दाराशा नौशेरवां वाडिया

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दाराशा नौशेरवां वाडिया
जन्म 25 अक्टूबर 1883
सूरत
मौत 15 जून 1969 Edit this on Wikidata
नागरिकता भारत, ब्रिटिश राज, भारतीय अधिराज्य Edit this on Wikidata
पेशा प्रोफ़ेसर,[1] भूवैज्ञानिक Edit this on Wikidata
संगठन कोलकाता विश्वविद्यालय Edit this on Wikidata
उल्लेखनीय कार्य {{{notable_works}}}

प्रोफेसर दाराशा नौशेरवां वाडिया (Darashaw Nosherwan Wadia FRS ; 25 अक्तूबर 1883 – 15 जून 1969) भारत के अग्रगण्य भूवैज्ञानिक थे। वे भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण में कार्य करने वाले पहले कुछ वैज्ञानिकों में शामिल थे। वे हिमालय की स्तरिकी पर विशेष कार्य के लिये प्रसिद्ध हैं। उन्होने भारत में भूवैज्ञानिक अध्ययन तथा अनुसंधान स्थापित करने में सहायता की। उनकी स्मृति में 'हिमालयी भूविज्ञान संस्थान' का नाम बदलकर १९७६ में 'वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्‍थान' कर दिया गया। उनके द्वारा रचित १९१९ में पहली बार प्रकाशित 'भारत का भूविज्ञान' (Geology of India) अब भी प्रयोग में बना हुआ है।

परिचय[संपादित करें]

डी एन वाडिया को सूरत में हुआ। वे, ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए जलपोत निर्माण करने वाले एक प्रतिष्ठित परिवार से थे जो सूरत के पास बस गया था। परिवार के लोग उन्हें प्यार से 'दारा' बुलाते थे। उन्हें प्रारम्भिक शिक्षा के लिए सूरत भेजा गया। इस समय वे अपनी नानी की कड़ी निगरानी और अनुशासन के अधीन रहे। पहले उन्होंने गुजरात के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाई की, फिर वे जे0जे0 इंग्लिश स्कूल में अध्ययन के लिए गए।

बारह वर्ष की आयु में, दारा वडोदरा हाई स्कूल गए। उन पर अपने बड़े भाई एम एन वाडिया का गहरा प्रभाव रहा जो एक प्रतिष्ठित शिक्षाविद् थे। उनकी निगरानी में दारा ने प्रकृति-प्रेम, ज्ञान के प्रति समर्पण तथा विद्याध्ययन की उत्कट इच्छा जैसे गुणों को आत्मसात किया।

सन् 1905 में प्रो0 वाडिया ने अपनी स्नातम उपाधि, कला तथा विज्ञान में, प्रकृति विज्ञान, प्राणि विज्ञान तथा वनस्पति विज्ञान विषयों के साथ बड़ौदा कालेज से प्राप्त की। उनमें भूविज्ञान विषय में रुचि जगाने का श्रेय उनके कालेज प्रिंसिपल प्रो0 अदारजी एम0 मसानी को जाता है, इस समय तक भारत में भूविज्ञान विषय बहुत कम पढ़ाया जाता था। उन्होंने अपनी स्नातक उपाधि की पढ़ाई के लिए भूविज्ञान को भी एक विषय के रूप में चुना हालांकि उस समय बड़ौदा कालेज में भूविज्ञान की शिक्षा प्रदान करने हेतु पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध नहीं थी। उन्होंनं निजी छात्रवृत्ति तथा ज्यादातर स्वाध्याय के बल पर अच्छे अंक लेकर स्नातक उपाधि प्राप्त की। बाद में वाडिया कुछ समय के लिए बड़ौदा काॅलेज में व्याख्याता के पद पर भी सेवारत रहे।

सन् 1906 में, श्री वाडिया की नियुक्ति प्रिन्स आॅफ वेल्स कालेज, जम्मू, में व्याख्याता के पद पर हुई। जम्मू ने उन्हें अपनी भूवैज्ञानिक खोजों का अनुशीलन करने की दृष्टि से एक आदर्श वातावरण प्रदान किया। उनकी योग्यता तथा क्षमताओं के मान्यतास्वरुप उन्हें, यहां भूविज्ञान विभाग को प्रारंभ से ही संगठित करने का कार्य सौंपा गया।

सन् 1921 तक उन्होंने इस कालेज में अध्यापन कार्य जारी रखा, तदोपरान्त उन्होंने भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण में सहायक अधीक्षक के पद पर नियुक्ति स्वीकार कर ली। जम्मू में अपनी पदावधि के दौरान, वे कई वर्षों तक, 1907 से 1920 तक भूवैज्ञानिक फील्ड कार्य तथा अध्ययन करने के प्रति समर्पित रहे। उन्होंनं इन वर्षों के दौरान हिमालय से सम्बन्धित कुछ नए विचारों को जामा पहनाने की दृष्टि से पर्याप्त सामग्री तथा प्रमाण इकट्ठे किए। सन् 1919 में उन्होंने अपनी पुस्तक 'जियोलाॅजी आॅफ इंडिया' प्रकाशित की (मैकमिलन, लदंन)।

भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण में सहायक अधीक्षक के पद पर 38 साल की उम्र में हुई नियुक्ति ने उन्हें उत्तरपश्चिमी हिमालय की स्तरिकी तथा विवर्तनिकी शैलों पर भूवैज्ञानिक शोध कार्य करने के पर्याप्त अवसर प्रदान किए।

उ0प0 पंजाब, वज़ीरिस्तान, हज़ारा तथा कश्मीर में अपने गहन तथा विस्तृत कार्य से वे न केवल इस जटिल क्षेत्र की संरचना को ही समझने में कामयाब हुए बल्कि उन्होंने समग्रतः पूरे देश में भूवैज्ञानिक चिंतन को भी प्रभावित किया।

वे, सन् 1938 तक भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के साथ कार्यरत रहे। सर्वेक्षण में अपनी पदावधि के दौरान उन्होंने 1926-27 में ब्रिटिश संग्रहालय में अपना अध्ययन अवकाश, पोटवार तथा कश्मीर से इकट्ठे किए गए कशेरुकी जीवाश्मों पर कार्य करते हुए व्यतीत किया। उन्होंने जर्मनी, आस्ट्रिया तथा चेकोस्लोवाकिया में भूवैज्ञानिक संस्थानों का भी दौरा किया तथा जेनेवा विश्वविद्यालय में अल्पाइन भूविज्ञान में एक कोर्स में भी भाग लिया। उत्तरपश्चिमी हिमालय की अक्षसंधि, नंगा परबत के धुराग्रीय बिंदु के आसपास पूरी हिमालयी पट्टी के तीक्ष्ण चापाकार समकोण बंक, पर उनके लेख ने उन्हें राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विख्यात कर दिया। सन् 1937 में अन्तर्राष्ट्रीय भूवैज्ञानिक कांग्रेस, मास्को, के अनुरोध पर उन्होंने उत्तर भारतीय अग्रप्रदेश के साथ हिमालय के विवर्तनिक संबंधो पर अपना प्रसिद्ध लेख प्रस्तुत किया।

प्रो0 वाडिया, सन् 1938 में भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण से सेवानिवृत्त हो गए जब उन्हें सीलोन, (अब श्री लंका) में सरकारी खनिज वैज्ञानिक के पद का प्रस्ताव प्राप्त हुआ। उन्होंने लगभग छः वर्ष की अवधि इस द्वीप के भूविज्ञान का गहन अध्ययन करते हुए व्यतीत की, जिसे वे भारतीय प्रायद्वीप का एक मनोहर लाॅकेट मानते थे।

सन् 1944 में उन्हें भारत सरकार का भूवैज्ञानिक सलाहकार नियुक्त किया गया। अपनी इस हैसियत में उन्होंने देश की खनिज नीति का सूत्रपात तथा प्रतिपादन किया।

रेडियोएक्टिव अपरिष्कृत पदार्थ के स्वदेशी संसाधनो का समन्वेषण करने की दृष्टि से जब भारत सरकार के परमाणु ऊर्जा आयोग ने सन् 1949 में अपने परमाणु खनिज प्रभाग की स्थापना की तो डा0 वाडिया इसके प्रथम निदेशक बने। वे इस यूनिट के शीर्षस्थ पद पर मृत्युपर्यान्त 15 जून, 1969 तक विराजमान रहे।

हिमालय के अध्ययन के प्रति वाडिया जी का अथाह प्रेम तथा समर्पण था। यह उनकी पहल तथा प्रयासों का ही नतीजा था कि सन् 1968 में हिमालय भूविज्ञान संस्थाान की स्थापना हुई। उनकी स्मृति में संस्थान का पुनःनामकरण 'वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान' किया गया। राष्टीय भूभौतिकी अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद तथा राष्टीय महासगर विज्ञान संस्थान, पणजी, गोआ की स्थापना उनके ही प्रयासों का फल थी।

सन् 1934 में उन्हें, रॉयल जियोग्राफिकल सोसायटी के बैक एवार्ड से तथा सन् 1943 में लंदन जियोलोजिकल सोसायटी के 'लाॅयल मैडल' से सम्मानित किया गया।

बाद में वे, 1945-46 के दौरान, भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान संस्थान (अब भारतीय राष्टीय विज्ञान अकादमी) के, माइनिंग जियोलोजिकल एंड मैटालर्जिकल इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (1950), दि जियोलोजिकल एंड मैटालर्जिकल सोसायटी ऑफ जियोलोजिकल सोसायटी ऑफ इंडिया, इंडियन सोसायटी आॅफ इंडिया, इंडियन इंजीनियरिंग जियोलोजी, जियोग्राफर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष रहे तथा वे जियोलोजिकल सोसायटी ऑफ अमेरिका के अवैतनिक संवाददाता भी थे।

इस अवधि के दौरान उन्होंने वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद सहित कई वैज्ञानिक संस्थानों की अनुसंधान सलाहकार समितियों की भी अध्यक्षता की। सन् 1957 में वे राॅयल सोसायटी ऑफ लंदन के फेलो चुने गए। यह एक ऐसा विशिष्ट सम्मान है जो अब तक अन्य किसी भारतीय भूवैज्ञानिक को प्रदान नहीं किया गया है। उनके कैरियर का शीर्ष सम्मान, उन्हें भूविज्ञान के प्रोफेसर के रूप में मिला। उन्होंने दिसम्बर, 1964 में नई दिल्ली में आयोजित हुई २२वीं अन्तर्राष्टीय भूवैज्ञानिक कांग्रेस की अध्यक्षता की।

भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण के सम्मान से अलंकृत किया। डा0 वाडिया ने विभिन्न शीर्षकों पर लगभग एक सौ मौलिक शोध लेख व मोनोग्राफ लिखे तथा भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के रिकार्डों तथा संस्मरणों का लेखन किया।[2]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. German National Library; Berlin State Library; Bavarian State Library; Austrian National Library, एकीकृत प्राधिकरण फ़ाइल, अभिगमन तिथि 19 मार्च 2015Wikidata Q36578
  2. "हमारे संस्थापक". मूल से 30 अक्तूबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 30 अक्तूबर 2014.

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कडियाँ[संपादित करें]