त्रिनिदाद और टोबैगो में आर्य समाज

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
आर्य समाज, ओ३म् को भगवान का सर्वोच्च और सबसे उचित नाम मानता है।

त्रिनिदाद और टोबैगो में आर्य समाज स्थापना के शुरुआती प्रयास २०वीं शताब्दी के आरम्भ में किए गए थे। 1930 के दशक में उनकी गतिविधियों के फलस्वरूप 'आर्य समाज एसोसिएशन' नामक एक नए संगठन की स्थापना हुई। बाद में इसका नाम बाद में बदलकर "आर्य प्रतिनिधि सभा त्रिनिदाद" कर दिया गया। आर्य प्रतिनिधि सभा का मुख्य कार्य आर्य समाज के मंदिरों और स्कूलों के निर्माण को प्रोत्साहित करना था। दुर्भाग्य से संगठन में अक्सर फूट हो जाती जिससे इसकी सदस्यता में कमी आ जाती थी।

आरभिक इतिहास[संपादित करें]

भाई परमानन्द त्रिनिदाद पहुंचने वाले पहले आर्य मिशनरी थे जो १९१० में वहाँ पहुँचे थे।[1] बाद में कई अन्य पंडितों ने उनका अनुसरण किया। 1929 में पंडित मेहता जैमिनी आये। उनके प्रयासों से माराबेला में एक भवन निर्मित कराया गया जहाँ हिंदी कक्षाएं आयोजित की जाती थीं। [2] 1934 में पंडित अयोध्या प्रसाद पहुंचे, और स्थानीय आर्य समाज समुदाय उनसे इतना प्रभावित हुआ कि उन्हें तीन साल के लिए अपने प्रवास को बढ़ाने के लिए उनसे निवेदन किया गया। अयोध्या प्रसाद ने अन्य धर्मों के कई लोगों की शुद्धि (धर्मान्तरण) की। यह बहुत महत्वपूर्ण बात है क्योंकि त्रिनिदाद में भारत से आये हुए बहुत से लोग ईसाई बन गए थे, जबकि गयाना और सूरीनाम में ऐसा नहीं हुआ था। जिन लोगों को अपने निर्णय या अपने माता-पिता के निर्णय पर पछतावा हुआ, उन्हें हिंदू धर्म में लौटने का अवसर मिल गया। इसी कारण त्रिनिदाद के आर्य समाज में अन्य कैरेबियाई देशों के आर्य समाजों की तुलना में कहीं अधिक पूर्व-ईसाई थे। इस आन्दोलन में कुछ ऐसे सदस्य भी शामिल थे जो शुद्धि के लिये तैयार नहीं हुए और ईसाई रहते हुए भी इस आन्दोलन से जुड़े रहे। [3]

पंडित अयोध्या प्रसाद ने चगुआनास में पहले आर्य मंदिर की नींव भी रखी, जिसे मॉन्ट्रोस मंदिर और 'वैदिक चर्च' भी कहा जाता था। [4] इस मंदिर को प्राथमिक विद्यालय के रूप में भी इस्तेमाल किया गया। 11 नवम्बर 1943 से यह मन्दिर आर्य समाज एसोसिएशन के मुख्यालय के रूप में उपयोग में लाया गया।

१९४३ में आर्य समाज एसोसिएशन को औपनिवेशिक ब्रिटिश अधिकारियों से मान्यता मिल गयी। जनवरी 1937 में ही संगठन का नाम ''आर्य प्रतिनिधि सभा' त्रिनिदाद' करने का निर्णय ल लिया गया था, जो 1943 में सरकारी मान्यता के बाद आधिकारिक नाम बन गया। उस वर्ष इसकी दस शाखाएँ थीं। प्रतिनिधि सभा त्रिनिदाद में नौ प्राथमिक विद्यालय चलाती थी। [5]

विकास और विभाजन[संपादित करें]

1946 के आरम्भ में आर्य प्रतिनिधि सभा में विभाजन हो गया। त्रिनिदाद की आर्य प्रतिनिधि सभा के पूर्व अध्यक्ष आरआर ओझा और पंडित भोगी दास ने मिलकर 'वैदिक धर्म प्रचारक सभा' नामक एक नए संगठन की स्थापना की। बाद में, जब उन्होंने औपनिवेशिक अधिकारियों से आधिकारिक मान्यता मांगी तो उन्होंने इसका नाम 'त्रिनिदाद की वैदिक धर्म आर्य सभा' कर दिया। नए संगठन का बनना त्रिनिदाद की आर्य प्रतिनिधि सभा के लिए एक बड़ा खतरा था, लेकिन यह खतरा तब टल गया जब सरकार ने त्रिनिदाद की आर्य प्रतिनिधि सभा के तीन पंडितों को आधिकारिक विवाह अधिकारी बनने का अधिकार देने का फैसला किया। 1950 के दशक में त्रिनिदाद की वैदिक धर्म आर्य सभा के दो नेता त्रिनिदाद की आर्य प्रतिनिधि सभा में लौट आए और पंडित भोगी दास विवाह अधिकारी भी बन गए। [6]

1947 में सोलोमन मुसई-महाराज ने 'कैरेबियन वैदिक परिषद' बनाने में सफल रहे, जो कैरिबियन में विभिन्न देशों के आर्य संगठनों के सहयोग करने के लिये बनाया गया था। 1950 के दशक में मुसई महराज त्रिनिदाद की आर्य प्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष बने। इस परिषद की पहली बैठक क्योरपे में बुलाई गई। अगले वर्षों के दौरान प्रति वर्ष एक सम्मेलन आयोजित किया जाने लगा।[7]

1968 में एक और विभाजन हुआ। इस बार सभा के पूर्व अध्यक्ष, सोलोमन मूसाई-महाराज सहित बारह व्यक्तियों ने 'वैदिक मिशन टोबैगो' की स्थापना की। नरायन प्रसाद इसके प्रथम अध्यक्ष बनाये गये। इस नये संगठन में मद्रासी पृष्ठभूमि के कई सदस्य थे। इसके एक पंडित मूनस्वामी गोवन्दन भी मद्रासी थे।1975 में सोलोमन मूसई-महराज का निधन हो जाने के बाद वैदिक मिशन कमजोर पड़ने लगा और 1985 में कुछ सदस्य त्रिनिदाद की आर्य प्रतिनिधि सभा में लौट आए। पंडित मुनसामी गोवन्दन और पंडित मुन्नीलाल गणपत त्रिनिदाद और टोबैगो के वैदिक मिशन को चलाते रहे । इसकी बैठक साप्ताहिक होती थी।

इन वर्षों के दौरान आर्य प्रतिनिधि सभा का नेतृत्व पंडित लक्ष्मीदत्त शिवप्रसाद ने किया था। उन्होंने एक पंडित-प्रशिक्षण पाठ्यक्रम का आयोजन किया और एक पंडित परिषद की स्थापना की। बाद में उन्होंने एक महिला परिषद की भी स्थापना की। 1969 में पहली महिला पंडित को नियुक्त किया गया जबकि सूरीनाम में लगभग बीस वर्ष पहले ही यह हो गया था। 1975 में 'आर्य वीरदल' की स्थापना हुई जो एक आर्य युवा संगठन था। इसके अलावा, शिवप्रसाद ने इन वर्षों में कैरेबियन वैदिक परिषद को पुनर्जीवित किया। जब शिवप्रसाद ने निम्न पृष्ठभूमि वाले कुछ पुरुषों को भी पंडित बनने के लिए प्रशिक्षित किया तो कुछ प्रतिरोध सामने आया। लेकिन शिवप्रसाद अडिग रहे। इन अवधि में कुछ क्रियोल लोग भी प्रतिनिधि सभा के सदस्य बने। लेकिन वे कभी भी सभाओं में नहीं गए क्योंकि वास्तव में उन्हें स्वीकार नहीं किया गया।

1980 में शिवप्रसाद की जगह पंडित हरिनाथ श्रीराम महाराज आये। उनका आग्रह था कि संगठन के कुछ सदस्य ब्राह्मण पृष्ठभूमि के होने चाहिये। इन सभी विवादों के कारण सदस्यता में और कमी आई। [8]

आर्य प्रतिनिधि सभा और वैदिक मिशन दोनों आज भी विद्यमान हैं। वर्तमान में श्री रोशन पारस रामसिंह और सुश्री विद्या रामाचल आर्य प्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष और सचिव हैं, [9] जबकि पंडित हंसराज प्रसाद, पंडित राधे रामदास और पंडिता लीलावती बलदेव वैदिक मिशन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। [10] दोनों ही संगठन त्रिनिदाद और टोबैगो के अंतर-धार्मिक संगठन (IRO) में भी भाग लेते हैं। [11] त्रिनिदाद की आर्य प्रतिनिधि सभा इसके अलावा संयुक्त हिंदू संगठन से संबद्ध है और अभी भी सूरीनाम और गुयाना में आर्य समाज के विभिन्न संगठनों के साथ मिलकर काम करती है।

कुछ अवलोकन[संपादित करें]

संगठन में बार-बार विभाजन का एक मुख्य कारण यह था कि एक पूर्व अध्यक्ष चुनावों में अपनी हार को स्वीकार नहीं कर पाये और एक नया संगठन बना लिया। ये चुनाव आर्य समाज में नियमित रूप से होते हैं। दूसरा कारण यह था कि त्रिनिदाद की आर्य प्रतिनिधि सभा में व्यभिचार करने वाले पंडितों को निष्कासित करने की नीति थी। निष्कसन के बाद अक्सर ये पंडित बोर्ड के विरोधियों के साथ जुड़ जाते थे और नए संगठन में अपनी सेवाएं जारी रखने के लिए तैयार रहते थे। अवश्य ही त्रिनिदाद के आर्य समाज के विकास के लिए ये विभाजन खराब थे। रिचर्ड हंटिंगटन फोर्ब्स के अनुसार, त्रिनिदाद में आर्य समाजों की संख्या धीरे-धीरे कम होने का एक कारण आर्य समाज की आपसी फूट भी है। [12]

टिप्पणियाँ[संपादित करें]

 

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Richard Huntington Forbes, Arya Samaj in Trinidad: An Historical Study of Hindu Organizational Process in Acculturative Conditions, Ann Arbor: University Microfilms International 1985, p. 20-21.
  2. Richard Huntington Forbes, Arya Samaj in Trinidad: An Historical Study of Hindu Organizational Process in Acculturative Conditions, Ann Arbor: University Microfilms International 1985, p. 20-54.
  3. Richard Huntington Forbes, Arya Samaj in Trinidad: An Historical Study of Hindu Organizational Process in Acculturative Conditions, Ann Arbor: University Microfilms International 1985, p. 76-86, 99, 200-201.
  4. Richard Huntington Forbes, Arya Samaj in Trinidad: An Historical Study of Hindu Organizational Process in Acculturative Conditions, Ann Arbor: University Microfilms International 1985, p. 115-126, 132.
  5. Richard Huntington Forbes, Arya Samaj in Trinidad: An Historical Study of Hindu Organizational Process in Acculturative Conditions, Ann Arbor: University Microfilms International 1985, p. 132.
  6. Richard Huntington Forbes, Arya Samaj in Trinidad: An Historical Study of Hindu Organizational Process in Acculturative Conditions, Ann Arbor: University Microfilms International 1985, p. 214-218.
  7. Richard Huntington Forbes, Arya Samaj in Trinidad: An Historical Study of Hindu Organizational Process in Acculturative Conditions, Ann Arbor: University Microfilms International 1985, p. 221-222.
  8. Richard Huntington Forbes, Arya Samaj in Trinidad: An Historical Study of Hindu Organizational Process in Acculturative Conditions, Ann Arbor: University Microfilms International 1985, p. 332-337.
  9. Website Trinidad and Tobago Newsday, 29 November 2011, http://www.newsday.co.tt/features/0,151444.html
  10. Harjoon Heeralal, Secretary of The Vedic Mission Mission of Trinidad and Tobago. Arya Samaj in Trinidad: An Historical Study of Hindu Organizational Process in Acculturative Conditions, Ann Arbor: University Microfilms International 1985, p. 311-314.
  11. Website IRO, http://www.iro.co.tt/portfolio-2-columns/ Archived 2018-12-26 at the वेबैक मशीन
  12. Richard Huntington Forbes, Arya Samaj in Trinidad: An Historical Study of Hindu Organizational Process in Acculturative Conditions, Ann Arbor: University Microfilms International 1985, p. 346.