तेलुगू साहित्य

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तेलुगु का साहित्य (तेलुगु : తెలుగు సాహిత్యం / तेलुगु साहित्यम्) अत्यन्त समृद्ध एवं प्राचीन है। इसमें काव्य, उपन्यास, नाटक, लघुकथाएँ, तथा पुराण आते हैं। तेलुगु साहित्य की परम्परा ११वीं शताब्दी के आरम्भिक काल से शुरू होती है जब महाभारत का संस्कृत से नन्नय्य द्वारा तेलुगु में अनुवाद किया गया। विजयनगर साम्राज्य के समय यह पल्लवित-पुष्पित हुई।

काल विभाजन[संपादित करें]

आजकल तेलुगु साहित्य का विभाजन निम्नलिखित चार कालों में किया जाता है-

  • (1) पुराणकाल,
  • (2) काव्यकाल,
  • (3) ह्रासकाल, और
  • (4) आधुनिककाल

कुछ लोग तेलुगु साहित्य का विभाजन निम्नलिखित वर्गों में भी करते हैं-

  • प्रांनन्नय युग : सन् 1000 तक
  • नन्नय युग : 1000 - 1100
  • शिवकवि युग : 1100 - 1225
  • तिक्कन युग : 1225 - 1320
  • ऎऱ्ऱन युग : 1320 - 1400
  • श्रीनाध युग : 1400 - 1500
  • रायल युग : 1500 - 1600
  • दक्षिणांध्र युग या नायकराजुल युग : 1600 - 1775
  • क्षीण युग : 1775 - 1875
  • आधुनिक युग : 1875 से अब तक

पुराणकाल (1001 से 1400 ई॰ तक)[संपादित करें]

किसी भी भाषा के साहित्य का आरंभ लिपि के पूर्व ही गीतों के रूप में होता है। गीत, साहित्य की तरह स्थायी नहीं होते। ईसा से 800 वर्ष पूर्व तेलुगु लिपि का प्रादुर्भाव माना गया है। लेकिन उस काल का साहित्य लिपिबद्ध नहीं है। उसके पश्चात् शिलालेखों में कुछ तेलुगु साहित्य पाया जाता है। उसके पूर्व गीतसाहित्य के प्रचलन होने का अनुमान किया जा सकता है। तेलुगु का लिपिबद्ध साहित्य ई॰ सन् 11वीं शताब्दी के आरंभ से पाया जाता है।

तेलुगु के आदिकवि नन्नय भट्ट ने संस्कृत महाभारत का अनुवाद तेलुगु पद्य में किया। यह अनुवाद होते हुए भी स्वतंत्र कृति के रूप में दिखाई देता है। शैली संस्कृतशब्दबहुला तथा कोमल है। इन्होंने "आंध्रशब्द चिंतामणि" के नाम से एक तेलुगु व्याकरण ग्रंथ की रचना संस्कृत शब्दों में की। यह एक अनोखी घटना है कि तेलुगु के आदिकवि ही इस भाषा के प्रथम वैयाकरण सिद्ध हुए। व्याकरण के रचयिता होने के कारण वे "वागनुशासन" के नाम से प्रख्यात हुए। उनके केवल आदि एवं सभापर्व पूर्ण और अरण्यपर्व के कुछ भाग मिलते हैं। तेलुगु देश में यह प्रतीत है कि नन्नय की रचना के पढ़े बिना सरल और मधुर कवि बनना कठिन है। महाभारत की रचना में उन्हें पंडित नारायण भट्ट का पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ। नन्नय भट्ट 11वीं शताब्दी के चालुक्यवंशीय राजा "राजराजनरेंद्र राजमहेंद्रवरम्" के कुलगुरु थे। तिक्कन सोमयाजी तथा एर्राप्रेगड्डा नामक दोनों कवियों से महाभारत की रचना पूर्ण हुई।

नन्ने चोड -- ये राजा टेकनादित्य के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। ये कन्नड़ आदि भाषाओं के भी विद्वान् थे। इनकी अनूदित कृति "कुमार-संभव" है। यह अनुवाद कालिदास कृत कुमारसंभव का नहीं किंतु उद्भट भट्ट के कुमारसंभव का है।

अथर्वणाचार्य -- इनका अथर्वण "कारिकावली" के नाम से एक व्याकरण और अथर्वण छंद के नाम से एक छंदोग्रंथ प्रचलित है। इन्होंने महाभारत का अनुवाद भी संस्कृतमय शैली में किया। जैनधर्मावलंबी होने के कारण इनका महाभारत अनादृत हुआ।

पालकुर्रकि सोमनाथ -- ये वरंगल के निवासी शैवधर्म के अनुयायी थे। इनके "पंडिताराध्यचरितमु" और "बसवपुराणमु" प्रसिद्ध हैं। इन्होंने शैवधर्म प्रचारार्थ "द्विपद" नाम के देशी छंद का अनुसरण किया। अन्यवाद कोलाहलम् और सोमनाथ भाष्यम् आदि इनके ग्रंथ संस्कृत में भी प्राप्त हैं। तेलुगु कवियों में सोमनाथ का स्थान बहुत बड़ा माना जाता है।

भद्रभूपति -- इस राजा की कृतियाँ "नीतिसारमुक्तावली" और "सुमतिशतकमु" हैं। इनका यह दूसरा ग्रंथ अत्यंत लोकप्रिय है।

भास्कर रामायण — यह लोकप्रिय ग्रंथ है। इस ग्रंथ के अधिकांश का अनुवाद भास्कर कवि ने किया।

तिक्कन सोमयाजी -- ये तेलुगु साहित्य की महान विभूति हैं। ये 'कविब्रह्म' के नाम से प्रख्यात हैं। हर और हरि दोनों देवताओं में कोई भेद यह नहीं मानते थे। नन्नय के दो शताब्दी पश्चात् इनका जन्म हुआ। इन्होंने महाभारत के विराटपर्व से लेकर उसके अंत तक 15 वर्षों का अनुवाद करके हरिहर भगवान के चरणों में अर्पित किया। ये कवि ही नहीं, कविनिर्माता भी थे।

रंगनाथ रामायण — इसके प्रणेता रंगनाथ या गोनबुद्धारेड्डी थे। यह द्विपदा छंद में लिखी गई। इसमें लोकोक्तियाँ प्रचुर मात्रा में हैं।

एर्राप्रेगड्डा -- ये कवि शंभुदास के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। इन्होंने महाभारत के अरण्यपर्व के अवशिष्ट भाग का अनुवाद किया। इसलिये महाभारत के तीनों रचयिता "कवित्रयमु" के नाम से प्रसिद्ध हैं। एर्राप्रेगड्डा की अन्य कृतियाँ तेलुगु में नृसिंहपुराणमु और "हरिवंश" आदि हैं।

नाचन सोमन्न -- इनकी रचना "उत्तरहरिवंश" है। यह महत्वपूर्ण काव्य माना जाता है।

केतन्न -- ये तिक्कन के शिष्य थे। इन्होंने दंडी कृत "दशकुमार चरित" का पद्यात्मक अनुवाद किया है तथा "विज्ञानेश्वर" नामक धर्मशास्त्रग्रंथ और "भाषाभूषणमु" नाम के रीतिग्रंथों की रचना की। इस प्रकार ये कवि के साथ साथ आचार्य भी थे।

नन्नयभट्ट ने वैदिक धर्म का अवलंबन करके महाभारत का अनुवाद किया। नन्नय की रचना ने बौद्ध, जैन धर्मों पर प्रबल आघात किया। पालकुरिकि सोमनाथ कवि ने शैवधर्म का आश्रय लेकर देशी साहित्य का प्रणयन किया। नन्नेचोड कवि ने देशी और मार्ग कविता की परंपरा चलाई। सोमनाथ के द्वारा शतक साहित्य का श्रीगणेश हुआ। सन् 1200 से 1380 ई॰ तक काकतीय वंश के राजा गणपति और प्रतापरुद्र ने तेलुगु साहित्य की बड़ी सेवा की। इस काल में पुराणों का अनुवाद भी किया गया। काकतीय राजाओं ने तेलुगु साहित्य के उन्नयन के साथ साथ संस्कृत के महान ग्रंथों की रचना को भी प्रोत्साहन दिया। इसके फलस्वरूप "प्रतापरुद्रीयमु" नाम के अलंकारशास्त्र ग्रंथ के अलावा अन्य महत्वपूर्ण संस्कृत ग्रंथों का भी निर्माण इन राजाओं के दरबार में हुआ।

काव्यकाल (1400 से 1700)[संपादित करें]

महाकवि श्रीनाथ -- इन्होंने नैषधीयचरित का पद्यानुवाद 'शृंगार नैषधम' नाम से किया। इनकी अन्य कृतियाँ "मरुतराटचरित", "शालिवाहन सप्तशती", "भीमखंड," "हरविलास" आदि हैं। द्विपदा छंद में "पलनाटि वीर चरित्रमु" और कई चाटूक्तियाँ तथा अन्यान्य मौलिक रचनाएँ भी इन्होंने की हैं। इनके मुकाबिले का शायद ही कोई विद्वान् कवि तेलुगु में मिलता हो। इस युग के प्रसिद्ध कवियों में अन्नयामात्य कवि भी एक हैं। ताल्लपाक अन्नमाचार्य ने भगवान तिरुपति बालाजी की स्तुति में, 16 वर्ष की अवस्था में हजारों पद रचकर स्वयं ताम्रपत्रों में लिखे हैं। इसका प्रकाशन तिरुपति देवस्थानम् की ओर से किया गया है।

पिल्लल मर्रिपिन वीरन्न -- इनका रचनाकाल 1400 से 1500 ई.तक माना जाता है। इनकी कृतियों में "अवतारदर्पणमु", "नाटकीय पुराणमु", "माघ महात्यमु", "भानसोल्लासमु", "शकुन्तला परिणयमु" और "जैमिनि भारतमु" आदि उल्लेखनीय हैं।

दूषगुंट नारायणकवि -- इन्होंने पंचतंत्र का पद्यानुवाद किया।

भक्त वेमन्न कवि -- सन् 1412 से 1480 तक के काल के भक्तकवि वेमन्नयोगी ने एक सुंदर शास्त्र की रचना की। आंध्र प्रदेश में कोई ऐसा व्यक्ति न मिलेगा जिसकी जिह्वा पर वेमन्न का कोई न कोई छंद या पद न हो। वेमन्न के ही समान भक्त कवि सन् 1480 के आसपास वरंगल जिला (आंध्र प्रदेश) के बंमेर पोतन्न थे। इन्होंने महाभागवतपुराण का अनुवाद अत्यंत सुचारु रूप से प्रसादगुण युक्त शैली में किया। इनकी अन्य कृतियों में "वीरभद्रविजयमु", "योगिनी दंडकमु" आदि प्रमुख हैं। ये राजाश्रय को घृणा की दृष्टि से देखते थे। इन्होंने अपनी महाभागवत की रचना को श्री रामचंद्र जी के चरणों पर समर्पित किया। यह तेलुगु साहित्य का अत्यंत लोकप्रिय ग्रंथ है। पोतंनकादि, सूरदास के समान भक्त कवि थे। इस युग में श्रीनाथ आदि कवियों ने संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद ही नहीं किया बल्कि मौलिक ग्रंथों की रचना भी की। कुछ कवियों ने संस्कृत नाटकों का काव्यानुवाद किया। ये तेलुगु के भक्त कवियों की अग्रश्रेणी में हैं।

श्री कृष्णदेवरायलु युग -- कृष्णरायलु का राज्यकाल सन् 1509 से 1530 तक था। यह युग आंध्र साहित्य के इतिहास में स्वर्णयुग के नाम से प्रसिद्ध है। ये कन्नड, तेलुगु तथा संस्कृत भाषाओं के प्रकांड विद्वान् एवं कवि थे। देश की रक्षा के साथ साथ इन्होंने साहित्य के क्षेत्र को एक नई विकासदिशा दी। इनकी रचनाएँ "मदालसा चरित्रम्", "सत्यावघुप्रीणनम्", "सकलकथासारसंग्रहम्", "ज्ञानचिंतामणि" और "रसमंजरि" आदि हैं। तेलुगु में इनके "आमुक्तमाल्यदा" की टक्कर का कोई भी काव्य शायद ही मिलता हो। इनका संस्कृत नाटक "जांबवंती परिणयमु" अब भी उपलब्ध है। इनके दरबारी कवि "अष्टदिग्गज" के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन अष्टदिग्गजों में प्रथम प्रतिभावान् कवि अल्लासानि पेद्दन को "कवितापितामह" की उपाधि से विभूषित किया। इनकी "मनुचरित" रचना अत्यंत लोकप्रिय है। इनकी कविता से प्रभावित होकर कृष्णदेवराय ने कवि के दक्षिणपाद में स्वर्णघंटिका पहनाई। मादयूयागारि-मल्लन कवि राजशेखरचरित् के रचयिता थे। नंदतिम्मन ने "पारिजातापहरणमु" की तथा धूर्जटि कवि ने "कालहस्ति माहात्यमु" की रचना की। कालहस्ति दक्षिण में आंध्र प्रदेश का पवित्र स्थान है। नृसिंह कवि ने "कविकर्ण रसायनमु" नामक रचना में यह दावा किया कि उनके काव्य की शृंगारी कविता को पढ़ने से विरागी भी रसिक बनते हैं और वैराग्य का वर्णन पढ़ने से रसिक भी विरागी बन जाते हैं। ताल्लपाक चिन्नयामात्य कवि का अन्नमाचार्यचरित् ऐतिहासिक काव्य है जिसने समसामयिक काव्यों में विशेष स्थान प्राप्त किया। अय्यलराय कवि ने "सकलकथा सार संग्रहम्" कृष्णदेवरायलु के ग्रंथ का तेलुगु में अनुवाद किया।

पिंगलि सूरन्न -- इनके ग्रंथ "राघवपांडवीयमु", "कलापूर्णोदियमु", "प्रभावती प्रद्युम्नमु" हैं। प्रथम द्वयर्थी काव्य है तो द्वितीय अनुपम कल्पित कथानक। तृतीय की कथा पुराणप्रसिद्ध है।

पोन्नगंटि तेलगनार्य -- इन्होंने "ययातिचरितमु" नामक एक काव्य ठेठ तेलुगु भाषा में लिखा।

तेनालि रामलिंग कवि -- इनकी रचना "पांडुरंग माहात्यमु" है। यह जटिल काव्य है। ये तेलुगु के कवियों में हास्यरस के कवि माने जाते हैं। इनकी कई हास्यकथाएँ आंध्र प्रदेश में परंपरा से प्रचलित हैं।

रामाराजभूषण कवि -- इनका काल 1550 से 1590 ई॰ तक है। उस समय तेलुगु कवियों में उनके मुकाबिले का कोई कवि नहीं था। उनके ग्रंथ "वसुचरित्रमु" "नरसमूपालीयमु" और "हरिश्चंद्रनलोपाख्यानमु" आदि हैं। नरसमूपालीयमु नीतिग्रंथ है। "वसुचरित्रमु" इनका सर्वोत्तम काव्य है। प्रबंधकला का चरम विकास इस ग्रंथ में हुआ। इस काव्य के प्रत्येक शब्द में संगीत की मधुर ध्वनि सुनाई देती है। उपर्युक्त विशेष साहित्यिक गुणों के कारण इस कव्य का अनुवाद तमिल तथा संस्कृत भाषाओं में भी हुआ है। इनका पांडित्य "हरिश्चंद्र-नलोपाख्यानमु" नामक द्वयर्थीं काव्यरचना से प्रमाणित होता है।

कुम्मरि मोल्ल -- ये तेलुगु भाषा की प्रथम कवयित्री हैं। ये कुम्हार जाति की स्त्री थीं। इनकी रामायण प्रसाद गुण से ओतप्रोत है। इनके पूर्व तिरुमलूक्कं नाम की कवयित्री भी प्रसिद्ध थीं।

शंकर कवि ने हरिश्चंद्रोपाख्यान की तथा तरिगोंडधर्मंन्न कवि ने चित्रभारतमु नामक अलंकारप्रधान काव्यग्रंथ की रचना की। तेलुगु साहित्य में अवधानकविता नाम की एक अनोखी कविता प्रचलित है। आजकल तेलुगु कविता क्षेत्र में "सहस्रावधान", "शतावधान" और "अष्टावधान" भी प्रचलित हैं। इस कविता में सुप्रख्यात तिरुपति और वेंकट कवि विशेषकर उल्लेखनीय है। वेंकटशास्त्री आंध्रप्रदेश के सर्वप्रथम राजकवि बनाए गए। 19वीं शतब्दी के आदिकाल में इस कविता की नींव तरिगोंडधर्मन्न ने डाली।

एलकूचि बालसरस्वती -- इन्होंने "सारंगधर चरित्रमु" "विजयविलासमु" नामक ग्रंथों की रचना की। श्री कृष्णदेवरायलु के राज्यकाल में काव्यकला का चरम विकास हुआ। इस युग में कवियों ने संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद करना छोड़कर स्वतंत्र मौलिक काव्यों की रचना ख्यात वृत्तों और कल्पित वृत्तों में की।

ह्रासकाल (1650 - 1900)[संपादित करें]

इस युगविशेष में आंध्र प्रदेश के छोटे छोटे राज्यों में विभक्त होने के कारण काव्यकला के भाग्य में राजाओं के आश्रय में रहकर विकसित होने की सुविधा न थी। इसी बीच अंग्रेजों का भी भारतागमन हुआ।

शेषमुवेंकटपति -- ने "तारशशांक विजयमु" नामक नाटक की रचना की।

कूचिमचितिम्मकवि ने ठेठ तेलुगु में "अच्च तेलुगु रामायणमु", "नीला सुंदरीपरिणयमु" की रचना की। "रसिकजनमनोभिराममु", "राजशेखर विलासमु", "सर्वलक्षणसार संग्रहमु" इनकी अन्य रचनाएँ हैं। "शिवलीला विलासमु" आदि भक्तिप्रधान कृतियाँ भी इन्होंने लिखीं।

एनुगु लक्ष्मणकवि -- ये "रामेश्वर महात्म्यमु", "गंगामहात्म्यसमु" "गोवर्ण सूर्य शतकमु" और "सुभाषित रत्नावली" आदि के रचयिता हैं। सुभाषित रत्नावली भर्तृहरि की त्रिशती का सफल अनुवाद है।

पिडिप्रोल लक्ष्मण कवि -- इन्होंने "रावणदंभीयमु" या "लंका विजयमुद्ध नामक काव्य लिखा। यह दूषित काव्य है। इस कवि ने रावण का आरोप धर्माराव नामक राजा पर करके काव्य की रचना की। इसी युग में क्षेत्रय्या और त्यागराजु नामक दो कवि बड़े सुप्रतिष्ठित हुए हैं। त्यागराजु के पदों की मधुरिमा से दक्षिण भारत के प्रत्येक व्यक्ति का मन मुग्ध हो जाता है।

आधुनिक काल (1850 ई॰ से आगे)[संपादित करें]

इस युग में अंग्रेजी भाषा के विद्वान् सीपी ब्राउन महोदय ने तेलुगु की बड़ी सेवा की। इनका निघंटु (कोश) अंग्रेजी से तेलुगु, तेलुगु से अंग्रेजी में लिखा गया प्रसिद्ध कोश है। ये आंध्र प्रदेश में अंग्रेज न्यायाधीश थे। कंदुकूरि वीरेशलिंगम् पंतुलु उदारहृदय, समाजसेवी तथा विद्वान् थे। इन्होंने कई नाटक, उपन्यास, काव्य, कहानी आदि ग्रंथ लिखकर साहित्य के प्रत्येक मार्ग को प्रशस्त किया। ये भारतेंदु हरिश्चंद्र की तरह समाजसुधारक थे। सन् 1910 से काव्य की नवीन धारा साहित्य के क्षेत्र में बहने लगी। तेलुगु साहित्य में भी रहस्यवादी, छायावादी कविताएँ प्रवाहित हुईं। इसके साथ साथ स्वतंत्रता के आंदोलन के समय राष्ट्रीयता की लहर साहित्य में तरंगित हो उठी। इस युग में कव्य, नाटक, उपन्यास, समालोचना, कहानी, गीतिनाटक, एकांकी आदि का विकास हुआ। आजकल रेडियो नाटक भी प्रसारित हो रहे हैं। 1940 ई॰ से प्रगतिवाद का प्रादुर्भाव हुआ। अन्नसंकट आदि की समस्याओं को लेकर भी रचनाएँ की गईं।

आधुनिक काल के प्रमुख विद्वान् परव्रस्तु चिन्नयसूरि (1506-1852) ने "बाल व्याकरणमु" लिखकर तेलुगु भाषा का मार्ग प्रशस्त तथा सुव्यवस्थित किया। यह विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों के लिये अनिवार्य पाठ्यग्रंथ है। इनकी "नीतिचंद्रिका" पंचतंत्र का गद्यानुवाद है। यह भी विद्यालयों में बहुत प्रचलित है।

बहुजनपल्लि सीतारामाचार्य -- इन्होंने सर्वप्रथम प्रामाणिक कोश "शब्दरत्नाकर" की रचना की। इसकी टक्कर का लोकप्रिय कोश अबतक अप्राप्य है।

वेदंवेंकटराय शास्त्री -- (1859 से 1929) तेलुगु और संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। "साहित्यदर्पण" आदि ग्रंथों का अनुवाद भी इन्होंने किया।

धर्मवरम् रामकृष्णमाचार्य -- (1859 से 1913 तक) इन्होंने कई स्वतंत्र नाटक लिखकर उनका अभिनय स्वयं रंगमंच पर कराया। तेलुगु में खेले जाने योग्य नाटकों के निर्माण की नींव डालने का श्रेय इन्हीं को प्राप्त है।

जयंती रामय्या ने सात सौ शिलालेखों का प्रकाशन सरकार द्वारा कराया। तेलुगु में इनकी "शासन पद्य मंजरी" लोकप्रिय है।

गिडुगु राममूर्ति पंतुलु ने तेलुगु भाषाशैली को सुधारा। व्यावहारिक बोलचाल की भाषा में ग्रंथ लिखने की नींव इन्होंने सर्वप्रथम डाली। इनकी कृतियों में "गद्यचिंतामणि", "बालकविशरणयमु" उल्लेखनीय हैं। इन्हीं के मार्ग का अनुसरण कर इनके सुपुत्र डा॰ सीतापति संस्कृत और तेलुगु के ग्रंथों की रचना कर रहे हैं।

पानुगंटि लक्ष्मीनरसिंह राव -- "राधाकृष्ण कंठाभरण" आदि सात आठ नाटकों के रचयिता हैं। अंग्रेजी में जो स्थान एडिसन को प्राप्त है वही तेलुगु साहित्य में इनका है। इनकी व्यंग्य रचना "साक्षी" नामक लेखमाला से प्रकट होती है।

श्रीपादकृष्णमूर्तिशास्त्री -- ने वेदों का पूर्ण अध्ययन किया। शताधिक तेलुगु ग्रंथों की रचना की। उनकी महाभारत की रचना तेलुगु साहित्य में विशेष उल्लेखनीय है। इसी कारण ये 'आंध्रव्यास' कहे जाते हैं। ये कविसार्वभौम तथा महामहोपाध्याय की उपाधियों से भी विभूषित हुए। इनके नाटक कुछ स्वतंत्र और कुछ अनूदित हैं। ये आंध्र प्रदेश के राजकवि भी बनाए गए।

त्रिलकमूर्ति लक्ष्मी नरसिंहम् -- जो आंध्र मिल्टन के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये युवावस्था में ही अंधे हो गए। इनके कई नाटक और कहानियाँ आदि अत्यंत सुप्रसिद्ध हैं। चिलुकूरि वीरभद्रराव को आंध्र साहित्य का इतिहास लिखने का श्रेय प्राप्त है।

कोर्मराजु लक्ष्मणराव ने हिंदू महम्मदीय मुगल शिवा जी चरितमु आदि कई ग्रंथों की रचना की। 'आंध्रविज्ञान सर्वस्वमु' नाम से तेलुगु में एक विश्वकोश सर्वप्रथम तैयार करने का श्रेय इनको मिला। इसके केवल दो अंक छापे गए। इन्हीं के मार्ग पर तेलुगु भाषा समिति की ओर से तेलुगु विश्वकोश का प्रणयन हुआ।

चार्ल्स फिलिप ब्राउन ने तेलुगु निघंटु (कोष) संकलन करने और बनाने में सफल रहे। आधुनिक युग के युवकों पर पाश्चात्य साहित्य के स्वच्छंदतावाद, रहस्यवाद, प्रतीकवाद आदि का घनिष्ट प्रभाव पड़ा। वंग साहित्य के अनुवाद ने भी तेलुग में अपना स्थान ग्रहण किया।

विश्वसत्यनारायण -- इन्होंने अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा से साहित्य के प्रत्येक कोने को प्रकाशित किया। हाल ही में इन्होंने श्रीमद्रामायण कल्पवृक्षमु नाम से बृहदाकार रामायण की रचना की। इस पंथ के सुप्रसिद्ध विद्वान् और कवि वेलूरी शिवराम शास्त्री, स्व॰ वेटूरि प्रभाकर शास्त्री, स्व॰ काटूरि वेंकटेश्वरराव, स्व॰ जनभंत्रि शेषाद्रि शर्मा, राल्लपल्लि अनंतकृष्ण शर्मा, स्व॰ मल्लमपल्लि सोमेशेखर शर्मा, नेदवोलुवेंकटराव, शिवशंकर शास्त्री, स्व॰ सुरवरम् प्रतापरेड्डी, स्व॰ मानवल्ली रामकृष्ण कवि, काशी कृष्णाचार्य (आंध्र के वर्तमान राजकवि), स्व॰ राजशेखर शतावधानी, गडियारम् वेंकटेश शास्त्री, उमरअली शाह, जाषुवा, तुम्मल सीताराम मूर्ति चौधरी, स्व॰ मदिराजु विश्वनाथ राव, स्व॰ कट्टमंचिरामलिंगा रेड्डी, स्व॰ दुव्वूरी-रामरेड्डी आदि प्रसिद्ध हैं। इनके पूर्व कवि की शैली में रचे हुए ग्रंथ तेलुगु साहित्य के आभूषण माने गए हैं। प्रगतिवादी कविता के अग्रदूत हैं श्री रंगम् श्रीनिवास राव। इनके अनुयायियों में अनेकानेक कवि हैं। देवुलपल्लि कृष्णशास्त्री, रायप्रोलु सुब्बाराव आदि भावकवि के नाम से प्रसिद्ध हैं। गुरुजाडा अप्पाराव सुप्रसिद्ध लोककवि हैं।

संस्कृत एवं तमिल आदि का प्रभाव[संपादित करें]

तेलुगु साहित्य अधिकांशत: संस्कृत साहित्य से प्रभावित है, फिर भी उसमें मौलिक सर्जना पर्याप्त मात्रा में हुई। तेलुगु में मार्गकविता यानी संस्कृतमय कविता और देशी कविता यानी व्यावहारिक शब्दों की कविता की गयी। मार्गकविता में पुराणसाहित्य का निर्माण हुआ। देशी कविता में द्विपदा साहित्य, जानपद साहित्य आदि का निर्माण हुआ। इसी बीच पुराणसाहित्य, नाटकसाहित्य, प्रबंधसाहित्य के अतिरिक्त उदाहरणसाहित्य आदि का भी निर्माण हुआ।

तेलुगु साहित्य पर तमिल साहित्य का प्रभाव भी काफी पड़ा। मौलिक उपन्यास लिखे गए। आजकल अनुवाद कार्य संस्कृत, अंग्रेजी, बँगला तथा हिंदी आदि अन्य भाषाओं से हो रहा है। रसगंगाधर आदि लक्षण ग्रंथों का अनुवाद माधव शर्मा आदि कवियों ने किया। "ध्वन्यालोक" का अनुवाद तिरुत्रेंगडाचार्य और पंतुलु लक्ष्मीनारायण शास्त्री ने किया। प्रेमचंद्र की कहानियों के साथ साथ वैज्ञानिक साहित्य का अनुवाद भी तेलुगु में "परमाणुगाथा" आदि ग्रंथों के पूरक के रूप में हो रहा है।

तेलुगु साहित्य क्षेत्र में 11वीं शताब्दी के आरंभ से आजतक के हजार वर्ष में इतिहास पुराणादि से गाँवों की कहानियाँ, गाने आदि तक की हर प्रवृत्ति की हजारों कृतियों की सृष्टि हुई। आंध्र प्रदेश की साहित्य अकादमी तथा अन्य साहित्यिक संस्थाओं द्वारा इनकी श्रीवृद्धि भी यथासाध्य हो रही है। आंध्रप्रदेश में संस्कृत और तेलुगु भाषा में समान उच्च कोटि की प्रतिभा रखनेवाले विद्वान् और कवि विराजमान हैं। इसका एकमात्र कारण इन दो भाषाओं का पारस्परिक संबंध है। संस्कृत के प्रमुख ग्रंथ तेलुगु में अनूदित हुए हैं। इन अनुवादों में व्याकरण, न्याय, वेदांत (दर्शन) आदि शास्त्रग्रंथ भी सम्मिलित हैं। उपर्युक्त साहित्यिक गतिविधियों के कारण तेलुगु भाषा और साहित्य का भविष्य उज्वल एवं विकासोन्मुख दिखाई देता है।

पत्रपत्रिकाएँ[संपादित करें]

तेलुगु भाषा में मासिक, पाक्षिक, साप्ताहिक और दैनिक पत्र-पत्रिकाएँ अधिक संख्या में प्रकाशित होती हैं। मासिक पत्रों में प्रथम पत्रिका शारदा थी। भारती का आरंभ 1924 ई॰ में हुआ। देशोद्धारक काशीनाथुनि नागेश्वर राव इस पत्रिका के संस्थापक थे। उस कांग्रेसी नेता तथा साहित्यसेवी के औदार्य से कई साहित्य लेखक, विद्यार्थी और साहित्यिक संस्थाएँ पली हैं। "भारती" के अलावा "सखी" उषा", "वीणा", "उदायिनी" और जयंती आदि तेलुगु मासिक पत्रिकाएँ उल्लेखनीय हैं। महिलाओं के लिये गृहलक्ष्मी, हिंदू सुंदरी, आंध्रमहिला आदि मासिक पत्रिकाएँ प्रचलित हैं। आंध्रमहिला का संचालन श्रीमती दुर्गाबाई देशमुख के द्वारा हुआ।

साप्ताहिक पत्रिकाओं में "कृष्णा" पत्रिका प्रमुख है जिसका संपादन कृणराव जी कर रहे थे। अब उसका संचालन श्री एम॰ एस॰ के॰ शर्मा द्वारा हो रहा है इसके अतिरिक्त साप्ताहिक पत्रिकाओं में "आंध्र प्रभा", "आंध्रपत्रिका" आदि उल्लेखनीय हैं। आंध्र प्रदेश सरकार के सूचना विभाग से "आंध्रप्रदेश" नाम का मासिक पत्र भी प्रकाशित होता है।

दैविक पत्रों में आंध्र पत्रिका का संचालन लगभग 45 वर्ष पूर्व "भारती" के संचालक श्री नागेश्वर राव जी द्वारा हुआ। अब इसके संचालक श्री शंभुदास हैं। "आंध्रपत्रों का आरंभ करीब 20 वर्ष पूर्व नारायणमूर्ति के संपादकत्व में हुआ। अब इसके सपादक श्री नीलंराजु-वेंकटशेषय्या हैं। इनके अतिरिक्त "आंध्रज्योति", "गोलकोंडा पत्रिका", "आंध्रजनता", "आंध्रभूमि" और कम्युनिस्टों की "विशालांध्र" पत्रिका आदि आंध्र प्रदेश से निकल रहे हैं।

साहित्यिक संस्थाएँ[संपादित करें]

कई साहित्यक संस्थाएँ आंध्र प्रदेश में हैं। उनमें से आंध्र साहित्यिक परिषद् काकिनाडा, साहिती समिति रेपल्लै, अखिल साहित्य कला विवर्धन, आंध्रसंसद और नव्य साहित्य परिषद् गुंटूर, आंध्रसारस्वत परिषद् हैदराबाद उल्लेखनीय हैं। मद्रास की तेलुगु भाषा समिति की ओर से तेलुगु के विश्वकोश का निर्माण और प्रकशन हो रहा है। इसके अलावा हैदराबाद नगर में "संग्रह आंध्रविज्ञान सर्वस्वमु" के नाम से तेलुगु में एक संक्षिप्त विश्वकोश भी प्रकाशित हो रहा है। उसके दो खंड निकल चुके हैं। इसके मुख्य संपादक उस्मानिया विश्वविद्यालय के तेलुगु विभाग के अध्यक्ष, प्रो॰ खंडवल्लि लक्ष्मीरंजनम् हैं। आंध्र विज्ञान सर्वस्वमु एवं तेलुगु भाषासमिति के अध्यक्ष डा॰ गोपाल रेड्डी हैं। आंध्र सरकार ने आंध्र प्रदेश साहित्य अकादमी की स्थापना सन् 1957 ई॰ में की है।

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]