ज़मींदारी प्रथा
जमींदारी प्रथा भारत में मुगल काल एवं ब्रिटिश काल में प्रचलित एक राजनैतिक-सामाजिक प्रथा थी जिसमें भूमि का स्वामित्व उस पर काम करने वालों का न होकर किसी और (जमींदार) का होता था जो खेती करने वालों से कर वसूलते थे। भारत के स्वतंत्र होने के बाद यह प्रथा समाप्त कर गई। राजस्थान के रियासतकालीन इतिहास में जमींदारों के लिए चाकर शब्द का प्रयोग किया जाता था, चूंकि प्रत्येक जमींदार /सामंत को चाकरी की सेवा या चाकरी कर शासक को देना होता था।
परिचय एवं इतिहास
[संपादित करें]भारत मे सबसे ज्यादा जमींदारियाँ अगर किसी की रही है तो वो क्षत्रिय राजपूत थे। भारत की प्राचीन विचारधारा के अनुसार भूमि सार्वजनिक संपत्ति थी, इसलिये यह व्यक्ति की संपत्ति नहीं हो सकती थी। भूमि भी वायु, जल एवं प्रकाश की तरह प्रकृतिदत्त उपहार मानी जाती थी। महर्षि जैमिनि के मतानुसार "राजा भूमि का समर्पण नहीं कर सकता था यह उसकी संपत्ति नहीं वरन् मानव समाज की सम्मिलित संपत्ति है। इसलिये इस पर सबका समान रूप से अधिकार है"। मनु का भी स्पष्ट कथन है कि "ऋषियों के मतानुसार भूमिस्वामित्व का प्रथम अधिकार उसे है जिसने जंगल काटकर उसे साफ किया था जोता" (मनुस्मृति, 8.237-239)। अतएव प्राचीन भारत के काफी बड़े भाग में भूमि पर ग्राम के प्रधान का निर्वाचन ग्राम समुदाय करता था तथा उसकी नियुक्ति राज्य की सहमति से होती थी। राज्य उसे भूमिकर न देने पर हटा सकता था, यद्यपि यह पद वंशानुगत था तथा इसकी प्राप्ति के लिये जनमत तथा राज्यस्वीकृति आवश्यक थी। अतएव वर्तमान समय के जमींदारों से, जो निर्वाचित नहीं होते वो भिन्न मान जाते थे।
प्राचीन भारत में भूमि का संपत्ति के रूप में क्रयविक्रय संभव नहीं था। इस तथ्य की पुष्टि पाश्चात्य विद्वान बेडेन पावेल तथा सर जार्ज कैंपबेल ने भी की है। कैंपबेल का कथन है कि भूमि जोतने का अधिकार एक अधिकार मात्र ही था और हिंदू व्यवस्था के अनुसार भूमि नहीं माना गया था। आधुनिक अनुसंधानों द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि प्राचीन भारत में सामंत, उपरिक, भोगिक, प्रतिहर तथा दंडनायक विद्यमान थे। ये लोग न्यूनाधिक सामंतप्रथा के अनुकूल थे। किंतु हमें इनके अधिकारों तथा कर्तव्यों का पता निश्चय रूप से नहीं हो सका है, सिवाय इसके कि ये लोग अपने स्वामियों को आवश्यकता पड़ने पर सैनिक भेजते थे। इन अधिकारियों को पारिश्रमिक के रूप में भूमि प्रदान की जाती थी। भूमिव्यस्था के संबंध में याज्ञवल्क्य के मतानुसार चार वर्ग, महीपति, क्षेत्रस्वामी, कृषक और शिकमी थे (याज्ञवल्क्य 2.158)। आचार्य बृहस्पति ने क्षेत्रस्वामी के स्थान में केवल स्वामी शब्द का ही प्रयोग किया है परंतु इसका स्पष्टीकरण कर दिया है कि स्वामी, राजा और खेतिहर के मध्य का वर्ग था। उपर्युक्त वर्णन केवल भूधृति के वर्गीकरण को इंगित करता है, न कि कृषक को एक आंग्ल दास के स्तर पर पहुँचा देता है।
मुख्य प्रश्न तो यह है कि भूमि पर स्वत्व अधिकार किसको - राज्य को, कृषक को अथवा किसी मध्यवर्ती वर्ग को विद्वानों के मतानुसार प्राचीन भारत में यह अधिकार (Servitus) ही था जो स्वत्व अधिकार नहीं कहा जा सकता।
मध्यकाल
[संपादित करें]यवन शासनकाल में हम इस प्राचीन भूमिव्यस्था में कोई रूपांतर नहीं पाते और न भूमि-स्वत्व-अधिकारों के मूल सिद्धांतों में परिवर्तन ही। यवन शासक भूमिकर गाँव के मुखिया द्वारा ही वसूल करते थे और कभी-कभी स्थानीय सरदारों वा राजाओं द्वारा, जो अपना स्तर गाँव के मुखिया से ऊँचा होने का दावा करते थे। इन राजाओं के दावे में राज्य और कृषक के बीच में एक मध्यवर्ती वर्ग का जन्म प्रतीत होता है। परंतु सामंतवाद पद अवरोध स्थायी रखा गया था क्योंकि राज्य सर्वदा इन राजाओं को कर्मचारी ही मानते थे। यद्यपि ये राजा वंशानुगत होने लगे थे तथापि राज्य को इनके पद को देने तथा वापस लेने का अधिकार सदैव प्राप्त था। एक राजा के उत्तराधिकारी को राजा की सनद प्राप्त करने के लिये प्रार्थनापत्र देना पड़ता था और सनद की प्राप्ति के पश्चात् ही वह राजा होता था। आईनेअकबरी में कृषक तथा राज्य के बीच में किसी मध्यवर्ती वर्ग को मान्यता नहीं दी गई है। तथाकथित राजा और जमींदार सैद्धांतिक और वास्तविक रूप में केवल कर वसूल करनेवाले कर्मचारी ही थे।
यह उल्लेखनीय है कि यवन शासकों ने भूमि-स्वामित्व-अधिकार का कभी दावा नहीं किया था। यह बात इन ऐतिहासिक तथ्यों से स्पष्ट है कि औरंगजेब ने हुंडी, पालम तथा अन्य स्थानों पर कृषकों से भूमि खरीदी थी, जैसा अकबर ने अकबराबाद और इलाहाबाद में किले बनाने के लिए किया था। ऐसा ही शाहजहाँ ने भी किया उक्त प्रमाणों से सिद्ध होता है कि यवन शासक केवल कर वसूल करने में ही संपत्ति अधिकार मानते थे, न कि भूमि में। उनके शासनकाल में कृषक के अधिकारों को उच्चतम मान्यता दी गई थी। कृषक अपना कर राजा तथा गाँव के मुखिया द्वारा ही देता था और राजा तथा मुखिया को राज्य द्वारा इस कार्य का पारिश्रमिक मिलता था।
ब्रिटिश काल
[संपादित करें]सन् 1707 ई0 में औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् कृषकों के अधिकारों का लोप धीरे-धीरे आरंभ हुआ जब कि केंद्रीय सत्ता शिथिल पड़ने लगी। इस आराजकता के समय में अर्धसामंतवादी स्वार्थो की मनोभावना का प्रादुर्भाव हुआ। जब राज्य की सत्ता शिथिल पड़ने लगी, राज्य के कर्मचारी प्रजा के जानमाल की रक्षा करने में असमर्थ होने लगे। फलस्वरूप ग्रामनिवासी रक्षा के लिये शक्तिशाली कर्मचारी एवं राजा या मुखिया लोगों का सहारा लेने लगे। इन लोगों ने स्वभावत: शरणार्थी कृषकों के भूम्यधिकारों पर आक्रमण किया। इन परिस्थितियों में जमींदारी प्रथा के अंकुर पाए जाते हैं। परंतु इस संकटकाल में भी
भारत में अंग्रेजों के आगमनकाल से ही जमींदारी प्रथा का उदय होने लगा। अंग्रेज शासकों का विश्वास था कि वे भूमि के स्वामी हैं और कृषक उनकी प्रजा हैं इसलिये उन्होंने स्थायी तथा अस्थायी बंदोबस्त बड़े कृषकों तथा राजाओं और जमींदारों से किए। यद्यपि राजनीतिक औचित्य से प्रभावित होकर उसने एक एक परगना हर कर वसूल करनेवाले इजारेदार को पाँच वर्ष के लिये पट्टे पर दे दिया। इस प्रकार जमींदारी प्रथा को अंग्रजों ने मान्यता प्रदान की यद्यपि आरंभ में उनका विचार कृषकों को उनके अधिकारों से वंचित करने का नहीं था सन् 1786 ई0 में लार्ड कार्न वालिस, वारेन हेस्टिगज के बाद, गर्वनर जनरल हुआ। लार्ड कार्नवालिस भी जमींदारी प्रथा के पक्ष में था। उसने सन् 1790 ई0 बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में दस वर्षीय बंदोबस्त की आज्ञा दी। दो वर्ष पश्चात् बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर्स ने इस दस वर्षीय योजना को स्थायी बंदोबस्त (permanent settlement) बना देने की अनुमति दे दी।
मद्रास में जमींदारी प्रथा का उदय अंग्रेज शासकों की नीलाम नीति द्वारा हुआ। गाँवों की भूमि का विभाजन कर उन्हें नीलाम कर दिया जाता था और अधिकतम मूल्य देनेवाले को विक्रय कर दिया जाता था। प्रारंभ में अवध में बंदोबस्त कृषक से ही किया गया था परंतु तदनंतर राजनीतिक कारणों से यह बंदोबस्त जमींदारों से किया गया। महान इतिहासकार सर विंसेंट ए0 स्मिथ, अलीगढ़ की बंदोबस्त रिपोर्ट में, यह बात स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है कि प्रचलित भूम्यधिकारों की उपेक्षा करते हुए केवल उपयोगिता को लक्ष्य में रखकर बंदोबस्त इजारदारों (revenue farmers) से किए गए। अन्यायपूर्ण करराशि इकट्ठा करने का यह सबसे सरल उपाय है तथा यह राजनीति के दृष्टिकोण से भी उपयोगी है क्योंकि इसके फलस्वरूप सरकार का एक शक्तिशाली तथा धनी वर्ग की सहायता मिलती रहेगी।
इस प्रकार भारतवर्ष के इतिहास में सर्वप्रथम इन बंदोबस्तों द्वारा राज्य और कृषकों के बीच में जमींदारों का वर्ग अंग्रेजों की नीति द्वारा स्थापित हुआ जिसके फल स्वरूप कृषकों के भू-संपत्ति अधिकार, जो अनादि काल से चले आ रहे थे, छिन गए। यह मध्यवर्ती वर्ग दिन प्रति दिन धनी होता गया क्योंकि अंग्रेज शासक अपनी करराशि में से अधिक से अधिक हिस्सा उन्हें प्रलोभन के रूप में देते रहे।
जमींदारी प्रथा के अस्त होने की दिशा में कदम
[संपादित करें]इन बंदोबस्तों में कृषकों के हितों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया था जिसके परिणामस्वरूप उनका दु:ख, अपमान एवं दारिद्रय् दिन प्रतिदिन बढ़ता गया। कई बार अंग्रेज शासकों ने भी इस ओर ध्यान दिलाया कि कृषकों की भूधृति की रक्षा की जाय एवं उनका लगान बंदोबस्त के समय तक निर्धारित कर दिया जाय। फिर भी कुछ नहीं किया गया। इसका कारण यह था कि अंग्रेज शासकों की धारणा थी कि जमींदारों के साथ व्यवहार में उदारता दिखाने पर जब वे संपन्न एवं संतुष्ट रहेंगे तो वे अपने आसामियों को नहीं सताएँगे जिसके फलस्वरूप वे भी खुशहाल रहेंगे। परंतु यह उनकी महान भूल थी क्योंकि जमींदारों ने हमेशा ही अपने कर्तव्य के साथ विश्वासघात किया। अत: अंग्रेज शासक यह महसूस करने लगे कि इस भूल का सुधार किया जाए। फलस्वरूप उन्होंने कृषकों की दशा सुधारने के लिए भूमि संबंधी विधानों की व्यवस्था की। यह कदम जमींदारी प्रथा के अस्त की दिशा में प्रथम चरण कहा जा सकता है।
इस प्रथम चरण में, जो सन् 1859 ई0 से 1929 ई0 तक रहा, जो कानून बने उनसे जमींदारों के लगान बढ़ाने के अधिकारों पर कुछ प्रतिबंध लगाए गए और उच्च श्रेणी के कृषकों को लाभ भी हुए। किंतु इन कानूनों का मुख्य उद्देश्य जमींदारों को लगान वसूल करने में सहूलियत देने का था जिससे वे राज्य को राजस्व ठीक समय पर दे सकें। सन् 1859 ई0 में भूमि संबंधी पहला अधिनियम पास हुआ। यह अधिनियम समस्त ब्रिटिश भारत के लिये एक आदर्श भूमि-अधिनियम था जिसके अनुरूप अधिनियम भारत के सभी भागों में पास हुए और समय समय पर उनमें संशोधन भी किए गए ताकि असंतुष्ट कृषकों को शांत किया जा सके। किंतु जमींदार फिर भी कृषकों को अपने न्यायपूर्ण तथा अन्यायपूर्ण करों को वसूलने के लिये निचोड़ते रहे जिससे किसानों में घोर असंतोष तथा बेचैनी फैलेने लगी।
जमींदारी प्रथा के अस्त के क्रम में दूसरा चरण सन् 1930 ई0 से 1944 ई0 तक रहा। इस समय में सारे देश में किसान आंदोलन होने लगे। इन आंदोलनों का बीज एक किसान सभा ने बोया था जो अखिल भारतीय कांग्रेस की इलाहाबाद बैठक में तारीख 11 फ़रवरी सन् 1918 ई0 को हुई थी। तत्पश्चात् कांग्रेस किसानों के हितों को आगे बढ़ाने लगी। परिणाम स्वरूप ग्रामीण जनता में काफी जाग्रति पैदा हो गई। पं0 जवाहरलाल नेह डिग्री ने यू0 पी0 कांग्रेस कमेटी में तारीख 27 अक्टूबर 1928 को घोषणा की कि राजनीतिक स्वतंत्रता निरर्थक है जब तक किसानों को शोषण से मुक्ति न प्राप्त हो। शनै: शनै: किसानों की जागरूकता बढ़ी और साथ ही साथ उनकी व्याकुलता भी। किसान वर्ग अब अधिक मुखर हो गया और भूधृति की स्थिरता एवं लगान में कमी की मांग करने लगा। किसान आंदोलनों से प्रभावित होकर रैय्यतवाड़ीक्षेत्रों में नए अधिनियम बनाए गए जिनसे कृषकों के हितों की रक्षा हो सके। मलाबार टेनेंसी ऐक्ट (1930 ई) इस संबंध में सीमाचिन्ह है। इसके बाद भोपाल लैंड रेवेन्यू ऐक्ट, 1935 तथा आसाम टेनेंसी ऐक्ट 1935 पास हुए। गवर्नमेंट ऑव इंडिया ऐक्ट, 1935, के अर्न्तगत जब ‘प्राविंशल आटोनोमी’ का उद्घाटन हुआ तो प्रांतीय सरकारों ने भूमिसुधार अधिनियमों की व्यवस्था की जिनमें कृषकों को और अधिकार प्रदान किए गए तथा जमींदारों के अधिकारों की कटौती की गई। यू0 पी0 टेनेंसी ऐक्ट, 1939, तथा बंबई टेनेंसी ऐक्ट, 1939 विशिष्ट उदाहरण ऐसे व्यापक अधिनियमों के हैं जिनके द्वारा कृषकों को मौरूसी अधिकार दिए गए एवं कृषकों के हित में जमींदारों के कतिपय अधिकार छीन लिए गए।
इन भूमि सुधार अधिनियमों के बनने पर भी जमींदारी प्रथा की बुराइयाँ विद्यमान रहीं, यद्यपि काफी हद तक जमींदारों को पंगु बना दिया गया था। इन जमींदारों को नेह डिग्री जी ‘ब्रिटिश सरकार की अतिलालित संतान (Spoilt child)’ कहा करते थे। वे भूतकालीन सामंतवादी प्रथा के प्रतीक थे जो कि आधुनिक परिस्थतियों के बिल्कुल प्रतिकूल हो गई थी। इसलिए इंडियन नेशनल कांग्रेस ने कई बार इस बात की घोषणा की कि जमींदारी उन्मूलन को कांग्रेस के कार्यक्रम में प्रमुख स्थान देना चाहिए। एक किसान कांफ्रेंस तारीख 27,28 अप्रैल सन् 1935 ई0 को सरदार पटेल के सभापतित्व में इलाहाबाद में हुई थी। उसने जमींदारी उन्मूलन को प्रस्ताव पास करके इस ओर एक प्रमुख कदम उठाया इस प्रस्ताव में यह घोषणा की गई थी कि ‘ग्रामकल्याण के दृष्टिकोण से वर्तमान जमींदारी प्रथा बिल्कुल विपरीत है। यह प्रथा ब्रिटिश शासन के आगमन में लाई गई और इससे ग्रामीण जीवन पूर्णतया तहस नहस हो गया है’। परंतु सन् 1939 ई0 में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो जाने के कारण भूमि सुधार का सारा कार्यक्रम रूक गया।
युद्ध की समाप्ति के बाद जमींदारी प्रथा के अंत का अंतिम चरण आरंभ हुआ जो सन् 1945 से 1955 तक चला। युद्ध समाप्त होते ही ब्रिटिश सरकार ने 1945 ई0 में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट 1935 ई0 के अंतर्गत प्रांतीय सदनों के चुनाव करने का फैसला किया। कांग्रेस ने चुनाव में भाग लेने का निश्चय किया और दिसंबर 1945 में चुनाव घोषणापत्र निकाला। इस घोषणापत्र में जमींदारी उन्मूलन के विषय में स्पष्टतया कहा गया कि ‘भूमि व्यवस्था का सुधार, जिसकी भारत में अति आवश्यकता है, कृषकों तथा राज्यके बीच मध्यवर्ती वर्ग को हटाने से संबंधित है। इसलिए इस मध्यवर्ती वर्ग के अधिकारों का उचित प्रतिकर देकर प्राप्त कर लिया जाना चाहिए’। इस घोषणा पत्र से अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ तथा पत्रकार सभी सहमत थे। जमींदारी प्रथा भारतीय आर्थिक विकास में रूकावट डालती थी क्योंकि बड़े जमींदार हमेशा प्रतिक्रियावाद के समर्थक थे। ‘लंदन इकोनोमिस्ट’ ने इनके विषय में लिखा था कि ‘इनमें से अधिकतर ‘थैकरसे’ के पात्र ‘लार्ड स्टीन’ की तरह दुश्चरित्र, ‘जेन आस्टीन’ के ‘मिस्टर बेनेट’ की तरह आलसी, ‘सुर्तीजस्क्वायर’ की तरह शराबी थे (Indian land porblem, G.D. Patel)। बंगाल लैंड कमीशन (सन् 1940 ई0) भी इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि ‘सन् 1793 ई0 का स्थायी बंदोबस्त उस समय जिन भी कारणों से उचित समझा गया हो, आज की परिस्थिति में अनुपयुक्त है और जमींदारी प्रथा में इतनी बुराइयाँ उपज चुकी है कि यह अब राष्ट्र के हित में किसी भी प्रकार उपयोगी नहीं रह गई है।’ भारतीय तथा पाश्चात्य अर्थवेत्ताओं की राय में जमींदारी उन्मूलन अधिक कृषि उत्पादन के लिए अत्यावश्यक है। इसके अतिरिक्त यह प्रथा संसार के हर भाग में समयानुकूल न होने के कारण समाप्त हो चुकी है। पुनश्च, यह प्रथा राज्य के लिये अधिक खर्चीली है। सर्वोपरि, यह प्रथा इस समय ऐसी स्थिति पर पहुँच चुकी थी कि यदि इसका उन्मूलन न किया गया होता तो इसके कारण ने केवल राष्ट्रीय आर्थिक समस्या पर ही वरन् समाज सुरक्षा पर भी विपत्ति आ पड़ती।
समाप्ति
[संपादित करें]अत: सन् 1946 ई0 में चुनाव में सफलता के फलस्वरूप जब हर प्रांत में कांग्रेस मंत्रिमंडल बने तो चुनाव प्रतिज्ञा के अनुसार जमींदारी प्रथा को समाप्त करने के लिये विधेयक प्रस्तुत किए गए। ये विधेयक सन् 1950 ई0 से 1955 ई0 तक अधिनियम बनकर चालू हो गए जिनके परिणामस्वरूप जमींदारी प्रथा का भारत में उन्मूलन हो गया और कृषकों एवं राज्य के बीच पुन: सीधा संबंध स्थापित हो गया। भूमि के स्वत्वाधिकार अब कृषकों को वापस मिल गए जिनका उपयोग वे अनादि परंपरागत काल से करते चले आए थे।
इस प्रकार जिस जमींदारी प्रथा का उदय हमारे देश में अंग्रेजों के आगमन से हुआ था उसका अंत भी उनके शासन के समाप्त होते ही हो गया। इस प्रथा की समाप्ति पर किसी ने तनिक भी शोक प्रकट नहीं किया, क्योंकि इसका विनाश होते ही पुराने सिद्धांत की, जिसके अनुसार भूमि का स्वामी कृषक होता था, पुनरावृति हुई। जो दिनांक 02/10/1951 को जमींदारी प्रथा की समाप्ति हुई थी मध्य प्रदेश में भी ग्वालियर रियासत में जमींदारी की व्यवस्था थी जो आगर सुसनेर आदि मालवा के अधिकांश हिस्से ग्वालियर रियासत के अधीन थे।
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- Sharif M. Shuja, "Feudalism: root cause of Pakistan’s malaise", National Civic Council (NCC) News Weekly (Australia) (25 मार्च 2000).
- Asian Human Rights Commission, "Pakistan human rights impeded by military, feudal leaders", Press Release AHRC-PL-108-Pakistan-2004
- Zamindar Newspaper by Maulana Zafar Ali khan
- https://web.archive.org/web/20050206060640/http://www.uq.net.au/~zzhsoszy/ips/main.html exclusively devoted to Indian princely states and domains
- https://web.archive.org/web/20100910100004/http://4dw.net/royalark/India/zamindar.htm Landholding families