दुरसाजी आढ़ा

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राष्ट्रकवि
दुरसा जी आढ़ा
हिंदुवादी प्रथम राष्ट्रकवि दुरसा जी आढ़ा
जन्म1535
धूँदला, पाली जिला(पहले जोधपुर)
मौत1655
पाँचेटिया
पेशा
भाषा
उल्लेखनीय कामsविरुद छिहत्तरी
किरतार बावनी
बच्चेभारमल, जगमाल, सादुल, कमजी, और किसनाजी।

दुरसा जी आढ़ा (ई. 1535-1655) भारत के 16वीं सदी के योद्धा और राजस्थानी ( डिंगल ) कवि थे। [1] उन्हें भारत के 'प्रथम राष्ट्रवादी कवि' की संज्ञा प्राप्त है। इसका कारण उनका मुगलों के खिलाफ मेवाड़ के महाराणा प्रताप के संघर्ष के पक्ष में अपनी साहसी डिंगल कविताओं में प्रखर राष्ट्रवादी स्वर है। [2] वह उस समय के सबसे उच्च माने जाने वाले कवियों में से एक हैं, जो मुगल दरबार का एक मूल्यवान और सम्मानजनक हिस्सा भी थे। वह एक उत्कृष्ट साहित्यकार, इतिहासकार, युद्ध सेनापति, सलाहकार, मध्यस्थ, प्रशासक थे। उनके कई पूर्ववर्ती राज्यों के शासकों के साथ घनिष्ठ संबंध थे। अपने जीवनकाल में अर्जित धन, प्रसिद्धि और सम्मान के आधार पर और राजस्थान के इतिहास और साहित्य में उनके योगदान के आधार पर, राजस्थान के इतिहासकार और साहित्यकार उन्हें सबसे महान कवियों में से एक मानते हैं।[3] दुरसा जी आढ़ा के समान वैभव और आभिजात्य की ऊँचाइयां किसी कवि द्वारा स्पर्श किया जाना इतिहास में कतिपय ही देखा गया है।

दिल्ली साहित्य अकादमी की 'भारतीय साहित्य के निर्माता' नामक सूची में भारतीय इतिहास के महान साहित्यकारों में दुरसा जी आढ़ा का नाम सम्मिलित है।

उन्होंने महाराणा प्रताप की प्रशंसा में कविताएँ लिखीं, और जब प्रताप के निधन की खबर मुगल दरबार में पहुँची, तो निडर होकर अकबर की उपस्थिति में प्रताप का बखान किया। [4]

रोचक बात है कि दुरसा जी से 4 पीढ़ी पश्चात् मेवाड़ के सिसौदिया वंश का मूल गाँव सिसौदा भी, दुरसा जी के वंशजों को ही जागीर में मिला जहाँ वे आज तक निवास करते हैं।

प्रारंभिक जीवन[संपादित करें]

दुरसाजी आढ़ा का जन्म 1535 ए.डी. (विक्रम संवत 1592 माघ सुदी चौहदस) में सोजत परगने (पाली) व मारवाड़ राज्य के धूँदला गांव में चारणों की आढ़ा शाखा में हुआ था। उनके पिताजी मेहाजी आढ़ा हिंगलाज माता के अनन्य भक्त थे और उन्होंने तीन बार बलूचिस्तान में हिंगलाज शक्तिपीठ की तीर्थयात्रा की। [5] उनके पूर्वज जालौर जिले के असाडा के गांव से संबन्धित थे और इस प्रकार उनकी शाखा का नाम आढ़ा पड़ा। [6] दुरसाजी आढ़ा अपने पिता की ओर से गौतम के वंश में पैदा हुआ थे, जबकि उनकी मां धनी बाईजी चारणों की बोगसा शाखा से थी व विख्यात गोविंदजी बोगसा की बहन थी। जब दुरसाजी छह वर्ष के थे, उनके भक्त पिता मेहाजी आढ़ा फिर से हिंगलाज की तीर्थ यात्रा पर चले गए और इस बार उन्होंने वहीं पर संन्यास ले लिया। इसलिए पिता की अनुपस्थिति में घर चलाने के लिए उन्हें एक किसान के खेत में बाल मजदूर का काम करना पड़ा। [5]

कठिनाइयां[संपादित करें]

मारवाड़ राज्य के धुंदला गांव में एक खेत में काम करने वाला एक बालक बालवाड़ी में सिंचाई कर रहा था, लेकिन उस लड़के से सिंचाई के लिए इस्तेमाल की जा रही रेत का कच्चा नाला टूट जाने से दोनों तरफ से पानी निकलने लगा। गुस्साए किसान ने क्रूरता की सारी हदें पार करते हुए उस बालक को टूटे रास्ते में डाल दिया और उस पर मिट्टी डाल दी, ताकि उसकी फसल की सिंचाई के लिए पानी का फैलाव न हो। [5]

उस समय बगड़ी नामक जागीर के सामंत ठाकुर प्रताप सिंह अपने घोड़ों को चराने के लिए किसान के खेत में स्थित कुएं पर आए थे, जब उनकी नजर खेत की मिट्टी में दबे लड़के पर पड़ी, तो वह चौंक गए।जब यह ज्ञान हुआ कि वह बालक एक चारण था, वह लड़के को अपने साथ सोजत ले गये और उसकी उचित शिक्षा और दीक्षा की व्यवस्था की। कुछ वर्षों में, वह बच्चा एक सक्षम प्रशासक, योद्धा और एक प्रतिभाशाली कवि और विद्वान बन गया । वही बालक महाकवि दुरसाजी आढ़ा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। [5]

जीवन[संपादित करें]

दुरसाजी ने अपनी शिक्षा और प्रशिक्षण समाप्त होने के बाद न केवल एक प्रतिभाशाली कवि बन गए थे, उनकी तलवार भी उनकी कलम की तरह तेज़ थी। उनकी कुशाग्र बुद्धि को देखते हुए बगड़ी के ठाकुर प्रताप सिंह ने उन्हे अपना प्रधान सलाहकार और सेनापति नियुक्त किया। दुरसा जी को पुरस्कार के रूप में धूँदला और नाथलकुडी नाम के दो गाँवों की जागीर से नवाजा गया। [7]

दुरसाजी आढ़ा और सिरोही राज्य[संपादित करें]

1583 ई. में, मुगल सम्राट अकबर ने सिरोही के राव सुरतन सिंह के खिलाफ जगमाल सिसोदिया (मेवाड़ ) के पक्ष में एक सेना भेजी, मारवाड़ राज्य ने भी जगमल के पक्ष में सुरतन सिंह के खिलाफ मोर्चा खोला। उस सेना में मारवाड़ से बगड़ी ठाकुर प्रताप सिंह और दुरसाजी आढ़ा भी थे। दोनों सेनाएं आबू के निकट दातानी नामक स्थान पर भिड़ी, जिसमें प्रताप सिंह जी की लड़ते हुए मृत्यु हो गई और दुरसाजी गंभीर रूप से घायल हो गये। शाम को, महाराव सुरतान सिंह अपने सामंतों सहित अपने घायल सैनिकों की देखभाल कर रहे थे, जब उन्हें दुरसाजी आढ़ा मिले और वह उन्हें अफीम का दूध (दर्द रहित तरीके से जीवन समाप्त करने के लिए) देने वाले थे। घायल दुरसाजी ने किसी प्रकार अपना परिचय देने में सफल रहे, उन्होंने कहा कि वह एक चारण हैं, और सबूत के रूप में, उन्होंने योद्धा समरा देवड़ा की प्रशंसा में तुरंत एक दोहे की रचना की, जो उस युद्ध में वीरतापूर्वक लड़ते हुए मारा गया था। [7]

महाराव इस दोहे को सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुए और दुरसाजी के चारण होने की पहचान होने पर ; उन्हे स्वयं अपनी डोली( पालके) में साथ ले गए और उनके घावों का इलाज करवाया। राव सुरतन सिंह ने दुरसाजी की प्रतिभा से प्रसन्न होकर उन्हे अपने साथ रहने के लिए कहा और अपने किले के प्रोलपात (किले के रक्षक) की पदवी की पेशकश की। दुरसाजी ने सुरतान सिंह के इस सम्मान को स्वीकार लिया और उन्हें उंड, पेशुआ, झांकर, साल नाम के 4 गाँवों की जागीर से नवाजा गया। इसके बाद दुरसा जी सिरोही में रहे। [7]

महाकवि दुरसाजी ने तत्कालीन मुगल शासकों के राजनीतिक उद्देश्यों को समझा और अपनी कविताओं के माध्यम से अपने विचारों को व्यक्त करने में कभी असफल नहीं हुए। राजस्थान में जब वे मेवाड़ पहुंचे तो महाराणा अमर सिंह ने स्वयं दुरसाजी का भव्य स्वागत किया और बड़ी पोल पर उनका स्वागत किया। [2]

दुरसाजी आढ़ा ने चारणों द्वारा 1586 ईस्वी में मोटा राजा उदय सिंह के खिलाफ किए गए आउवा के धरने का नेत्रत्व किया। [8]

दुरसाजी आढ़ा के शासन की जागीरें[संपादित करें]

उंड,‌‌‌‍‌‌‌‌‌‌ धूँदला, नातल कुड़ी, पाँचेटिया, जसवंतपुरा, गोदावास, हिंगोला खुर्द, लुंगिया, पेशुआ, झांकर, साल,डागला, वराल, शेरुवा, पेरुवा, रायपुरिया, दुथारिया, कांगड़ी, तसोल। इनके अलावा, बीकानेर के राजा राय सिंह ने दुरसाजी को चार गांवों की जागीर से सम्मानित किया, जिसकी पुष्टि बीकानेर के इतिहास से होती है। [5]

इमारतें और स्मारक[संपादित करें]

दुरसाजी के अपनी जागीरों में निर्माण संबंधित कार्य:- [5]

पेशुआ[संपादित करें]

1. दुरसालाव पेशुआ (तालाब)

2. बालेश्वरी माता मंदिर (मंदिर)

3. कानको दे सती स्मारक (स्मारक)

4. पेशुआ का शाशन थड़ा

झांकर[संपादित करें]

1. फुतेला तलाव (तालाब) 2. झांकर का थड़ा

पाँचेटिया[संपादित करें]

1. किसनालाव पाँचेटिया (तालाब)

2. शिव मंदिर (मंदिर)

3. दुर(सा)श्याम मंदिर (मंदिर)

4. धौळिया महल (धवल महल)

5. काळिया महल (काला महल)

हिंगोला खुर्द[संपादित करें]

1. हिंगोला महल (महल) 2. हिंगोला का तालाब (तालाब)

रायपुरिया[संपादित करें]

1. बावड़ी (बावड़ी) का निर्माण,

इस बावड़ी का निर्माण मेवाड़ रियासत के रायपुरिया गांव में किया गया था, जहां से पानी पाँचेटिया (मारवाड़) तक पहुंचाया जाता था, क्योंकि आउवा के धरने के बाद दुरसाजी जी ने मारवाड़ के पानी को त्याग दिया था। [5]

दुरसाजी आढ़ा के सम्मान में राजाओं द्वारा पुरस्कार[संपादित करें]

मध्ययुगीन काल में लाख पसाव या करोड़ पसाव नामक पुरस्कारों से प्रतिभाशाली चारणों का सम्मान किया जाता था। जब कभी प्रसिद्ध चारण कवि एक राजपूत शासक के दरबार में जाते थे, तो उन्हें राजाओं द्वारा हाथी, पालकी या घोड़े पर बैठा कर उनका राजकीय सम्मान किया जाता था। [5]

करोड़ पसाव पुरस्कार:

मृत्यु और विरासत[संपादित करें]

दुरसा जी आढ़ा विषमता और विपन्नता के अंधकार से उठकर संपन्नता, ऐश्वर्य और उससे भी अधिक, राष्ट्र गौरव के तेज से साहित्य क्षितिज का चमकता नक्षत्र बन जाने वाले एक विलक्षण व्यक्तित्व हैं। सत्यनिष्ठा और प्रतिभा पर कोई भी चुनौती ग्रहण नहीं बन सकती है, दुरसा जी का जीवन उसका श्रेष्ठ उदाहरण है। बचपन में कठिनाईयों का सामना करना पड़ा था, लेकिन उन्होंने प्रशासक और काव्य प्रतिभा से सम्मान अर्जित किया। वह दिल्ली, बीकानेर, जोधपुर और सिरोही सहित कई शाही दरबारों का हिस्सा रहे। मुगल बादशाह अकबर के साथ भी उनके अच्छे संबंध थे। [6]

दुरसा जी आढ़ा की 2 पत्नियाँ थीं और उनसे उनके 4 पुत्र थे, जिनका नाम भारमल, जगमाल, सादुल, कमजी और किसना जी था। [5]

अपने अंतिम दिनों में वह अपने बेटे किसना जी के साथ पाँचेटिया गांव (पाली ज़िला, राजस्थान) में रहते थे, जहां 1655 में उनकी मृत्यु हो गई। [6]

उनकी मृत्यु पर, उनकी दो पत्नियों के साथ, एक पासवान और दो सेविकाएं सती हुईं। [5]

रचनाएँ[संपादित करें]

दुरसाजी आढ़ा द्वारा लिखी गई कविताएँ ज्यादातर उस समय के शासकों की वीरता और युद्दों से संबंधित हैं, लेकिन कई सांसारिक मामलों का भी वर्णन करती हैं। अकबर और महाराणा प्रताप के बारे में उनके लेखन के मामले में, उन्होंने अपने विषयों की उपलब्धियों को व्यक्तिगत रूप से तब भी माना जब वे लगातार एक-दूसरे के विरोधी थे। उन्होंने हिंदू धर्म में अपनी गहरी आस्था व्यक्त थी, हिंदू नायकों की बहादुरी की सराहना की और मुगलों के अन्याय के बारे में लिखा। [6]

उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं: [6]

  • विरुद छिहत्तरी (महाराणा प्रताप के सम्मान में)
  • दोहा सोलंकी वीरमदेवजी रा
  • झूलना राव सुरतन रा
  • मरसिया राव सुरतन रा
  • झूलना राजा मानसिंह कच्छवाहा रा
  • झूलाना रावत मेघा रां
  • गीत राजी श्री रोहितासजी रा
  • झूलना राव अमरसिंह गजसिंहोत (नागौर के राव अमरसिंह की वीरतापूर्ण कविता)
  • किरतार बावनी
  • माताजी रा छंद
  • श्री कुमार अज्जाजी और भुचर मोरी नि गजगत

संदर्भ[संपादित करें]

 

  1. Sehgal, K. k (1960). Rajasthan District Gazetteers Pali.
  2. Saṃskṛti. Śikshā Mantrālaya. 1978. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; ":2" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  3. "A History of Rajasthan - Google Search". www.google.com. अभिगमन तिथि 2021-05-10.
  4. N.A. (1959). MEDIEVAL INDIAN LITERATURE AN ANTHOLOGY VOL. 4. SAHITYA AKADEMI, NEW DELHI.
  5. Rawat, saswat (1983). Dursa Aarha. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; ":0" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  6. Datta, Amaresh, संपा॰ (1987). The Encyclopaedia of Indian literature Volume One (A To Devo). Sahitya Akademi. पपृ॰ 73–74. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788126018031. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; "Sahitya" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  7. Lala Sita Ram (1920). History Of Sirohi Raj. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; ":1" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  8. Rāṭhauṛa, Vikramasiṃha (1996). Māravāṛa kā sāṃskr̥tika itihāsa. Rājasthānī Granthāgāra.