थेरीगाथा

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थेरीगाथा, खुद्दक निकाय के 15 ग्रंथों में से एक है। इसमें परमपदप्राप्त 73 विद्वान भिक्षुणियों के उदान अर्थात् उद्गार 522 गाथाओं में संगृहीत हैं। यह ग्रंथ 16 'निपातों' अर्थात् वर्गों में विभाजित है, जो कि गाथाओं की संख्या के अनुसार क्रमबद्ध हैं।

थेरीगाथा में जिन भिक्षुणियों का उल्लेख आया है, उनमें से अधिकतर भगवान बुद्ध की समकालीन थी। एक इसिदाप्ति के उदान में भव्य नगरी पाटलिपुत्र का उल्लेख आया है। संभवत: वह सम्राट अशोक की राजधानी है। इसलिए ग्रंथ का रचनाकाल प्रथम संगीति से लेकर तृतीय संगीति तक मान सकते हैं।

परिचय[संपादित करें]

थेरीगाथा की विषयवस्तु थेरगाथा के समान ही है। हाँ, थेरों के उदानों में जीवनसंस्मरणों का उल्लेख कम है। उनमें विषयों की गंभीरता और प्रकृतिचित्रण अधिक है। इसके विपरीत अधिकांश थेरियों के उदानों में सुखदुख से भरे उनके पूर्व जीवन के संस्मरण मिलते हैं। इस प्रकार उनके आध्यात्मिक जीवन के अतिरिक्त पारिवारिक और सामाजिक जीवन की भी झलक मिलती है। शुभा जैसी एकाध थेरियों के उदानों में ही प्रकृति का वर्णन मिलता है। अंबपाली जैसी थेरियों के उदान, जिनमें सांसारिक वैभव का उल्लेख मिलता है, काव्यशास्त्र के अनुपम उदाहरण हैं।

भिक्षुणीसंघ का संघठन भी बहुत कुछ भिक्षुसंघ के आधार पर ही हुआ था। बिना किसी भेदभाव के, आध्यात्मिक जीवन में रत समाज के सभी स्तरों की महिलाओं के लिये उसके द्वार खुले थे। राजपरिवारों की महिलाओं से लेकर दीन-दुखियों के परिवारों की महिलाएँ तक संघ में शामिल थीं। वे सभी सामाजिक विषमताओं को त्यागकर एक ही पवित्र उद्देश्य से प्रेरित हो कर संघ की सदस्याएँ बन गई थीं। उन साधिकाओं के वैराग्य के पीछे अनेक कारण थे। अधिकतर साधिकाओं ने प्रिय जनों के वियोग से और सांसारिक जीवन से ऊब कर संघ में प्रवेश किया था। सबका उद्देश्य परम शांति की प्राप्ति था। अर्हत्व की प्राप्ति के बाद निर्वाण की परम शांति की अनुभूति में उन सभी को एक ही स्वर में गाते सुनते हैं-- सीतिभूतम्हि निब्बुता अर्थान् शीतिभूत हो गई हूँ, उपशांत हो गई हूँ।

थेरियों के उदानों से उस समय की महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर भी प्रकाश पड़ता है। इसिदासि की जीवनी से मालूम होता है कि उस समय कुछ लोगों में तलाक की प्रथा प्रचलित थी। इसिदासि का विवाह तीन-तीन बार हुआ था। उस सामंत युग में बहुपत्नी प्रथा प्रचलित थी। कई थेरियाँ अपने उदानों में इस बात का उल्लेख करती हैं। उस समय नगरशोभिनियों की प्रथा भी प्रचलित थी। भगवान् बुद्ध ने उसके विरुद्ध अपनी आवाज उठाई थी। उनकी शिक्षाओं से प्रभावित होकर उस वृत्ति को छोड़कर कितनी महिलाएँ पवित्र जीवन व्यतीत करने लगीं। अंबपालि, अड्टकासि और विमला उनमें से हैं। वे अपने उदानों में उस जीवन का उल्लेख करती हैं। महिलाएँ विद्यालाभ कर विदुषी भी बन सकती थीं। कुंडलकेसी और नंदुत्तरा इसके उदाहरण हैं। शिक्षा ग्रहण करने के बाद दोनों देश में भ्रमण करती हुई धर्म और दर्शन के विषय में विद्वानों से शास्त्रार्थ करती थीं। धर्म के अनुसरण के विषय में भी महिलाएँ पुरुषों से स्वतंत्र थीं। यह बात रोहिनी तथा भद्दकच्चाना की जीवनियों से सिद्ध होती है। उस समय भी समाज में दुष्ट तत्व विद्यमान थे। भिक्षुणियों को भी उनसे सावधान रहना पड़ता था। शुभा थेरी के उदानों से यह बात स्पष्ट हो जाती है। उस परिस्थिति को ध्यान में रखकर बाद में भिक्षुणियों के अरणवास के विषय में कई नियम बनाने पड़े। इस प्रकार थेरियों के उदानों में उस समय की महिलाओं की सामाजिक अवस्था का भी एक चित्र मिलता है। अब हम तीन थेरियों के उदानों के कुछ अंश उदाहरण के रूप में देते हैं।

सोमा, राजगृह के राज पुरोहित की कन्या थी। भिक्षुणी हो विमुक्तिसुख प्राप्त करने के बाद एक दिन वह ध्यान के लिये अंधवन में बैठ गई। मार ने उसे साधना के पथ से विचलित करने के विचार से कहा -- जो स्थान ऋषियों द्वारा भी प्राप्त करना कठिन है, उसकी प्राप्ति अल्प बुद्धि वाली स्त्रियों द्वारा संभव नहीं। मार का उत्तर देते हुए सोमा ने कहा -- जिसका मन समाधिस्थ है, जिसमें प्रज्ञा है और जिसे धर्मं का साक्षात्कार हुआ है उसके मार्ग में स्त्रीत्व बाधक नहीं होता। मैंने तृष्णा का सर्वथा नाश किया है, अविद्या रूपी अंधकार समूह को विदीर्ण किया है। पापी मार! समझ ले आज तेरा ही अंत कर दिया है।

भगवान् बुद्ध की मौसी महाप्रजापति गौतमी ने, जो कि भिक्षुणी संघ की अग्रणी थी, अपने निर्वाण के पहले भगवान के पास जाकर उनसे अंतिम विदा लेते हुए कृतज्ञता के ये शब्द प्रकट किये -

हे बुद्ध वीर! प्राणियों में सर्वोत्तम! आपको नमस्कार। आपने मुझे और बहुत से प्राणियों को दु:ख से मुक्त किया है।........यथार्थ ज्ञान के बिना मैं लगातार संसार में घूमती रही। मैंने भगवान के दर्शन पाए। यह मेरा अंतिम शरीर है। बहु

तों के हित के लिये (मेरी बहन) माया देवी ने गौतम को जन्म दिया है, जिन्होंने व्याधि और मरण से त्रस्त प्राणियों के दु:खसमूह के दूर किया है।

विमला, अन्य कई गणिकाओं की तरह, भगवान बुद्ध की शिक्षाओं से प्रभावित होकर प्रव्रजित हो पवित्र जीवन व्यतीत करने लगी। परमपद की प्राप्ति के बाद वह गाती है --

रूप लावण्य, सौभाग्य और यश से मतवाली हो, यौवन के अहंकार में मस्त हो मैं दूसरी स्त्रियों की अवज्ञा करती थी।........शरीर को सजाकर, व्याघ्र की तरह लोगों को फँसाने के लिये जाल बनाती थी, अनेक मायाएँ रचती थी। आज मैं भिक्षा से जीती हूँ, मेरा सिर मुंडित है, शरीर पर चीवर है। वृक्ष के नीचे ध्यानरत हो अवितर्क समाधि में विहरती हूँ। दैवी और मानुषी सभी कामनाओं के बंधनों को मैंने तोड़ डाला है। सभी चित्त मलों को नाश कर निर्वाण की परम शांति का अनुभव कर रही हूँ।

"परमत्थदीपनी" थेरीगाथा की अट्ठकथा है। यह पाँचवीं शताब्दी की कृति है और आचार्य धर्मपाल की है। इसमें थेरियों की जीवनियाँ और उनके उदानों की व्याख्याएँ हैं। इसलिए थेरीगाथा के समझने के लिये यह अत्यंत उपयोगी है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

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