तिलका माँझी
तिलका माँझी | |
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![]() दुमका, झारखंड मेँ तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाड़िया की प्रतिमा | |
जन्म | 11 फ़रवरी 1750 Sultanganj, Bihar, Company Raj |
निधन | 13 जनवरी 1785 | (उम्र 34)
पेशा | Minister |
तिलका माँझी, (संथाल:ᱵᱟᱵᱟ ᱛᱤᱞᱠᱟᱹ ᱢᱟᱡᱷᱤ) (11 फ़रवरी 1750 - 13 जनवरी 1785) तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाड़िया जिन्होंने राजमहल, झारखंड की पहाड़ियों पर ब्रिटिश हुकूमत से लोहा लिया। इनमें सबसे लोकप्रिय तिलका मांझी हैं।[1][2]
परिचय[संपादित करें]
जबरा पहाड़िया (तिलका मांझी) भारत में ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने वाले पहाड़िया समुदाय के वीर आदिवासी थे। सिंगारसी पहाड़, पाकुड़ के जबरा पहाड़िया[3] उर्फ तिलका मांझी के बारे में कहा जाता है कि उनका जन्म 11 फ़रवरी 1750 ई. में हुआ था। 1771 से 1784 तक उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लंबी और कभी न समर्पण करने वाली लड़ाई लड़ी और स्थानीय महाजनों-सामंतों व अंग्रेजी शासक की नींद उड़ाए रखा। पहाड़िया लड़ाकों में सरदार रमना अहाड़ी और अमड़ापाड़ा प्रखंड (पाकुड़, संताल परगना) के आमगाछी पहाड़ निवासी करिया पुजहर और सिंगारसी पहाड़ निवासी जबरा पहाड़िया भारत के आदिविद्रोही हैं।[3] दुनिया का पहला आदिविद्रोही रोम के पुरखा आदिवासी लड़ाका स्पार्टाकस को माना जाता है। भारत के औपनिवेशिक युद्धों के इतिहास में जबकि पहला आदिविद्रोही होने का श्रेय पहाड़िया आदिम आदिवासी समुदाय के लड़ाकों को जाता हैं जिन्होंने राजमहल, झारखंड की पहाड़ियों पर ब्रितानी हुकूमत से लोहा लिया। [4]इन पहाड़िया लड़ाकों में सबसे लोकप्रिय आदिविद्रोही जबरा या जौराह पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी हैं। इन्होंने 1778 ई. में पहाड़िया सरदारों से मिलकर रामगढ़ कैंप पर कब्जा करने वाले अंग्रेजों को खदेड़ कर कैंप को मुक्त कराया। 1784 में जबरा ने क्लीवलैंड को मार डाला। बाद में आयरकुट के नेतृत्व में जबरा की गुरिल्ला सेना पर जबरदस्त हमला हुआ जिसमें कई लड़ाके मारे गए और जबरा को गिरफ्तार कर लिया गया। कहते हैं उन्हें चार घोड़ों में बांधकर घसीटते हुए भागलपुर लाया गया। पर मीलों घसीटे जाने के बावजूद वह पहाड़िया लड़ाका जीवित था। खून में डूबी उसकी देह तब भी गुस्सैल थी और उसकी लाल-लाल आंखें ब्रितानी राज को डरा रही थी। भय से कांपते हुए अंग्रेजों ने तब भागलपुर के चौराहे पर स्थित एक विशाल वटवृक्ष पर सरेआम लटका कर उनकी जान ले ली। हजारों की भीड़ के सामने जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए। तारीख थी संभवतः 13 जनवरी 1785। बाद में आजादी के हजारों लड़ाकों ने जबरा पहाड़िया का अनुसरण किया और फांसी पर चढ़ते हुए जो गीत गाए - हांसी-हांसी चढ़बो फांसी ...! - वह आज भी हमें इस आदिविद्रोही की याद दिलाते हैं।
पहाड़िया समुदाय का यह गुरिल्ला लड़ाका एक ऐसी किंवदंती है जिसके बारे में ऐतिहासिक दस्तावेज सिर्फ नाम भर का उल्लेख करते हैं, पूरा विवरण नहीं देते। लेकिन पहाड़िया समुदाय के पुरखा गीतों और कहानियों में इसकी छापामार जीवनी और कहानियां सदियों बाद भी उसके आदिविद्रोही होने का अकाट्य दावा पेश करती हैं।
तिलका माँझी उर्फ जबरा पहाड़िया विवाद[संपादित करें]
तिलका मांझी संताल थे या पहाड़िया इसे लेकर विवाद है।[5] आम तौर पर तिलका मांझी को मूर्मु टोटेम का बताते हुए अनेक लेखकों ने उन्हें संताल आदिवासी बताया है। तिलका के संताल होने का कोई ऐतिहासिक दस्तावेज और लिखित प्रमाण मौजूद ना हो, किन्तु संथालों के अनेकों लोक गीतों में उनका नाम है। और रही बात इतिहास की तो भारत देश मे सदैव उच्च जाति और पैसे वालों के आगे झुकता रहा है ।, ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार संताल आदिवासी समुदाय के लोग 1770 के अकाल के कारण 1790 के बाद संताल परगना की तरफ आए और बसे।
The Annals of Rural Bengal, Volume 1, 1868 By Sir William Wilson Hunter (page no 219 to 227) में साफ लिखा है कि संताल लोग बीरभूम से आज के सिंहभूम की तरफ निवास करते थे। 1790 के अकाल के समय उनका माइग्रेशन आज के संताल परगना तक हुआ। हंटर ने लिखा है, ‘1792 से संतालों नया इतिहास शुरू होता है’ (पृ. 220)। 1838 तक संताल परगना में संतालों के 40 गांवों के बसने की सूचना हंटर देते हैं जिनमें उनकी कुल आबादी 3000 थी (पृ. 223)। हंटर यह भी बताता है कि 1847 तक मि. वार्ड ने 150 गांवों में करीब एक लाख संतालों को बसाया (पृ. 224)।[6]
1910 में प्रकाशित ‘बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर: संताल परगना’, वोल्यूम 13 में एल.एस.एस. ओ मेली ने लिखा है कि जब मि. वार्ड 1827 में दामिने कोह की सीमा का निर्धारण कर रहा था तो उसे संतालों के 3 गांव पतसुंडा में और 27 गांव बरकोप में मिले थे। वार्ड के अनुसार, ‘ये लोग खुद को सांतार कहते हैं जो सिंहभूम और उधर के इलाके के रहने वाले हैं।’ (पृ. 97) दामिनेकोह में संतालों के बसने का प्रामाणिक विवरण बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर: संताल परगना के पृष्ठ 97 से 99 पर उपलब्ध है।[7]
इसके अतिरिक्त आर. कार्सटेयर्स जो 1885 से 1898 तक संताल परगना का डिप्टी कमिश्नर रहा था, उसने अपने उपन्यास ‘हाड़मा का गांव’ (Harmawak Ato) की शुरुआत ही पहाड़िया लोगों के इलाके में संतालों के बसने के तथ्य से की है।[8]
पूर्वजों के नाम पर बच्चे का नाम रखने की परंपरा अन्य आदिवासी समुदायों की तरह संतालों में भी है। लेकिन संतालों में पूर्व में और आज भी किसी व्यक्ति का नाम ‘तिलका’ नहीं मिलता है। लेकिन पहाड़िया समुदाय के लोगों में आज भी ‘जबरा’ नाम रखने का प्रचलन है।[9]
अंग्रेजों ने जबरा पहाड़िया को खूंखार डाकू और गुस्सैल (तिलका) मांझी (समुदाय प्रमुख) कहा। संतालों में भी मांझी होते हैं और बड़ी आबादी व 1855 के हूल के कारण वे ज्यादा जाने गए, इसलिए तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाड़िया के संताल आदिवासी होने का भ्रम फैला। दरअसल, जबरा प्रत्यक्षतः भागलपुर के तत्कालीन जिला कलेक्टर क्लीवलैंड द्वारा गठित ‘पहाड़िया हिल रेंजर्स’ के सेना नायक के रूप में अंग्रेजी शासन के वफादार बनने का दिखावा करते थे और नाम बदल कर ‘तिलका’ मांझी के रूप में अपने सैंकड़ों लड़ाकों के साथ गुरिल्ला तरीके से अंग्रेज शासक, सामंत और महाजनों के साथ युद्धरत रहते थे। वैसे, पहाड़िया भाषा में ‘तिलका’ का अर्थ है गुस्सैल और लाल-लाल आंखों वाला व्यक्ति।[10] चूंकि वह ग्राम प्रधान था और पहाड़िया समुदाय में ग्राम प्रधान को मांझी कहकर पुकारने की प्रथा है। इसलिए हिल रेंजर्स का सरदार जौराह उर्फ जबरा मांझी तिलका मांझी के नाम से विख्यात हो गए। ब्रिटिशकालीन दस्तावेजों में भी जबरा पहाड़िया मौजूद है पर तिलका का कहीं नामोल्लेख नहीं है।[11]
साहित्य में जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी[संपादित करें]
बांग्ला की सुप्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी ने तिलका मांझी के जीवन और विद्रोह पर बांग्ला भाषा में एक उपन्यास 'शालगिरर डाके' की रचना की है। अपने इस उपन्यास में महाश्वेता देवी ने तिलका मांझी को मुर्मू गोत्र का संताल आदिवासी बताया है। यह उपन्यास हिंदी में 'शालगिरह की पुकार पर' नाम से अनुवादित और प्रकाशित हुआ है।[12]
हिंदी के उपन्यासकार राकेश कुमार सिंह ने जबकि अपने उपन्यास ‘हूल पहाड़िया’ में तिलका मांझी को जबरा पहाड़िया के रूप में चित्रित किया है। ‘हूल पहाड़िया’ उपन्यास 2012 में प्रकाशित हुआ है।[13]
तिलका मांझी के नाम पर भागलपुर में तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय नाम से एक शिक्षा का केंद्र स्थापित किया गया है।
हिंदी के उपन्यासकार राकेश कुमार सिंह ने अपने उपन्यास हूल पहाड़िया मैं तिलका मांझी को जाबरा पहाड़िया के रूप में चित्रित किया है।
इन्हें भी देखें[संपादित करें]
सन्दर्भ[संपादित करें]
- ↑ https://en.wikipedia.org/wiki/User:Brajesh_verma Archived 2015-06-23 at the Wayback Machine
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 27 फ़रवरी 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 12 फ़रवरी 2015.
- ↑ अ आ http://www.jagran.com/jharkhand/sahibganj-8806138.html सन्दर्भ त्रुटि:
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अमान्य टैग है; "जबरा पहाड़िया" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है - ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 13 फ़रवरी 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 13 फ़रवरी 2015.
- ↑ http://timesofindia.indiatimes.com/city/ranchi/Two-tribes-in-tiff-over-Tilka-Manjhis-legacy/articleshow/30330250.cms Archived 2014-02-17 at the Wayback Machine
- ↑ http://books.google.co.in/books?id=W1kOAAAAQAAJ&printsec=frontcover&source=gbs_ge_summary_r&cad=0#v=onepage&q&f=false Archived 2015-02-13 at the Wayback Machine
- ↑ https://books.google.co.in/books?id=RdyjG9DYVLsC&printsec=frontcover&dq=bengal+district+gazetteers&hl=en&sa=X&ei=vz3dVMzmHI2vuQSL14LYBw&ved=0CBwQ6AEwAA#v=onepage&q=bengal%20district%20gazetteers&f=false Archived 2015-02-13 at the Wayback Machine
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 23 सितंबर 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 14 जून 2020.
- ↑ http://aahar.jharkhand.gov.in/cardholders/excelCardholder/Mg==/MTI3MDg=[मृत कड़ियाँ]
- ↑ Tilka Manjhi (Hindi) by Rajendra Prasad Singh : ISBN13: 9788190241938ISBN10: 8190241931, Publisher: Nayi Kitab, Publishing Date:2011
- ↑ https://www.facebook.com/aaaoindia/posts/897628090259415
- ↑ https://books.google.co.in/books?id=ckreepb_i5AC&printsec=frontcover&dq=Mahasweta+Devi+google+books&hl=en&sa=X&ei=vkndVPOXOojiuQSCj4LACw&ved=0CCIQ6AEwATgK#v=onepage&q&f=false Archived 2015-02-13 at the Wayback Machine
- ↑ हुल पहाड़िया (उपन्यास) / लेखक – राकेश कुमार सिंह / सामयिक बुक्स, नई दिल्ली
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
- संथाल परगना में पहाड़िया राज का इतिहास[1]
- नेपथ्य का नायक – तिलका मांझी, राकेश बिहारी [2]
- जंगलतरी में तिलका मांझी का विद्रोह (1783-84)[मृत कड़ियाँ]
- तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय