द्वैत वेदांत
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हिन्दू दर्शन |
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शाखाएं
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द्वैत वेदांत हिंदू दर्शन की एक महत्वपूर्ण शाखा है, जिसका प्रतिपादन 13वीं शताब्दी के दार्शनिक मध्वाचार्य ने किया। इसे वेदांत दर्शन की प्रमुख व्याख्याओं में गिना जाता है। द्वैत वेदांत में ईश्वर (विष्णु/नारायण) और जीवात्मा के बीच पूर्ण भिन्नता मानी जाती है।
उत्पत्ति
[संपादित करें]द्वैत वेदांत की स्थापना मध्वाचार्य (1238–1317 ई.) ने की थी। उन्होंने दक्षिण भारत में अपने विचारों का प्रचार किया और कई टीकाएँ एवं ग्रंथ रचे। यह परंपरा आगे चलकर ब्राह्म सम्प्रदाय के रूप में वैष्णव सम्प्रदायों में से एक प्रमुख सम्प्रदाय बनी।
दर्शन
[संपादित करें]द्वैत वेदांत का मुख्य सिद्धांत ‘‘ईश्वर और जीव के बीच द्वैत’’ है। इसके अनुसार –
- ईश्वर (विष्णु) सर्वशक्तिमान और सर्वोच्च सत्ता हैं।
- जीवात्मा और ईश्वर में शाश्वत अंतर है; जीव कभी भी ईश्वर के समान नहीं हो सकता।
- मोक्ष केवल ईश्वर की कृपा और भक्ति से ही संभव है।
- संसार और जीव वास्तविक हैं, इन्हें माया नहीं माना गया।
प्रमुख ग्रंथ
[संपादित करें]- भगवद्गीता पर मध्वाचार्य की टीका
- ब्रह्मसूत्र भाष्य
- वेद और पुराणों पर लिखी गई व्याख्याएँ
प्रभाव
[संपादित करें]द्वैत वेदांत का प्रभाव मुख्यतः दक्षिण भारत में अधिक रहा। कर्नाटक और आस-पास के क्षेत्रों में इसके अनुयायियों ने मठों और संस्थानों की स्थापना की। आगे चलकर यह परंपरा विभिन्न क्षेत्रों तक फैली और अनेक संतों तथा विद्वानों ने इसे आगे बढ़ाया।
अन्य वेदांत दर्शन
[संपादित करें]वेदांत दर्शन की अन्य प्रमुख धाराएँ हैं –
- अद्वैत वेदांत (शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित)
- विशिष्टाद्वैत (रामानुजाचार्य द्वारा प्रतिपादित)
- शुद्धाद्वैत (वल्लभाचार्य द्वारा प्रतिपादित)