आगम (जैन)

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जिनवाणी (श्रुत ज्ञान)

आगम शब्द का प्रयोग जैन धर्म के मूल ग्रंथों के लिए किया जाता है। केवल ज्ञान, मनःपर्यय ज्ञानी, अवधि ज्ञानी, चतुर्दशपूर्व के धारक तथा दशपूर्व के धारक मुनियों को आगम कहा जाता है। कहीं कहीं नवपूर्व के धारक को भी आगम माना गया है। उपचार से इनके वचनों को भी आगम कहा गया है। जब तक आगम बिहारी मुनि विद्यमान थे, तब तक इनका इतना महत्त्व नहीं था, क्योंकि तब तक मुनियों के आचार व्यवहार का निर्देशन आगम मुनियों द्वारा मिलता था। जब आगम मुनि नहीं रहे, तब उनके द्वारा रचित आगम ही साधना के आधार माने गए और उनमें निर्दिष्ट निर्देशन के अनुसार ही मुनि अपनी साधना करते हैं।

आगम शब्द का उपयोग जैन दर्शन में साहित्य के लिए किया जाता है। श्रुत, सूत्र, सुतं, ग्रन्थ, सिद्धांत, देशना, प्रज्ञापना, उपदेश, आप्त वचन, जिन वचन, ऐतिह्य, आम्नाय आदि सभी आगम के पर्यायवाची शब्द है। आगम शब्द "आ" उपसर्ग और गम धातु से निष्पन्न हुआ है। 'आ' उपसर्ग का अर्थ समन्तात अर्थात् पूर्ण और गम धातु का अर्थ गति प्राप्त है अर्थात् जिससे वस्तु तत्त्व (पदार्थ के रहस्य) का पूर्ण ज्ञान हो वह आगम है अथवा ये भी कहा जा सकता है कि आप्त पुरुष (अरिहंत, तीर्थंकर या केवली) जिनेश्वर रूप में जो ज्ञान का उपदेश देते हैं उन शब्दों को गणधर (उनके प्रमुख शिष्य) जिनकी लिपि बद्ध रूप में रचना करते हैं उन सूत्रों को आगम कहते हैं।

षट्खण्डागम[संपादित करें]

षट्‌खण्डागम (छक्खंडागम), जैनागम का एक महान ग्रन्थ है। इसमें कर्म सिद्धान्त को विभिन्न दृष्टियों से समझाया गया है। आचार्य धरसेन के शिष्य और श्रुतपरम्परा के प्रवर्तक आचार्य पुष्पदन्त और आचार्य भूतबलि द्वारा ईसा की पहली शताब्दी में षट्खण्डागम नामक महान् आगम ग्रन्थ की रचना शौरसेनी प्राकृत भाषा में की गयी। इस आगम ग्रन्थ में छह खण्ड हैं जिनमें से प्रथम पाँच खण्ड अर्थात् जीवस्थान, क्षुद्रकबंध, बंधस्वामित्व, वेदनाखण्ड और वर्गणा खण्ड, इनमें ६००० श्लोकप्रमाण सूत्र हैं। छठवें खण्ड को महाबन्ध कहा जाता है, वह ३०,००० श्लोक प्रमाण सूत्र के माध्यम से रचा गया था।

वर्गीकरण[संपादित करें]

आगम साहित्य भी दो भागों में विभक्त है: अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य

अंग[संपादित करें]

अंगों की संख्या 12 है। उन्हें गणिपिटक या द्वादशांगी भी कहा जाता है:

इनमें दृष्टिवाद का पूर्णत: विच्छेद हो चुका है। शेष ग्यारह अंगों का भी बहुत सा अंग विच्छिन्न हो चुका है।

अंगबाह्य[संपादित करें]

इसके अतिरिक्त जितने आगम हैं वे सब अंगबाह्य हैं; क्योंकि अंगप्रविष्ट केवल गणधरकृत आगम ही माने जाते हैं। गणधरों के अतिरिक्त श्रुतकेवली, पूर्वधर आदि ज्ञानी पुरुषों द्वारा रचित आगम अंगबाह्य माना जाता है।

आगमों की मान्यता के विषय में भिन्न-भिन्न परंपराएँ हैं। दिगंबर आम्नाय में मानते हैं कि आगम का बहुभाग लुप्त हो चुका है। श्वेतांबर आम्नाय में एक परंपरा 84 आगम मानती है, एक परंपरा उपर्युक्त 45 आगमों को आगम के रूप में स्वीकार करती है तथा एक परंपरा महानिशीथ ओषनिर्युक्ति, पिंडनिर्युक्ति तथा 10 प्रकीर्ण सूत्रों को छोड़कर शेष 32 को स्वीकार करती है।

इसका मूल कारण ये हैं कि श्वेताम्बर परंपरा अनुसार आचार्य देवर्धिगणि क्षमाश्रमण ने 84 आगमों को लिपिबद्ध किया था, किन्तु समय के साथ कई आगम स्वतः नष्ट हो गए, कुछ शासकों के राज में नष्ट कर दिए गए एवं कई आगम इतने प्रभावशाली थे की उनके स्मरण से देवतागण आ जाते थे, अतः ऐसी विद्या के दुरूपयोग से बचने हेतु गीतार्थ साधुओं ने उसे भंडारस्थ कर दिया।

विषय के आधार पर आगमों का वर्गीकरण[संपादित करें]

भगवान महावीर से लेकर आर्यरक्षित तक आगमों का वर्गीकरण नहीं हुआ था। प्रवाचक आर्यरक्षित ने शिष्यों की सुविधा के लिए विषय के आधार पर आगमों को चार भागों में वर्गीकृत किया।

  • 1-चरणकरणानुयोग
  • 2-द्रव्यानुयोग
  • 3-गणितानुयोग
  • 4-धर्मकथानुयोग

चरणकरणानुयोग[संपादित करें]

इसमें आचार विषयक सारा विवेचन दिया गया है। आचार प्रतिपादक आगमों की संज्ञा चरणकरणानुयोग की गई है। जैन दर्शन की मान्यता है कि नाणस्स सारो आयारो ज्ञान का सार आचार है। ज्ञान की साधना आचार की आराधना के लिए होनी चाहिए। इस पहले अनुयोग में आचारांग, दशवैकालिक आदि आगमों का समावेश होता है।

द्रव्यानुयोग[संपादित करें]

लोक के शाश्वत द्रव्यों की मीमांसा तथा दार्शनिक तथ्यों की विवेचना करनेवाले आगमों के वर्गीकरण को द्रव्यानुयोग कहा गया है।

गणितानुयोग[संपादित करें]

ज्योतिष संबंधी तथा भंग (विकल्प) आदि गणित संबंधी विवेचन इसके अंतर्गत आता है। चंद्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि आगम इसमें समाविष्ट होते हैं।

धर्मकथानुयोग[संपादित करें]

दृष्टांत उपमा कथा साहित्य और काल्पनिक तथा घटित घटनाओं के वर्णन तथा जीवन-चरित्र-प्रधान आगमों के वर्गीकरण को धर्मकथानुयोग की संज्ञा दी गई है।

इन आचार और तात्विक विचारों के प्रतिपादन के अतिरिक्त इसके साथ साथ तत्कालीन समाज, अर्थ, राज्य, शिक्षा व्यवस्था आदि ऐतिहासिक विषयों का प्रासंगिक निरूपण बहुत ही प्रामाणिक पद्धति से हुआ है।

भारतीय जीवन के आध्यात्मिक, सामाजिक तथा तात्विक पक्ष का आकलन करने के लिए जैनागमों का अध्ययन आवश्यक ही नहीं, किंतु दृष्टि देनेवाला है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]