दीर्घश्रवा

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दीर्घश्रवा, दीर्घतपस् अथवा दीर्घमतस् के पुत्र थे जो ऋषि होने के अधिकारी थे परन्तु ऋग्वेद ने इन्हें वणिक (बनिया) कहा है। कारण यह जान पड़ता है कि अकाल पड़ने पर इन्होंने जीवनयात्रा के लिए वणि वृत्ति (वाणिज्य) अपना ली थी। इनके भाइयों में से एक का नाम था कक्षिवट और दूसरे का धन्वन्तरि।

विश्वसाहित्य में पहली बार व्यापारी का उल्लेख दीर्घश्रवा के रूप में ऋग्वेद में हुआ है । कवि अश्विनी देवों की शक्तियों के प्रसंग में कहता है- औशिजाय दीर्घश्रवसे वणिजे याभिः मधुकोशो अक्षरत् , “हे अच्छे दान देने वाले अश्वि देवो ! कुशिक् पुत्र दीर्घश्रवा नामक व्यापारी के लिए जिन शक्तियों से तुम दोनों ने शहद का भण्डार दिया ।” (1.112. 11) मधुकोष देने का यह अर्थ किया जाता है कि अश्विनी देवों ने उसके लिए जल बरसाया। उसका यह अर्थ भी हो सकता है कि व्यापार से उसे लाभ हुआ।

सन्दर्भ[संपादित करें]