द्वैतवाद

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संस्कृत शब्द 'द्वैत', 'दो भागों में' अथवा 'दो भिन्न रूपों वाली स्थिति' को निरूपित करने वाला एक शब्द है। इस शब्द के अर्थ में विषयवार भिन्नता आ सकती है। दर्शन अथवा धर्म में इसका अर्थ पूजा अर्चना से लिया जाता है जिसके अनुसार प्रार्थना करने वाला और सुनने वाला दो अलग रूप हैं। इन दोनों की मिश्रित रचना को द्वैतवाद कहा जाता है।[1] इस सिद्धान्त के प्रथम प्रवर्तक मध्वाचार्य (1199-1303) थे।

शब्द-मूल[संपादित करें]

द्वैतवाद को 'द्वित्ववाद' के नाम से भी जाना जाता है। द्वैतवाद के अनुसार सम्पूर्ण सृष्टि के अन्तिम सत् दो हैं। इसका एकत्वाद या अद्वैतवाद के सिद्धान्त से मतभेद है जो केवल एक ही सत् की बात स्वीकारता है। द्वैतवाद में जीव, जगत्, तथा ब्रह्म को परस्पर भिन्न माना जाता है। कहीं कहीं दो से अधिक सत् वाले बहुत्ववाद के अर्थ में भी द्वैतवाद का प्रयोग मिलता है। यह वेदान्त है क्योंकि इसे श्रुति, स्मृति, एवं ब्रह्मसूत्र के प्रमाण मान्य हैं। ब्रह्म को प्राप्त करना इसका लक्ष्य है, इसलिए यह ब्रह्मवाद है।

द्वैतवाद 13वीं शताब्दी से शुरु हुआ। यह अलग बात है कि इसके प्रवर्तक मध्वाचार्य ने इसे पारम्परिक मत बताया है। इस मत के अनुयायी सम्पूर्ण भारत में मिलते हैं परन्तु महाराष्ट्र, कर्नाटक, तथा गोवा से लेकर कर्नाटक तक के पश्चिमी तट में इनकी संख्या काफी है। इनके ग्यारह मठों में से आठ कर्नाटक में ही हैं।

मध्वाचार्य ने श्रुति तथा तर्क के आधार पर सिद्ध किया कि संसार मिथ्या नहीं है, जीव ब्रह्म का आभास नहीं है, और ब्रह्म ही एकमात्र सत् नहीं है। उन्होंने इस प्रकार अद्वैतवाद का खण्डन किया तथा पाँच नित्य भेदों को सिद्ध किया। इस कारण इस सिद्धान्त को 'पंचभेद सिद्धान्त' भी कहा जाता है। पाँच भेद ये हैं -

  1. ईश्वर का जीव से नित्य भेद है।
  2. ईश्वर का जड़ पदार्थ से नित्य भेद है।
  3. जीव का जड़ पदार्थ ने नित्य भेद है।
  4. एक जीव का दूसरे जीव से नित्य भेद है।
  5. एक जड़ पदार्थ का दूसरे जड़ पदार्थ ने नित्य भेद है।

द्वैतवाद में कुल दस पदार्थ माने गये हैं - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, विशिष्ट, अंशी, शक्ति, सादृश्य, तथा अभाव। प्रथम पांच तथा अन्तिम वैशेषिक पदार्थ हैं। विशिष्ट, अंशी, शक्ति, तथा सादृश्य को जोड़ देना ही मध्व मत की वैशेषिक मत से विशिष्टता है।

इस मत में द्रव्य बीस हैं - परमात्मा, लक्ष्मी, जीव, अव्याकृत, आकाश, प्रकृति, गुणत्रय, अहंकारतत्त्व, बुद्धि, मन, इन्द्रिय, मात्रा, भूत, ब्रह्माण्ड, अविद्या, वर्ण, अन्धकार, वासना, काल, तथा प्रतिबिम्ब।

द्वैतवाद और अद्वैतवाद का परस्पर खण्डन-मण्डन[संपादित करें]

द्वैतवाद के खण्डन के लिए अद्वैतवादी मधुसूदन सरस्वती ने न्यायामृत तथा अद्वैतसिद्धि जैसे ग्रन्थों की रचना की। इसी तरह द्वैतवाद के खण्डन के लिए जयतीर्थ ने बादावली तथा व्यासतीर्थ ने न्यायामृत नामक ग्रंथों की रचना की थी। रामाचार्य ने न्यायामृत की टीका तरंगिणी नाम से लिखी तथा अद्वैतवाद का खण्डन कर द्वैतवाद की पुनर्स्थापना की। फिर तरंगिणी की आलोचना में ब्रह्मानन्द सरस्वती ने गुरुचन्द्रिका तथा लघुचंद्रिका नामक ग्रन्थ लिखे। इन ग्रन्थों को गौड़-ब्रह्मानन्दी भी कहा जाता है। अप्पय दीक्षित ने मध्वमतमुखमर्दन नामक ग्रन्थ लिखा तथा द्वैतवाद का खण्डन किया। वनमाली ने गौड़-ब्रह्मानन्दी तथा मध्वमुखमर्दन का खण्डन किया तथा द्वैतवाद को अद्वैतवाद के खण्डनों से बचाया।

इस प्रकार के खण्डन-मण्डन के आधार उपनिषदों की भिन्न व्याख्याएं रही हैं। उदाहरण के लिए, 'तत्त्वमसि' का अर्थ अद्वैतवादियों ने 'वह, तू है' किया जबकि मध्वाचार्य ने इसका अर्थ निकाला 'तू, उसका है'। इसी प्रकार 'अयम् आत्मा ब्रह्म' का अद्वैतवादियों ने अर्थ निकाला, 'यह आत्मा ब्रह्म है', तथा द्वैतवादियों ने अर्थ निकाला - 'यह आत्मा वर्धनशील है'। इस प्रकार व्याख्याएं भिन्न होने से मत भी भिन्न हो गये।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. जगदीश विष्णु पुरोहित. दृष्टि के उस पार. सी॰जी॰ एण्ड कम्पनी लखनऊ. पृ॰ १८.

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]