धरमपाल

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धरमपाल

धरमपाल (बाईं तरफ), अपने सर्वश्रेष्ठ छात्र राजीव दीक्षित के साथ
जन्म 19 फ़रवरी 1922
मुज़फ्फरनगर, उत्तर प्रदेश, भारत
मौत 24 अक्टूबर 2006(2006-10-24) (उम्र 84)
राष्ट्रीयता भारतीय
धर्म हिन्दू
उल्लेखनीय कार्य {{{notable_works}}}

धरमपाल (1922 - 2006) भारत के एक गांधीवादी विचारक, स्वतन्तता सेनानी, इतिहासकार एवं दार्शनिक थे। उन्होंने भारतीय परम्पराओं, समाज, संस्कृति और राजनीति पर कई पुस्तकें लिखीं। भारत से लेकर ब्रिटेन तक लगभग 30 वर्ष उन्होंने इस बात की खोज में लगाये कि अंग्रेजों से पहले भारत कैसा था। इसी कड़ी में उनके द्वारा जुटाये गये तथ्यों, दस्तावेजों से भारत के बारे में जो पता चलता है वह हमारे मन पर अंकित तस्वीर के उलट है। वे एक गांधीवादी विचारक, इतिहासकार और लेखक थे और उन्होंने भारत में विज्ञान के इतिहास, पुराने समाज और लोगों के बारे में काफी लिखा।

वह भारतीय सहकारी संघ (ICU) के सह-संस्थापक थे।

जीवनी[संपादित करें]

धरमपाल का जन्म 19 फरवरी 1922 को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फर नगर जिले के कांधला में हुआ था। कम उम्र से ही वे महात्मा गांधी के विचारों से गहराई से प्रभावित थे। 1940 के दशक में, भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होने के लिए उन्होंने अपनी पढ़ाई (बीएससी भौतिकी) बीच में ही छोड़ दी। उन्होंने सुचेता कृपलानी, गिरधारी कृपलानी, स्वामी आनन्द और कई अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ काम किया।

उन्होंने कमलादेवी चट्टोपाध्याय, डॉ. राम मनोहर लोहिया, एलसी जैन और अन्य लोगों के साथ उन शरणार्थियों के पुनर्वास के कार्यक्रम में भाग लिया जो भारत के विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए थे। इस प्रक्रिया में उन्होंने पाया कि राज्य की ओर से कोई हस्तक्षेप न होने पर समुदाय खुद को किस प्रकार पुनर्गठित कर सकते हैं।

नवंबर 1948 में, वह ब्रिटेन के रास्ते इज़राइल के लिए रवाना हुए। इसी प्रक्रिया में जब वे ब्रिटेन में थे तब उन्होंने खुद को लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के एक सामयिक छात्र (occational student) के रूप में नामांकित किया। उन्होंने फीलिस एलेन नामक एक ब्रिटिश महिला से विवाह किया और इजराइल की यात्रा के बाद भारत लौट आए। अगले कुछ वर्षों में, उन्होंने भारत और इंग्लैंड के बीच यात्रा की और मीराबेन और फिर [[जयप्रकाश नारायण] के साथ मिल]कर विभिन्न गतिविधियों में सक्रिय रहे। इस अवधि के दौरान उन्हें ग्रामीण विकास के लिए स्वैच्छिक एजेंसियों के संघ (एवीएआरडी) का महासचिव चुना गया। जय प्रकाश नारायण इसके अध्यक्ष थे। अगले दो दशकों तक धर्मपाल ने भारत को समझने और गांधीजी द्वारा भारतीय समाज के मूल को समझने की कोशिश में ब्रिटिश अभिलेखों और अन्य अभिलेखीय स्रोतों का अध्ययन करने में बहुत समय बिताया।

पहली बार सन 1962 में उन्होंने 'भारतीय राजनीति के आधार के रूप में पंचायत राज' नमक लेख प्रकाशित किया जिसमें भारत की संविधान सभा में पंचायती राज के विषय में हुई चर्चाओं का सार दिया गया था।

सविनय अवज्ञा और भारतीय परंपरा (1971) धरमपाल की दूसरी पुस्तक है जो ब्रिटिश अभिलेखागार में उनके व्यापक अध्ययन के दौरान एकत्र की गई सामग्री पर आधारित है। यह सन १८१०-११ के बीच बनारस और बिहार के कई शहरों में चले तीव्र नागरिक अवज्ञा आन्दोलन के बारे में है। यह आन्दोलन अंग्रेजों द्वारा लगाये गये एक नये गृह-कर के विरुद्ध आरम्भ हुआ था। भारत के लोगों को इस प्रकार के कर (टैक्स) का कोई अनुभव ही नहीं था। इस पुस्तक में उन्होंने यह सिद्ध किया गया कि महात्मा गांधी द्वारा चलाया गया सविनय अवज्ञा आन्दोलन भी उस पुरानी और जीवन्त परंपरा की ही एक नयी कड़ी था। इस पुस्तक में धर्मपाल जी ने यह तो दिखाया ही कि भारतीय परंपराओं में सविनय अवज्ञा का एक लंबा इतिहास है, इसके साथ यह भी दिखाया कि गांधी के पास भारतीय समाज के बारे में एक अंतर्दृष्टि थी।

अठारहवीं शताब्दी में भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी (1971) में उन्होंने अनेक लेख संकलित किये हैं जो प्रारंभिक ब्रिटिश अधिकारियों, विद्वानों और पर्यवेक्षकों द्वारा लिखे गये थे। ये लेख खगोल विज्ञान, धातु विज्ञान, कृषि, वास्तुकला और चिकित्सा आदि में भारतीय तकनीकी प्रथाओं के बारे में हैं। इस पुस्तक ने अंग्रेजों के भारत में जड़ जमाने के पहले के भारत के विज्ञान और प्रौद्योगिकी की उन्नत अवस्था को रेखांकित करने में मदद की। यह पुस्तक भारत की परम्पराओं के बारे में स्थापित की गयी जो वर्तमान समझ है, उस पर सवाल खड़े करती है।

'द ब्यूटीफुल ट्री : इंडिजिनस इंडियन एजुकेशन इन द एटीन्थ सेंचुरी' (1983) उनकी महान रचना है। यह ब्रिटिश अभिलेखागार से एकत्रित सामग्री पर आधारित है। इसमें उन्होंने उन दस्तावेजों को संकलित किया है जो सन 1822 में मद्रास के गवर्नर थॉमस मुनरो के उस समय में मौजूद देशी शिक्षा के सर्वेक्षण के आदेश के फलस्वरूप तैयार किये गये थे। ये दस्तावेज मद्रास प्रेसिडेन्सी के २१ जिलों के कलेक्टरों द्वारा तैयार करके भेजे गये थे। इन दस्तावेजों में तत्कालीन देशी स्कूलों और उच्च शिक्षा की संस्थाओं के बारे में विस्तृत विवरण हैं। यह विवरण आश्चर्यचकित कर देने वाला है और दर्शाता है कि अंग्रेजों के हस्तक्षेप करने के पहले की भारतीय शिक्षापद्धति अत्यन्त विस्तृत थी और सभी के लिये सुलभ थी, केवल कुछ के लिये नहीं। डब्ल्यू आदम (1835-38) और जी डब्ल्यु लिटनर (1882) की रिपोर्टों के सार भी इस पुस्तक में दिये गये हैं। इन दो रिपोर्टों में क्रमशः बंगाल और पंजाब के देशी शिक्षा की स्थिति का विवरण दिया गया था।

यह पुस्तक उस मिथक को खंडित करता है कि अंग्रेजों के पहले भारत अंधेरे में था और भारत में बड़ी संख्या में लोगों को शिक्षा तक पहुंच से वंचित रखा गया था। इस पुस्तक से पता चलता है कि प्रारंभिक और उच्च स्तर पर सार्वजनिक शिक्षा भारत के सभी हिस्सों में तब तक व्यापक थी, और इसकी स्थिति आगे खराब होती गयी जब अंग्रेजों ने इसे चतुराई से उखाड़कर इसे अपनी शिक्षा-प्रणाली से बदलना शुरू किया। यह पुस्तक यह भी दर्शाती है कि भारत की शिक्षा प्रणाली में समाज के सभी वर्गों और सभी जातियों को शामिल किया गया था। जिन जातियों को आजकल 'छोटी' और अनुसूचित जाति माना जाता है, उनकी भी इस व्यवस्था में छात्रों और शिक्षकों दोनों के रूप में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी थी।

भारतीय चित्त, मानस और काल (1993) को धर्मपाल के सबसे महत्वपूर्ण कृतियों में से एक माना जाता है। इस छोटे, लेकिन मौलिक कृति में वे भारतीय चेतना की विशिष्टताओं, समय की भारतीय परिकल्पना और भारतीय होने के अर्थ पर विचार करते हैं।

वह उन कुछ महान विद्वानों में से एक थे जिन्होंने वास्तव में महात्मा गांधी को गंभीरता से लिया। उन्होंने चेन्नई से "देशभक्ति और जन-उन्मुख विज्ञान और प्रौद्योगिकी" (Patriotic and People-Oriented Science and Technology (PPST)) नामक एक आंदोलन चलाया जिससे प्राचीन भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर जमी परतों को हटाने में सहायता मिली। इस पहल के माध्यम से अन्य संस्थानों के सहयोग से कई विज्ञान प्रदर्शनियाँ आयोजित की गईं। धर्मपाल विभिन्न नवीन उद्देश्यों के लिए जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों को एक साथ ला सकते थे।

वे सन 1975 से 1977 के आपातकाल विरोधी अभियान में भी सक्रिय रूप से शामिल थे, पहले लंदन से और फिर पटना से। कई विद्वान उनके द्वारा उठाये गये कुछ कदमों से असहज थे, इसमें से एक था बाबरी मस्जिद विध्वंस पर उनका विचार। उन्होंने अनेकों व्याख्यान दिए और वर्ष 1982 से 2004 के दौरान पूरे भारत में बड़े पैमाने पर यात्रा की।

अपने पूरे जीवन वे एक प्रतिबद्ध गांधीवादी थे। भारत क्या है और भारतीय संस्कृति कैसे कार्य करती है, इस पर उनके विद्वतापूर्ण विचार गुनने योग्य हैं।

2006 में 84 वर्ष की आयु में सेवाग्राम आश्रम में उनका निधन हो गया।

कृतियाँ[संपादित करें]

उनके द्वारा रचित प्रमुख पुस्तकें हैं-

  • भारतीय चित्त मानस और काल
  • साइंस एण्ड टेक्नालॉजी इन एट्टींथ सेंचुरी[1] (अट्ठारहवीं शताब्दी में विज्ञान और प्रौद्योगिकी)
  • द ब्यूटीफुल ट्री (वह सुन्दर वृक्ष)
  • भारत का स्वधर्म
  • सिविल डिसआबिडिएन्स एण्ड इंडियन ट्रेडिशन (नागरिक अवज्ञा और भारतीय परम्परा)
  • Despoliation and Defaming of India: The Early 19th Century British Crusade (भारत का विनाश और अपमान)
  • Understanding Gandhi
  • Rediscovering India
  • The British Origin of Cow-Slaughter in India : with some British Documents on the Anti-Kine-Killing Movement1880-1894,
  • The Madras Panchayat System : A General Assessment।

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "INDIAN SCIENCE AND TECHNOLOGY IN THE EIGHTEENTH CENTURY" (PDF). मूल (PDF) से 23 मई 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 23 मई 2018.