दानचौरा

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दानचौरा भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के मैनपुरी जिले की भोगांव तहसील में काली नदी के किनारे बसा बहुत ही छोटा गाँव है। वर्तमान समय में यह पिछड़ा हुआ गाँव है किन्तु इसका इतिहास बहुत गौरवशाली रहा है।

अतीत में यह एक कस्बे जैसा गांव था जिसको 'कासिमपुर दानजोरा' कहा जाता था। मलिक मुहम्मद जायसी के ग्रन्थ "कन्हावत" की खोज करने वाले इतिहासकार डॉ परमेश्वरी लाल गुप्त  के शोधग्रंथ "कन्हावत" के पृष्ठ १२५ पर साफ साफ लिखा है कि मलिक मुहम्मद जायसी के ग्रन्थ "कन्हावत" की इस पाण्डुलिपि को कन्नौज निवासी सैयद अब्दुर्रहमान हुसैनी ने शाहजहां बादशाह के काल में  ४ अगस्त  १६५७ तारीख़ को मौजा कासिमपुर दानजोरा परगना भोगांव सरकार कन्नौज निवासी राजाराम सक्सेना कायस्थ पुत्र रामदत्त पुत्र कल्याणमल के पठनार्थ फ़ारसी लिपि में तैयार किया था। कन्हावत ग्रन्थ की ये पाण्डुलिपि 1856 ईस्वी में देल्ही मोहम्डन कालेज के तत्कालीन  प्रिंसिपल  प्रोफेसर स्प्रिंगर जब अपने देश जर्मनी वापस गए तब अपने साथ ले गए जो आज भी बर्लिन के नेशनल म्यूजियम में राखी हुई है । पटना संग्रहालय के पूर्व निदेशक डा० परमेश्वरी लाल गुप्त ( अब स्वर्गीय ) ने बड़े जतन के साथ  इस हस्तलिखित  ग्रन्थ की माइक्रोफिल्म प्राप्त कर इस पर शोध प्रबंध प्रकशित किया।   आज भी दानचौरा गांव में सक्सेना जमीदारों के हवेलियों / गढ़ियों, मंदिरों आदि  के खंडहर देखे जा सकते हैं।  यहाँ आज भी एक देवी मंदिर के अवशेष हैं जिस पर निरन्तर पूजापाठ होता चला आ रहा है। इसके आलावा विष्णु भगवान को समर्पित एक देवालय के भग्नावशेष कुछ दिन पूर्व तक "हददेव" ( हरिदेव ) के थान के रूप में मौजूद था। इस स्थान पर आज भी होली के दिन तथा अन्य अवसरों पर  पूजा होती है। इस गांव से उत्तरपूर्व दिशा में काली नदी के पार मात्र ३ किलोमीटर दूरी पर विश्वप्रसिद्ध बौद्ध तीर्थ स्थल संकिसा / सांकाश्य स्थित है जहाँ पर प्राय: देश विदेश से बौद्ध श्रद्धालु आते रहते हैं।

इस गांव की सीमा पर एक सती माता का मंदिर खंडहर रूप में अभी भी मौजूद है। कहते हैं कि यहाँ पर  सक्सेना लाला जमीदारों के खानदान की कोई स्त्री सती हुई थी इसलिए आज भी इसको "ललियायन सती की मठिया" कहा जाता है। जनश्रुतियों के आधार पर ये जानकारी मिलती है कि किसी समय में ये गांव काली नदी की बाढ़ और प्लेग, हैजा आदि महामारियों के कारण बर्वाद हो गया और यहाँ के सक्सेना जमींदार तथा अन्य लोग अन्यत्र स्थानों भोगांव फरूखाबाद मैनपुरी पर जाकर बस गए जिसके कारण अब ये एक मामूली छोटा सा गॉंव मात्र रह गया है। इस समय इस गांव में धोबी, धानुक, काछी, धीवर/कहार, तेली/वैश्य, जाटव, लोधी, नाई आदि जातियों के कुछ परिवार निवास करते हैं किन्तु अतीत में यहाँ पर सक्सेना कायस्थ, ब्राह्मण, कुम्हार, ठाकुर तथा मुसलमान लोग भी निवास करते थे। यहाँ पर स्थित खंडहरों में आज भी लोगों को प्राचीन वस्तुएं तथा सिक्के आदि मिलते रहते हैं।

इस स्थल को पुरातात्विक खुदाई एवं संरक्षण की सख्त ज़रूरत है ताकि इसके गौरवशाली इतिहास को प्रकाश में लाया जा सके तथा पुरानिधियों को खोजै जा सके।  वर्तमान में इस गांव के इतिहास पर इसी गांव के मूलनिवासी प्रोफेसर सुभाष वर्मा द्वारा विशेष शोधकार्य किया जा रहा है। बदायूं के मोहल्ला चौबे  निवासी श्री रोहन राय सक्सेना ने सूचित किया है कि उनके पूर्वज भी मौजा कासिमपुर दानचौरा के मूलनिवासी थे जो कि १८५७ के ग़दर के समय वहां से पलायन करके बदायूं के गॉंव सुखौरा में आकर बस गए थे। उनके पूर्वजों ने बताया था कि उनके परिवार में कई सौ  वर्ष पूर्व कोई सती हुई थीं जिनका मंदिर अभी भी खंडहर स्वरूप दानचौरा (कासिमपुर ) गांव में मौजूद है। कुछ पुराने लोग बताते हैं कि इसी गांव दानचौरा कासिमपुर से सक्सेना जमींदार राजाराम सक्सेना के वंशज मुग़ल काल में दिल्ली जा बसे थे और बाद में नादिरशाह के आक्रमण के समय दिल्ली से लखनऊ बस गए थे। उर्दू के प्रसिद्ध शायर एवं लेखक उनके पुत्र मुंशी शंकरदयाल सक्सेना उर्फ़ फ़रहत लखनवी मुंशी पूरनचंद सक्सेना थे जिनकी मृत्यु १९०६ में हुई।  राजाराम सक्सेना वल्द रामदत्त सक्सेना के पठनार्थ तैयार की गयी हस्तलिखित पुस्तक " कन्हावत" संभवत: उस्ताद पूरनचंद सक्सेना के परिवार के माध्यम से ही नवाब लखनऊ के पुस्तकालय वहां सेजर्मन  प्रोफेसर स्प्रिंगर को मिली होगी।  ये अभी और अधिक शोध का विषय है , अगर मुंशी शंकर दयाल सक्सेना जी के वर्तमान वंशजों का पता चल जाये तो शायद उनके माध्यम से इस विषय पर और अधिक जानकारी प्राप्त हो सकती है।

Reference Book : Gupt, Parmeshwari Lal , "Kanhavat" 1981, first edition, Annpurna Prakashan, Varanasi Page 125