तनावशैथिल्य

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रिचर्ड निक्सन और ब्रेझनेव के बीच वार्ता (१९७३)

1962 के क्यूबा संकट के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के व्यवहार में आए परितर्वनों को तनावशैथिल्य या 'दितान्त' (Détente) का नाम दिया जाता है।

क्यूबा संकट के बाद शीतयुद्ध के वातावरण में कुछ नरमी आई और दोनों गुटों के मध्य व्याप्त तनाव की भावना सौहार्दपूर्ण व मित्रता की भावना में बदलने के आसार दिखाई देने लग गए। इससे दोनों देशों के मध्य मधुर सम्बन्धों की शुरुआत होने के लक्षण प्रकट होने लगे। दितान्त ने शीतयुद्ध से उत्पन्न पुराने अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों का परिदृश्य बदलने लगा और विश्व में शांतिपूर्ण वातावरण का जन्म हुआ। इससे संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका में भी वृद्धि हुई और परमाणु युद्ध के आतंक से छुटकारा मिला।

ऑक्सफोर्ड इंगलिश डिक्शनरी में दो राज्यों के तनावपूर्ण सम्बन्धों की समाप्ति को 'दितान्त' कहा गया है। इसे शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व भी कहा जा सकता है। दितान्त फ्रेंच भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है - तनाव में शिथिलता (Relaxation of Tensions)। अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों में प्रायः इसका प्रयोग अमेरिका और सोवियत संघ के बीच द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद व्याप्त तनाव में कमी और उनमें बढ़ने वाली सहयोग व शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व की भावना के लिए किया जाता है।

तनाव-शैथिल्य के कारण[संपादित करें]

अमेरिका और सोवियत संघ के मध्य द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद व्याप्त तनाव या शीत युद्ध में आई कमी के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

  • 1. आर्थिक विकास : क्यूबा मिसाइल संकट ने दोनों को सबक दिया कि वे परस्पर उलझकर अपनी अर्थव्यवस्थाओं को पतन की ओर धकेल रही हैं। सोवियत संघ ने इस बात को समझते हुए अपने आर्थिक विकास की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व की नीति पर जोर दिया।
  • 2. परमाणु युद्ध का भय : परमाणु अस्त्रों की भयानकता ने दोनों महाशक्तियों को चेता दिया कि ये युद्ध भयंकर परिणाम वाले होंगे और दोनों देशों के जान माल को बहुत ज्यादा नष्ट कर देंगे। इस भय के कारण दोनों महाशक्तियां शान्ति की दिशा में पहल करने लग गई।
  • 3. कच्चे माल की आवश्यकता : अमेरिका ने यह महसूस किया कि उसके उद्योगों के लिए कच्चा माल सोवियत संघ से प्राप्त किया जा सकता है। उसकी अर्थव्यवस्था का विकास कच्चे माल पर ही निर्भर है। सोवियत संघ से व्यापारिक संबंध बढ़ाने से ही कच्चा माल प्रापत किया जा सकता है और लाभ उठाया जा सकता है। इसी कारण से अमेरिका ने टकराव का रास्ता छोड़ने की बात अपना ली।
  • 4. स्थायी शान्ति का विचार : दोनों महाशक्तियां लम्बे समय से एक दूसरे के साथ तनाव को बढ़ा रही थी। इस तनाव के चलने न तो उनके राष्ट्रीय हितों में वृद्धि सम्भव थी और न ही स्थायी शान्ति की स्थापना हो सकती है। स्थायी शान्ति के बिना आर्थिक विकास सम्भव नहीं था। इसलिए दोनों शक्तियां परस्पर भेदभाव भूलकर सहयोग का रास्ता अपनाने को सहमत हो गई।
  • 5. राष्ट्रीय हितों में वृद्धि - दोनों महाशक्तियों ने अनुभव किया कि लोक कल्याण को बढ़ावा देने, गरीबी निवारण, लोगों का जीवन स्तर सुधारने के लिए परस्पर तकनीकी सहयोग द्वारा राष्ट्रीय प्राथमिकताओं का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। तनाव या युद्ध किसी भी अवस्था में राष्ट्रीय हितों का संवर्धन नहीं कर सकते। इसे तो शान्ति के वातावरण में ही विकसित किया जा सकता है।
  • 6. वास्तविक युद्ध या गर्म युद्ध का भय - शीत युद्ध का वातावरण कभी भी गर्म युद्ध का रूप ले सकता था। इस भय ने दोनों महाशक्तियों को शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व की नीति अपनाने के लिए बाध्य कर दिया।
  • 7. साम्यवादी गुट का ढीलापन - चीन तथा सोवियत संघ में भी परस्पर मतभेद पैदा हो गए। सोवियत संघ ने महसूस किया कि चीन का मुकाबला करने के लिए पश्चिमी राष्ट्रों से मित्रता करना जरूरी है। इसलिए सोवियत संघ ने अमेरिका विरोधी रुख छोड़ दिया और सौहार्दपूर्ण व्यवहार करने लग गया।
  • 8. गुट निरपेक्ष देशों की भूमिका - गुटनिरपेक्ष देशों नें दोनों देशों को शीतयुद्ध से बाहर निकलने के लिए प्रेरित किया। दोनों महाशक्तियों के साथ शामिल देश एक एक करके गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के सदस्य बनने लग गए। इससे दोनों गुटों को विश्व राजनीति में अपनी पकड़ ढीली होती नजर आई। इससे वे अपना पुराना रास्ता छोड़कर यथार्थ दुनिया में कदम रखने को तैयार हो गए। उन्होंने गुट निरपेक्ष देशों की भूमिका को प्रशंसा करनी शुरू कर दी। इससे दोनों में व्याप्त तनाव कम होने लगा।
  • 9. बहुकेन्द्रवाद का जन्म - 1963 के बाद ब्रिटेन, फ्रांस और चीन परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र बन गए। जापान, जर्मनी, भारत जैसी शक्तियां भी आर्थिक और राजनीतिक शक्ति के केन्द्र में उभरने लगे। 1975 में भारत ने भी परमाणु शक्ति हासिल करके दोनों महाशक्तियों को अपनी उपस्थिति का अहसास करा दिया। अंतरराष्ट्रीय राजनीति का द्विध्रुवीकरण (Bipolarity) अब बहुकेन्द्रवाद (Poly-Centrism) में बदलने लगा। इससे विश्व राजनीति का दो गुटों में विभाजन का विचार भंग होने लगा। ऐसे में दोनों गुटों ने टकराव का रास्ता छोड़कर अपने आप को अंतरराष्ट्रीय जगत में नई भूमिका निभाने के लिए प्रेरित किया।

इस प्रकार दोनों देशों के मध्य व्याप्त शीत युद्ध धीरे धीरे तनाव शैथिल्य की दिशा में मुड़ने लगा और नए अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का वातावरण तैयार हो गया जिसमें भय की बजाय शान्ति व सौहार्द का स्थान सर्वोपरि था।

तनाव-शैथिल्य के प्रयास[संपादित करें]

1963 में क्यूबा संकट के बाद दोनों महाशक्तियों ने टकराव का रास्ता छोड़कर शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की नीति अपनाने पर विचार किया। दोनों ने आपसी तनाव को कम करने के लिए कुछ प्रयास किए जो निम्नलिखित हैंः-

  • 25 जुलाई 1963 को दोनों देशों ने परमाणु परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि की। इससे दितान्त को बढ़ावा मिला।
  • 1963 में ही दोनों देशों में आकस्मिक दुर्घटना में छिड़ने वाले युद्ध में निपटने के लिए हॉट लाइन समझौता हुआ।
  • दोनों देशों में तनावों को कम करने के लिए ग्लासब्रो शिखर सम्मेलन जून 1967 में हुआ। इसमें दोनों देशों ने वियतनाम तथा मध्यपूर्व पर विचारों का आदान प्रदान किया।
  • 1968 में सोवियत संघ, अमेरिका तथा ब्रिटेन ने मिलकर परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर किये।
  • 1970 में मास्को बोन समझौता हुआ। इस समझौते ने पश्चिमी जर्मनी तथा सोवियत संघ के बीच तनावपूर्ण स्थिति को समाप्त कर दिया।
  • 1971 में अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन तथा सोवियत संघ के बीच पश्चिमी बर्लिन के बारे में एक महत्वपूर्ण समझौता हुआ, जिसके अनुसार पूर्वी व पश्चिमी बर्लिन की जनता को आपसी आदान-प्रदान की स्वतन्त्रता प्रदान की गई। इससे बर्लिन को लेकर दोनों गुटों के बीच व्याप्त तनाव में कमी आई।
  • 1972 में अमेरिका और सोवियत संघ दोनों ने दो जर्मन राज्यों के सिद्धान्तों को मान्यता प्रदान करके जर्मनी की समस्या का समाधान कर दिया।
  • 7 जुलाई 1973 को अंतरराष्ट्रीय सहयोग बढ़ाने के लिए फिनलैंड की राजधानी हेलसिंकी में यूरोपीय सुरक्षा सम्मेलन हुआ। 1974 में दूसरे यूरोपीय सुरक्षा सम्मेलन (ब्लाडिवास्तोक में) द्वारा शीतयुद्ध को समाप्त करने की दिशा में प्रयास किया गया।
  • 1975 में कम्बोडिया युद्ध की समाप्ति ने शीतयुद्ध के अन्य केन्द्र हिन्दचीन को समाप्त कर दिया।
  • 1975 में वियतनाम में युद्ध की समाप्ति तथा एकीकरण की प्रक्रिया से शीतयुद्ध में कमी आई।
  • 1977 में तृतीय यूरोपीय सुरक्षा सम्मेलन (बेलग्रेड) में हैलसिंकी समझौते की भावना को मजबूत आधार प्रदान किया।

इन प्रयासों के अतिरिक्त 1972 में दोनों महाशक्तियों के बीच मास्को वार्ता, 1972 का साब्ट-एक समझौता, सोवियत संघ-अमेरिका आर्थिक सहयोग, बेहनेव की अमेरिकी यात्रा, 1973, अपोलो-सोयूज का अन्तरिक्ष में मेल, साल्ट-2 समझौता 1979, आदि प्रयासों से भी शीत युद्ध में कमी आई। लेकिन 1963 से 1970 तक शीत युद्ध के कमी के संकेत नाम मात्र के रहे। इस दौरान भारत-पाक युद्ध 1965 को लेकर दोनों महाशक्तियों में तनाव बरकरार रहा। 1967 में अरब-इजराइल युद्ध ने भी शीत युद्ध को जारी रखा। इसके दौरान शीत युद्ध में कमी लाने के प्रयास किए जाते रहे हैं और उन्हें आंशिक सफलता भी मिली। इसलिए इसे 'दितान्त का निष्क्रिय काल' कहा जाता है। इसकी वास्तविक प्रगति 1970 में शुरू हुई और 1979 तक यह चरम सीमा पर पहुंच गया। इस समय को 'दितान्त का सक्रिय काल' कहा जाता है। इस समय दितान्त ने अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों को बहुत प्रभावित किया और पुराने शीतकालीन सम्बन्ध समाप्त होते नजर जाए।

दितान्त का अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों पर प्रभाव[संपादित करें]

दितान्त ने शीतयुद्ध से उत्पन्न पुराने अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों का परिदृश्य बदलने लगा और विश्व में शांतिपूर्ण वातावरण का जन्म हुआ। इससे संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका में भी वृद्धि हुई और परमाणु युद्ध के आतंक से छुटकारा मिला। दितान्त का अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर निम्न प्रभाव पड़ा-

  • 1. इससे महाशक्तियों के बीच सहयोग और मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का विकास हुआ।
  • 2. इससे विभाजित यूरोप का एकीकरण हुआ और व्यापारिक व सांस्कृतिक आदान-प्रदान का विस्तार हुआ।
  • 3. इससे आतंक का संतुलन समाप्त हो गया और विश्व में तीसरे महायुद्ध के भय से मुक्ति मिल गई।
  • 4. इससे परमाणु शस्त्रों के नियंत्रण के प्रयास तेज हो गए।
  • 5. इससे गुट बन्दी को गहरा आघात पहुंचा। दोनों गुटों के साथ शामिल देश भी स्वतन्त्रता के लिए प्रयास करने लगे।
  • 6. इससे संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका में वृद्धि हुई।
  • 7. इसने गुट निरपेक्षता को अप्रासांगिक बना दिया।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]