झारखंड आंदोलन
झारखंड आंदोलन भारत के छोटा नागपुर पठार और इसके आसपास के क्षेत्र, जिसे झारखण्ड के नाम से जाना जाता है, को अलग राज्य का दर्जा देने की माँग के साथ शुरू होने वाला एक सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन था। इसकी शुरुआत 20 वीं सदी के शुरुआत में हुई। अंततः 2000 में बिहार पुनर्गठन बिल के पास होने के बाद इसे अलग राज्य का दर्जा प्राप्त हुआ।[1]

झारखंड शब्द की उत्पत्ति "झार" यानी जंगल और खंड यानी स्थान से है। झारखंड वनों से आच्छादित छोटानागपुर के पठार का हिस्सा है जो गंगा के मैदानी हिस्से के दक्षिण में स्थित है। झारखंड शब्द का प्रयोग कम से कम चार सौ साल पहले सोलहवीं शताब्दी में हुआ माना जाता है। अपने बृहत और मूल अर्थ में झारखंड क्षेत्र में पुराने बिहार के ज्यादातर दक्षिणी हिस्से और छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा के कुछ जिले शामिल है। इस क्षेत्र में नागपुरी और कुड़माली बोली जाती है। इसके आलावा कुछ क्षेत्र में मुंडारी, हो, संताली, भूमिज, खड़िया तथा खोरठा भाषा बोली जाती है।
1845 में पहली बार यहाँ ईसाई मिशनरियों के आगमन से इस क्षेत्र में एक बड़ा सांस्कृतिक परिवर्तन और उथल-पुथल शुरू हुआ। मिशनरियाँ आदिवासी समुदाय के एक बड़ा और महत्वपूर्ण भाग को ईसाई बनाने में सफल रहे। उन्होंने क्षेत्र में ईसाई स्कूल और अस्पताल खोले। लेकिन ईसाई धर्म में बृहत धर्मांतरण के बावज़ूद आदिवासियों ने अपनी पारंपरिक धार्मिक आस्थाएँ भी कायम रखी और ये द्वंद्व कायम रहा।
झारखंड के खनिज पदार्थों से संपन्न प्रदेश होने का खामियाजा भी इस क्षेत्र के आदिवासियों को चुकाते रहना पड़ा है। यह क्षेत्र भारत का सबसे बड़ा खनिज क्षेत्र है जहाँ कोयला, लोहा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। इसके अलावा बाक्साईट, ताँबा चूना-पत्थर इत्यादि जैसे खनिज भी बड़ी मात्रा में हैं। यहाँ कोयले की खुदाई पहली बार 1856 में शुरू हुआ और टाटा आयरन ऐंड स्टील कंपनी की स्थापना 1907 में जमशेदपुर में की गई। इसके बावजूद कभी केन्द्र और राज्य सरकार द्वारा इस क्षेत्र की प्रगति पर ध्यान नहीं दिया गया।
आधुनिक काल[संपादित करें]
अलग झारखण्ड राज्य आंदोलन की शुरुआत 20वीं सदी के शुरुआत में हुई, जिसकी पहल ईसाई आदिवासियों द्वारा शुरू की गई। लेकिन बाद में इसे सभी वर्गों जिसमें गैर आदिवासी भी शामिल थे; का समर्थन हासिल हुआ।
अलग राज्य की मांग 1912 में शुरू हुई, जब पहली बार इसका प्रस्ताव सेंट कोलंबिया कॉलेज, हज़ारीबाग के एक छात्र ने रखा था। 1928 में, ईसाई आदिवासियों की एक राजनीतिक शाखा ‘उन्नति समाज’ ने पूर्वी भारत में एक आदिवासी राज्य के गठन के लिए साइमन कमीशन को एक ज्ञापन सौंपा। जयपाल सिंह मुंडा और राम नारायण सिंह जैसे बड़े नेता ने अलग राज्य की मांग की। 1939 में, ‘उन्नति समाज’ का नाम बदलकर ‘आदिवासी महासभा’ कर दिया गया, जयपाल सिंह मुंडा इसके अध्यक्ष बने। आदिवासी महासभा ने बिहार, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और ओडिशा के कुल 28 जिलों को मिलाकर अलग झारखण्ड राज्य की सीमा तैयार की। बाद में ‘आदिवासी महासभा’ का नाम बदलकर ‘झारखण्ड पार्टी’ कर दिया गया।[2]
आजादी के बाद[संपादित करें]
1947 में भारत की आज़ादी के बाद व्यवस्थित रूप से औद्योगिक विकास पर काफी बल दिया गया जो भारी उद्योगों पर केन्द्रित थी और जिसके लिये खनिजों की खुदाई एक जरूरी हिस्सा थी। समाजवादी सरकारी नीति के तहत भारत सरकार द्वारा स्थानीय लोगों की जमीनें बगैर उचित मुआवज़े के अन्य हाथों में जाने लगीं। दूसरी तरफ़ सरकार का यह भी मानना था कि चूँकि वहाँ की जमीन बहुत उपजाऊ नहीं है इसलिये वहाँ औद्योगीकरण न सिर्फ़ राष्ट्रीय हित के लिये आवश्यक है बल्कि स्थानीय विकास के लिये भी जरूरी है। लेकिन औद्योगीकरण का नतीजा हुआ कि वहाँ बाहरी लोगों का दखल और भी बढ़ गया और बड़ी सँख्या में लोग कारखानों में काम के लिये वहाँ आने लगे। इससे वहाँ स्थानीय लोगों में असंतोष की भावना उभरने लगी और उन्हें लगा कि उनके साथ नौकरियों में भेद-भाव किया जा रहा है। 1971 में बनी राष्ट्रीय खनन नीति इसी का परिणाम थी।
सरकारी भवनों, बाँधों, इत्यादी के लिये भी भूमि का अधिग्रहण होने लगा। लेकिन कुछ पर्यवेक्षकों का मानना है कि इन बाँधों से उत्पादन होने वाली विद्युत का बहुत कम हिस्सा इस क्षेत्र को मिलता था। इसके अलावा सरकार द्वारा वनरोपण के क्रम में वहाँ की स्थानीय रूप से उगने वाले पेड़ पौधों के बदले व्यवसायिक रूप से लाभदायक पेड़ों का रोपण होने लगा। पारंपरिक झूम खेती और चारागाह क्षेत्र सिमटने लगे और उनपर प्रतिबंधों और नियमों की गाज गिरने लगी। आज़ादी के बाद के दशकों में ऐसी अनेक समस्याएँ बढ़ती गयीं।

राजनैतिक स्तर पर 1938 में जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्व में झारखंड पार्टी का गठन हुआ जो पहले आमचुनाव में सभी आदिवासी जिलों में पूरी तरह से दबंग पार्टी रही। जब राज्य पुनर्गठन आयोग बना तो झारखंड की भी माँग हुई जिसमें तत्कालीन बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश के 21 जिले शामिल थे, आदिवासियों के लिए अलग राज्य के आंदोलन में संताल, मुंडा, उरांव, भूमिज, खड़िया जैसे बड़े जनजातियों के साथ-साथ छोटे जनजातियों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया।[3] इस आंदोलन में गैर-सरकारी आदिवासी कुड़मी महतो का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। आयोग ने उस क्षेत्र में कोई एक आम भाषा न होने के कारण झारखंड के दावे को खारिज कर दिया। 31 जनवरी 1947 को सरायकेला और खरसावां को उड़ीसा में शामिल करने के विरोध में खरसावां हाट मैदान में हजारों की संख्या में आदिवासी इकट्ठा हुए, जिन्हें उड़ीसा पुलिस ने गोलियों से भून दिया। जिसे 'आजाद भारत का जालियांवाला नरसंहार' भी कहा गया।[4] 1950 के दशकों में झारखंड पार्टी बिहार में सबसे बड़ी विपक्षी दल की भूमिका में रहा लेकिन धीरे-धीरे इसकी शक्ति में क्षय होना शुरू हुआ। अप्रैल 1954 में बिहार विधानसभा में छोटानागपुर और संथाल परगना के विधायकों ने राज्य पुनर्गठन आयोग को एक स्मार पत्र देकर अलग राज्य की मांग की, जिसमें सिधू हेंब्रम (कोल्हान), सुशील कुमार बागे (कोलेबिरा), हरमन लकड़ा (बेड़ो), शुभनाथ देवगम (मनोहरपुर), सुखदेव मांझी (चक्रधरपुर), लुकस मुंडा (खूंटी), जीतू किस्कू (महेशपुर), जुनस सुरीन (बसिया), विलियम हेंब्रम (शिकारीपाड़ा), कैलाश प्रसाद (जुगसलाई-पोटका एक), जेठा किस्कू (राजमहल-दामिन), सुपई मूर्मू (रामगढ़), शत्रुघन बेसरा (जामताड़ा), रामचरण किस्कू (पाकुड़-दामिन), हरिपद सिंह (जुगसलाई-पोटका दो), बाबूलाल टुडू (गोड्डा-दामिन), देवी सोरेन (दुमका), जगन्नाथ महतो कुरमी (सोनाहातू), पाल दयाल (रांची), मदन बेसरा (मसलिया), घानी राम संताल (घाटशिला-बहरागोड़ा दो), उजिंद्र लाल हो (खरसावां), देवचरण मांझी (चैनपुर), बलिया भगत (सिसई), मुकुंद राम तांती (घाटशिला-बहरागोड़ा एक), सुकरू उरांव (गुमला), अंकुरा हो (जायदा), अल्फ्रेड उरांव (सिमडेगा), चुका हेंब्रम (पोड़ैयाहाट-जरमुंडी) भैयाराम मुंडा (तमाड़), सुरेन्द्र नाथ बिरुआ (मंझारी), इग्नेस कुजुर (लोहरदगा), गोकुल महारा और जयपाल सिंह द्वारा हस्ताक्षर किया गया था।[5] आंदोलन को सबसे बड़ा अघात तब पहुँचा जब 1963 में जयपाल सिंह ने झारखंड पार्टी ने बिना अन्य सदस्यों से विचार विमर्श किये कांग्रेस में विलय कर दिया। इसकी प्रतिक्रिया स्वरुप छोटानागपुर क्षेत्र में कई छोटे छोटे झारखंड नामधारी दलों का उदय हुआ जो आमतौर पर विभिन्न समुदायों का प्रतिनिधित्व करती थी और विभिन्न मात्राओं में चुनावी सफलताएँ भी हासिल करती थीं।
झारखंड आंदोलन में ईसाई-आदिवासी और गैर-ईसाई आदिवासी समूहों में भी परस्पर प्रतिद्वंदिता की भावना रही है। इसका कुछ कारण शिक्षा का स्तर रहा है तो कुछ राजनैतिक। 1940-1960 के दशकों में गैर ईसाई आदिवासियों ने अपनी अलग सँस्थाओं का निर्माण किया और सरकार को प्रतिवेदन देकर ईसाई आदिवासी समुदायों के अनुसूचित जनजाति के दर्जे को समाप्त करने की माँग की, जिसके समर्थन और विरोध में काफी राजनैतिक गोलबंदी हुई। 1967 में अखिल भारतीय झारखंड पार्टी का गठन किया गया, जिसमें बागुन सुंब्रुई अध्यक्ष और एनईर होरो महासचिव बने। इसके बाद, हुल झारखंड और बिरसा सेवा दल का भी गठन हुआ। इसी वर्ष, बिनोद बिहारी महतो द्वारा शिवाजी समाज नामक संगठन की स्थापना की गई। 1969 में शिबू सोरेन द्वारा सोनत सांथाल समाज संगठन की स्थापना की।[6]
बिनोद बिहारी महतो 25 साल तक कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। उन्का अविश्वास अखिल भारतीय दलों से टूट चुका था। उन्होंने सोचा था कि कांग्रेस और जनसंघ सामंतवाद, पूंजीवादी के लिए थे, दलित और पिछड़ी जाति के लिए नहीं थे। इसलिए इन दलों के सदस्य के रूप में दलित और पिछड़ी जाति के लिए लड़ना मुश्किल है। फिर उन्होंने शिबू सोरेन के साथ मिलकर 1972 में झारखंड मुक्ति मोर्चा बनाया। झारखंड मुक्ति मोर्चा के बैनर तले झारखंड अलग राज्य के लिए कई आंदोलन हुए।[7] 1978 में कोल्हान में जंगल आंदोलन हुआ, जिसमें देवेंद्र मांझी, शैलेन्द्र महतो, मछुआ गगराई, सूला पूर्ति, लाल सिंह मुंडा, भुवनेश्वर महतो और बहादुर उरांव शामिल थे। 1986 में निर्मल महतो ने ऑल झारखण्ड स्टूडेंट्स यूनियन कि स्थापना की और झारखंड अलग राज्य के लिए कई आंदोलन किया।
1990 में आजसू पार्टी द्वारा झारखंड एकता पदयात्रा निकाली गई, जिसने 15 दिनों में 600 किलोमीटर पदयात्रा किया। अगस्त 1995 में बिहार सरकार ने 180 सदस्यों वाले झारखंड स्वायत्तशासी परिषद की स्थापना की।
इतिहास क्रम[संपादित करें]
- 1928 - ईसाई आदिवासियों की राजनीतिक शाखा "उन्नति समाज" द्वारा आदिवासी राज्य का गठन करने के लिए साइमन कमीशन को ज्ञापन सौंपा
- 1939 - "आदिवासी महासभा" का गठन
- 1948 - खरसावां गोलीकांड
- 1949 - जयपाल सिंह मुंडा द्वारा झारखंड पार्टी का गठन
- 1951 - झारखंड पार्टी का विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल बनना
- 1954 - झारखंड पार्टी तथा छोटानागपुर और संथाल परगना के विधायकों द्वारा झारखंड राज्य के लिए राज्य पुनर्गठन आयोग को एक ज्ञापन सौंपा
- 1963 - झारखंड पार्टी का कांग्रेस में विलय
- 1967 - अखिल भारतीय झारखंड पार्टी का गठन; बागुन सुंब्रुई अध्यक्ष और एनईर होरो महासचिव बने
- 1967 - हुल झारखंड का गठन
- 1967 - बिरसा सेवा दल का गठन; ललित कुजुर अध्यक्ष
- 1967 - बिनोद बिहारी महतो द्वारा "शिवाजी समाज" की स्थापना
- 1969 - शिबू सोरेन द्वारा "सोनत सांथाल समाज" की स्थापना
- 1972 - बिनोद बिहारी महतो, शिबू सोरेन और ए.के. रॉय द्वारा झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन
- 1980 - गुआ गोलीकांड
- 1986 - निर्मल महतो द्वारा ऑल झारखण्ड स्टूडेंट्स यूनियन का गठन
- 1988 - डॉ.बीपी केशरी द्वारा झारखंड राज्य बनाने के लिए ज्ञापन
- 1988 - भारतीय जनता पार्टी का "वनांचल" राज्य की मांग
- 1989 - झारखंड राज्य मामले पर समिति का गठन
- 1991 - राम दयाल मुंडा द्वारा "झारखंड पीपुल्स पार्टी" का गठन
- 1994 - झारखंड क्षेत्र स्वायत्त परिषद विधेयक बिहार विधानसभा में पारित
- 1998 - न्यायमूर्ति लाल पिंगले नाथ शाहदेव का आंदोलन
- 1998 - 'ऑल पार्टी सेपरेट स्टेट फॉर्मेशन कमेटी' का गठन; झारखंड एक्ट पर वोटिंग
- 2000 - झारखंड अलग राज्य का गठन
सन्दर्भ[संपादित करें]
- ↑ "The Bihar Reorganisation Act, 2000". indiankanoon.org. मूल से 24 जुलाई 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 7 अप्रैल 2020.
- ↑ Kumāra, Braja Bihārī (1998). Small States Syndrome in India (अंग्रेज़ी में). Concept Publishing Company. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7022-691-8.
- ↑ Ishtiaq, M. (1999). Language Shifts Among the Scheduled Tribes in India: A Geographical Study (अंग्रेज़ी में). Motilal Banarsidass Publ. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-208-1617-6.
- ↑ "खरसावां गोलीकांड में सैकड़ों बेगुनाह लोगों की चली गयी थी जान, जानें क्या है इसके पीछे का इतिहास". Prabhat Khabar. अभिगमन तिथि 2023-01-02.
- ↑ SINHA, ANUJ KUMAR (2014-08-14). JHARKHAND ANDOLAN KA DASTAVEJ: SHOSHAN, SANGHARSH (अंग्रेज़ी में). Prabhat Prakashan. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-5186-024-2.
- ↑ SINHA, ANUJ KUMAR (2014-08-14). JHARKHAND ANDOLAN KA DASTAVEJ: SHOSHAN, SANGHARSH (अंग्रेज़ी में). Prabhat Prakashan. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-5186-024-2.
- ↑ Jharkhand Andolan Ke Masiha : Binod Bihari Mehato. books.google.co.in.