नन्दिनी (गाय)
नन्दिनी महर्षि वसिष्ठ की गाय थी। कहा जाता है की नन्दिनी का दुग्धपान करने वाला अमर हो जाता था। महर्षि विश्वामित्र ने नंदिनी के अपहरण की चेष्टा की थी। महाराज रघु नंदिनी की सेवा के लिए प्रसिद्ध है जिनके कारण उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई।
नन्दिनी, वसिष्ठ की कामधेनु का नाम है जो सुरभि की कन्या थी । राजा दिलीप ने इसी गौ को वन में चराते समय सिंह से उसकी रक्षा की थी और इसी की आराधना करके उन्होंने रघु नामक पुत्र प्राप्त किया था । महाभारत में लिखा है कि 'द्यो' नामक वसु अपनी स्त्री के कहने से इसे वसिष्ठ के आश्रम से चुरा लाया था जिसके कारण वसिष्ठ के शाप से उसे भीष्म बनकर इस पृथिवी पर जन्म लेना पड़ा था । जब विश्वामित्र बहुत से लोगों को अपने साथ लेकर एक बार वसिष्ठ के यहाँ गए थे तब वसिष्ठ ने इसी गौ से सब कुछ लेकर सब लोगों का सत्कार किया था । यह विशेषता देखकर विश्वामित्र ने वसिष्ठ से यह गौ माँगी; पर जब उन्होंने इसे नहीं दिया तब विश्वामित्र उसे जबरदस्ती ले चले । रास्ते में इसके चिल्लाने से इसके शरीर के भिन्न भिन्न अंगों में से म्लेच्छों और यवनों की बहुत सी सेनाएँ निकल पड़ीं जिन्होंने विश्वामित्र को परास्त किया और इसे उनके हाथ से छुड़ाया ।
सन्दर्भ
[संपादित करें]इन्हें भी देखें
[संपादित करें]वशिष्ठ जी के पास नंदिनी गाय थी जो कामधेनु की पुत्री थीं , जिसे देवताओं ने महर्षि वशिष्ठ को दान कर दिया था , और नंदिनी भी अपनी मां की भांति सर्व कामना पूर्ण करती थीं।
[संपादित करें]एक बार विश्वामित्र जब राजा थे तब किसी युद्ध से वापस आते भूख प्यास से व्याकुल हो अपनी सेना के साथ महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में वन में पहुंचे , महर्षि ने उन सबको भर पेट तृप्त किया , राजा विश्वामित्र को बड़ा विस्मय हुआ कि 10 हज़ार की सेना को इन तपस्वी ने कैसे वन में रह कर भी अचानक से सबका मन पसंद भोजन खिला दिया ।
[संपादित करें]उसने महर्षि से प्रश्न किया तो महर्षि ने सहज भाव से नंदिनी की महिमा बता दी ।
[संपादित करें]विश्वामित्र को लालच जाग गया , उसने कहा कि ऐसी गाय तो राजा के पास होनी चाहिए।
[संपादित करें]महर्षि बोले , राजन यदि ये जाना चाहे तो आप ले जाओ।
[संपादित करें]सैनिक गए , गाय नंदिनी को जबरदस्ती खींचने लगे ,
[संपादित करें]नंदिनी जोर जोर से रंभा कर रोने लगी!
[संपादित करें]उसने कातर भाव से महर्षि की ओर देखा और नेत्रों में जल भर कर पूछा कि महर्षि क्या आपने मुझे त्याग दिया है।
[संपादित करें]महर्षि के भी नेत्र सजल हो गए ,
[संपादित करें]नहीं पुत्री , कदापि नहीं ।
[संपादित करें]परन्तु मैं राजा और प्रजा की मर्यादा से बंधा हूं।
[संपादित करें]नंदिनी बोली महाराज मेरी मर्यादा तो आपकी सेवा है । क्या मैं अपने आत्म सम्मान की रक्षा कर सकती हूं?
[संपादित करें]महर्षि बोले अवश्य....
[संपादित करें]🐮 तब नंदिनी ने अति भयानक रूप धारण किया और उसके नथुनों से गर्म सांस के फव्वारे छूटने लगे ।
[संपादित करें]उसके सींग वक्र हो कर जब वह उस विश्वामित्र की सेना पर झपटी तो कई सैनिक धूल चाट कर परलोक सिधार गए और अनेक जा कर अपने राजा के पार्श्व में छिप गए।
[संपादित करें]विश्वामित्र के जीवन का यह टर्निग प्वांइट था शायद।
[संपादित करें]... वशिष्ठ से राजा ने कहा कि गाय को शांत करिए , तब वशिष्ठ को दया आ गई और नंदिनी की स्तुति की गई।
[संपादित करें]तब नंदिनी ने कहा , की
[संपादित करें]वशिष्ठ महर्षि की वर्षों की तपस्या के फलस्वरूप इनको ये उपहार प्राप्त हुआ जिससे ये आगे होने वाले राम अवतार के कुल के पुरोहित बनें।
[संपादित करें]आप बिना तप के सब प्राप्त करना चाहते थे।
[संपादित करें]....अपमान और ग्लानि से भर उठे थे विश्वामित्र ।
[संपादित करें]उसी क्षण विश्वामित्र ने निश्चय किया और तप साधना प्रारंभ की और पहले मुनि पद प्राप्त किया और आगे चल कर ऋषि फिर वे भी महर्षि बने।
[संपादित करें]राम अवतार में राम जी के कुल पुरोहित महर्षि वशिष्ठ थे और उनके गुरु ऋषि विश्वामित्र थे। जो जिन्होंने राम की दिव्य अस्त्र शस्त्र और अनेक युद्ध विद्या का ज्ञान दिया।
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