ दृष्टि मिलती है और कोरी भावुकता के स्थान पर संघर्ष की यथार्थता उभर कर सामने आती है।..आपकी व्याख्या में बड़ी ताजगी है। तारीफ़ तो यह है कि आपने रामकथा की पारम्परिक गरिमा को कहीं विकृत नहीं होने दिया है। ...मैं तो चाहूंगा कि आप रामायण और महाभारत के अन्य पौराणिक प्रसंगों एवं पात्रों का भी उद्घाटन करें. है तो जोखिम का काम पर यदि सध गया तो आप हिन्दी कथा साहित्य में सर्वथा नयी विधा के प्रणेता होंगे." -शिवमंगल सिंह 'सुमन' (२३-२-१९७६)
डा नरेन्द्र कोहली का हिन्दी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान है। विगत तीस-पैंतीस वर्षों में उन्होंने जो लिखा है वह नया होने के साथ-साथ मिथकीय दृष्टि से एक नई जमीन तोड़ने जैसा है।...कोहली ने व्यंग, नाटक, समीक्षा और कहानी के क्षेत्र में भी अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया है। मानवीय संवेदना का पारखी नरेन्द्र कोहली वर्तमान युग का प्रतिभाशाली वरिष्ठ साहित्यकार है।" डा विजयेन्द्र स्नातक,[2]
वस्तुतः नरेन्द्र कोहली ने अपनी रामकथा को न तो साम्प्रदायिक दृष्टि से देखा है न ही पुनरुत्थानवादी दृष्टि से. मानवतावादी, विस्तारवादी एकतंत्र की निरंकुशता का विरोध करने वाली यह दृष्टि प्रगतिशील मानवतावाद की समर्थक है। मानवता की रक्षा तथा न्यायपूर्ण समताधृत शोषणरहित समाज की स्थापना का स्वप्न न तो किसी दृष्टि से साम्प्रदायिक है न ही पुनरुत्थानवादी. - डॉ कविता सुरभि
नरेन्द्र कोहली का अवदान मात्रात्मक परिमाण में भी पर्याप्त अधिक है। उन्नीस उपन्यासों को समेटे उनकी महाकाव्यात्मक उपन्यास श्रृंखलाएं 'महासमर' (आठ उपन्यास), 'तोड़ो, कारा तोड़ो' (पांच-छः उपन्यास), 'अभ्युदय' (दीक्षा आदि पांच उपन्यास) ही गुणवत्ता एवं मात्रा दोनों की दृष्टि से अपने पूर्ववर्तियों से कहीं अधिक हैं। उनके अन्य उपन्यास भी विभिन्न वर्गों में श्रेष्ठ कृतियों में गिने जा सकते हैं। सामाजिक उपन्यासों में 'साथ सहा गया दुःख', 'क्षमा करना जीजी', 'प्रीति-कथा'; ऐतिहासिक उपन्यासों में राज्यवर्धन एवं हर्षवर्धन के जीवन पर आधारित 'आत्मदान'; दार्शनिक उपन्यासों में कृष्ण-सुदामा के जीवन पर आधारित 'अभिज्ञान'; पौराणिक-आधुनिकतावादी उपन्यासों में 'वसुदेव' उन्हें हिन्दी के समस्त पूर्ववर्ती एवं समकालीन साहित्यकारों से उच्चतर पद पर स्थापित कर देते हैं।
इसके अतिरिक्त वृहद् व्यंग साहित्य, नाटक और कहानियों के साथ साथ नरेन्द्र कोहली ने गंभीर एवं उत्कृष्ट निबंध, यात्रा विवरण एवं मार्मिक आलोचनाएं भी लिखी हैं। संक्षेप में कहा जाय तो उनका अवदान गद्य की हर विधा में देखा जा सकता है, एवं वह प्रायः सभी अन्य साहित्यकारों से उनकी विशिष्ट विधा में भी श्रेष्ठ हैं। उनके कृतित्व का आधा भी किसी अन्य साहित्यकार को युग-प्रवर्तक साहित्यकार घोषित करने के लिए पर्याप्त है। नरेन्द्र कोहली ने तो उन कथाओं को अपना माध्यम बनाया है जो अपने विस्तार एवं वैविध्य के लिए विश्व-विख्यात हैं : रामकथा एवं महाभारत कथा। 'यन्नभारते - तन्नभारते' को चरितार्थ करते हुए उनके महोपन्यास 'महासमर' मात्र में वर्णित पात्रों, घटनाओं, मनोभावों आदि की संख्या एवं वैविध्य देखें तो वह भी पर्याप्त ठहरेगा. वर्णन कला, चरित्र-चित्रण, मनोजगत का वर्णन इत्यादि देखें भी कोहली प्रेमचंद से न सिर्फ आगे निकल जाते है, वरन संवेदनशीलता एवं गहराई भी उनमें अधिक है।
नरेन्द्र कोहली की वह विशेषता जो उन्हें इन दोनों पूर्ववर्तियों से विशिष्ट बनाती है वह है एक के पश्चात् एक पैंतीस वर्षों तक निरंतर उन्नीस[3] कालजयी कृतियों का प्रणयन सर्वश्रेष्ठ है। इसके अतिरिक्त वृहद् व्यंग-साहित्य, सामाजिक उपन्यास, ऐतिहासिक उपन्यास, मनोवैज्ञानिक उपन्यास भी हैं; सफल नाटक हैं, वैचारिक निबंध, आलोचनात्मक निबंध, समीक्षात्मक एवं विश्लेषणात्मक प्रबंध, अभिभाषण, लेख, संस्मरण, रेखाचित्रों का ऐसा खज़ाना है।.. गद्य की प्रत्येक विधा में उन्होंने हिन्दी साहित्य को इतना दिया है कि उनके समकक्ष सभी अवदान फीके जान पड़ते हैं।
कृतित्व
[संपादित करें]उपन्यास, कहानी, व्यंग्य, नाटक, निबन्ध, आलोचना, संस्मरण इत्यादि गद्य की सभी प्रमुख एवं गौण विधाओं में नरेन्द्र कोहली ने अपनी विदग्धता का परिचय दिया है। यों तो छह वर्ष की आयु से ही उन्होने लिखना प्रारम्भ कर दिया था लेकिन १९६० के बाद से उनकी रचनाएँ प्रकाशित होने लगीं। समकालीन लेखकों से वो भिन्न इस प्रकार हैं कि उन्होने जानी मानी कहानियों को बिल्कुल मौलिक तरीके से लिखा। उनकी रचनाओं का विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है। ‘दीक्षा’, ‘अवसर’, ‘संघर्ष की ओर’ और ‘युद्ध’ नामक रामकथा श्रृंखला की कृतियों में कथाकार द्वारा सहस्राब्दियों की परम्परा से जनमानस में जमे ईश्वरावतार भाव और भक्तिभाव की जमीन को, उससे जुड़ी धर्म और ईश्वरवाची सांस्कृतिक जमीन को तोड़ा गया है। रामकथा की नई जमीन को नए मानवीय, विश्वसनीय, भौतिक, सामाजिक, राजनीतिक और आधुनिक रूप में प्रस्तुत किया गया है। नरेन्द्र कोहली ने प्रायः सौ से भी अधिक उच्च कोटि के ग्रंथों का सृजन किया है।
उपन्यास विधा पर अद्भुत पकड़ होने का कारण है, नरेन्द्र कोहली की कई विषयों में व्यापक सिद्धहस्तता। मानव मनोविज्ञान को वह गहराई से समझते हैं एवं विभिन्न चरित्रों के मूल तत्व को पकड़ कर भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में उनकी सहज प्रतिक्रया को वे प्रभावशाली एवं विश्वसनीय ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं। औसत एवं असाधारण, सभी प्रकार के पात्रों को वे अपनी सहज संवेदना एवं भेदक विश्लेषक शक्ति से न सिर्फ पकड़ लेते है, वरन उनके साथ तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। राजनैतिक समीकरणों, घात-प्रतिघात, शक्ति-संतुलन इत्यादि का व्यापक चित्रण उनकी रचनाओं में मिलता है। भाषा, शैली, शिल्प एवं कथानक के स्तर पर नरेन्द्र कोहली ने अनेक नए एवं सफल प्रयोग किये हैं। उपन्यासों को प्राचीन महाकाव्यों के स्तर तक उठा कर उन्होंने महाकाव्यात्मक उपन्यासों की नई विधा का आविष्कार किया है।
नरेन्द्र कोहली की सिद्धहस्तता का उत्तम उदाहरण है उनके महाउपन्यास महासमर के विस्तृत फैलाव से साथ सहा गया दुःख तक का अतिसंक्षिप्त दृश्यपटल। सैकड़ों पात्रों एवं हजारों घटनाओं से समृद्ध 'महासमर' के आठ खंडों के चार हज़ार पृष्ठों के विस्तार में कहीं भी न बिखराव है, न चरित्र की विसंगतियां, न दृष्टि और दर्शन का भेद. पन्द्रह वर्षों के लम्बे समय में लिखे गए इस महाकाव्यात्मक उपन्यास में लेखक की विश्लेषणात्मक दृष्टि कितनी स्पष्ट है, यह उनके ग्रन्थ "जहां है धर्म, वहीं है जय" को देखकर समझा जा सकता है जो महाभारत की अर्थप्रकृति पर आधारित है। इस ग्रन्थ में उन्होंने 'महासमर' में वर्णित पात्रों एवं घटनाओं पर विचार किया है, समस्याओं को सामने रखा है एवं उनका निदान ढूँढने का प्रयास किया है। महाभारत को समझने में प्रयासशील इस महाउपन्यासकार का यह उद्यम देखते ही बनता है जिसमें उनकी विचार-प्रक्रिया के रेखांकन में ही एक पूरा ग्रन्थ तैयार हो जाता है। साहित्य के विद्यार्थियों और आलोचकों के लिए नरेन्द्र कोहली की साहित्य-सृजन-प्रक्रिया को समझने में यह ग्रन्थ न सिर्फ महत्वपूर्ण है वरन् परम आवश्यक है। इस ग्रन्थ में नरेन्द्र कोहली ने विभिन्न चरित्रों के बारे में नयी एवं स्पष्ट स्थापनाएं दी हैं। उनकी जन-मानस में अंकित छवि से प्रभावित और आतंकित हुए बगैर घटनाओं के तार्किक विश्लेषण से कोहलीजी ने कृष्ण, युधिष्ठिर, कुंती, द्रौपदी, भीष्म, द्रोण इत्यादि के मूल चरित्र का रूढ़िगत छवियों से पर्याप्त भिन्न विश्लेषण किया है।
दूसरे ध्रुव पर उनका दूसरा उपन्यास "साथ सहा गया दुःख" है जो मात्र दो पात्रों को लेकर बुना गया है। उनके द्वारा लिखा गया प्रारम्भिक उपन्यास होने के बावजूद यह हिन्दी साहित्य की एक अत्यंत सशक्त एवं प्रौढ़ कृति है। 'साथ सहा गया दुःख' नरेंद्र कोहली की उस साहित्यिक शक्ति को उद्घाटित करता है। 'सीधी बात' को सीधे-सीधे स्पष्ट रूप से ऐसे कह देना कि वह पाठक के मन में उतर जाए, उसे हंसा भी दे और रुला भी. इस कला में नरेंद्र कोहली अद्वितीय हैं। 'साथ सहा गया दुःख' नरेंद्र कोहली के संवेदनशील पक्ष को उद्घाटित करता है। महादेवी द्वारा 'प्रसाद' के लिए कही गयी उक्ति उनपर बिलकुल सटीक बैठती है: "...(उनके कृतित्व) से प्रमाणित होता है कि उनकी जीवन-वीणा के तार इतने सधे हुए थे कि हल्की से हल्की झंकार भी उसमें प्रतिध्वनि पा लेती थी।"
"यह देख कर मुझे आश्चर्य होता था कि मात्र ढाई पात्रों (पति, पत्नी और एक नवजात बच्ची) का सादा सपाट घरेलू या पारिवारिक उपन्यास इतना गतिमान एवं आकर्षक कैसे बन गया है। अनलंकृत जीवन-भाषा में सादगी का सौंदर्य घोलकर किस कला से इसे इतनी सघन संवेदनीयता से पूर्ण बनाया गया है।"[4]
कोहलीजी का प्रथम उपन्यास था पुनरारंभ। इस व्यक्तिपरक-सामाजिक उपन्यास में तीन पीढ़ियों के वर्णन के लक्ष्य को लेकर चले उपन्यासकार ने उनके माध्यम से स्वतंत्रता-प्राप्ति के संक्रमणकालीन समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों की मानसिकता एवं जीवन-संघर्ष की उनकी परिस्थितियों को चित्रित करने का प्रयास किया था। इसके पश्चात् आया 'आतंक'. सड़ चुके वर्तमान समाज की निराशाजनक स्थिति, अत्याचार से लड़ने की उसकी असमर्थता, बुद्धिजीवियों की विचारधारा की नपुंसकता एवं उच्च विचारधारा की कर्म में परिणति की असफलता का इसमें ऐसा चित्रण है जो मन को अवसाद से भर देता है।
नरेन्द्र कोहली की एक बड़ी उपलब्धि है "वर्तमान समस्याओं को काल-प्रवाह के मंझधार से निकाल कर मानव-समाज की शाश्वत समस्याओं के रूप में उनपर सार्थक चिंतन"। उपन्यास में दर्शन, आध्यात्म एवं नीति का पठनीय एवं मनोग्राही समावेश उन्हें समकालीन एवं पूर्ववर्ती सभी साहित्यकारों से उच्चतर धरातल पर खडा कर देता है।
हिन्दी उपन्यास के विकास में नरेन्द्र कोहली का योगदान गुणात्मक भी है और मात्रात्मक भी। उन्होंने ऐतिहासिक उपन्यास भी लिखे, सामाजिक उपन्यास भी और पौराणिक उपन्यास भी। पौराणिक उपन्यास का वर्ग तो उनके लेखन के बाद ही हिन्दी साहित्य में एक पृथक वर्गीकरण के रूप में उभर कर सामने आया। उनके उपन्यासों की सूची इस प्रकार है :
सम्मान एवं पुरस्कार
[संपादित करें]- 1. राज्य साहित्य पुरस्कार 1975-76 ( साथ सहा गया दुख ) शिक्षा विभाग, उत्तरप्रदेश शासन, लखनऊ।
- 2. उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान पुरस्कार 1977-78 ( मेरा अपना संसार ) उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ।
- 3. इलाहाबाद नाट्य संघ पुरस्कार 1978 ( शंबूक की हत्या ) इलाहाबाद नाट्य संगम, इलाहाबाद।
- 4. उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान पुरस्कार 1979-80 ( संघर्ष की ओर ) उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ।
- 5. मानस संगम साहित्य पुरस्कार 1978 ( समग्र रामकथा ) मानस संगम, कानपुर।
- 6. श्रीहनुमान मंदिर साहित्य अनुसंधान संस्थान विद्यावृत्ति 1982 ( समग्र रामकथा ) श्रीहनुमान मंदिर साहित्य अनुसंधान संस्थान, कलकत्ता।
- 7. साहित्य सम्मान 1985-86 ( समग्र साहित्य ) हिंदी अकादमी, दिल्ली।
- 8. साहित्यिक कृति पुरस्कार 1987-88 ( महासमर-1, बंधन ) हिंदी अकादमी, दिल्ली।
- 9. डॉ. कामिल बुल्के पुरस्कार 1989-90 ( समग्र साहित्य ), राजभाषा विभाग, बिहार सरकार , पटना।
- 10. चकल्लस पुरस्कार 1991 ( समग्र व्यंग्य साहित्य ) चकल्लस पुरस्कार ट्रस्ट, 81 सुनीता, कफ परेड, मुंबई।
- 11. अट्टहास शिखर सम्मान 1994 ( समग्र व्यंग्य साहित्य ) माध्यम साहित्यिक संस्थान, लखनऊ।
- 12. शलाका सम्मान 1995-96 ( समग्र साहित्य ) हिन्दी अकादमी दिल्ली।
- 13. साहित्य भूषण -1998 ( समग्र साहित्य ) उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ।
- 14. व्यास सम्मान – 2012 (न भूतो न भविष्यति)
- 15. पद्मश्री - 2017, भारत सरकार
सन्दर्भ
[संपादित करें]- 1 2 3 4 5 6 7 8 प्रतिनाद, पत्र संकलन, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, १९९६. ISBN 81-7055-437-3
- ↑ भूमिका, सृजन साधना, copyright: ईशान महेश, वाणी प्रकाशन, १९९५, ISBN 81-7055-383-0
- ↑ अभिज्ञान, रामकथा (दीक्षा, अवसर, संघर्ष की ओर, युद्ध-१, युद्ध-२); महासमर (बंधन, अधिकार, कर्म, धर्म, अंतराल, प्रच्छन्न, प्रत्यक्ष, निर्बंध); तोड़ो, कारा तोड़ो (निर्माण, .., परिव्राजक, ..) एवं वसुदेव.
- ↑ डॉ॰ विवेकी राय, "एक व्यक्ति : नरेन्द्र कोहली", सम्पादन: कार्तिकेय कोहली, क्रिएटिव बुक कंपनी, दिल्ली-९
बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- स्मृति शेष नरेंद्र कोहली : एक युग प्रवर्तक साहित्यकार Archived 2021-06-02 at the वेबैक मशीन
- नरेन्द्र कोहली की व्यक्तिगत वेबसाइट
- फ़ेसबुक पर नरेन्द्र कोहली का साहित्य
- नरेन्द्र कोहली - साहित्य कुंज में
- नरेन्द्र कोहली की सभी उपलब्ध पुस्तकें पुस्तक आर्ग में
- आई टी वी के अशोक व्यास के साथ बातचीत - भाग १
- आई टी वी के अशोक व्यास के साथ बातचीत - भाग २
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]- NPOV disputes
- Pages using Infobox writer with unknown parameters
- Biography template using bare URL in website parameter
- साँचे के कॉल्स में नकली तर्कों का उपयोग करने वाले पृष्ठ
- नरेन्द्र कोहली
- पुस्तकें
- हिन्दी साहित्यकार (जन्म १९३१-१९४०)
- हिन्दी व्यंग्यकार
- हिन्दी उपन्यासकार
- हिन्दी गद्यकार
- शलाका सम्मान
- पद्मश्री प्राप्तकर्ता
- 1940 में जन्मे लोग
- २०२१ में निधन
