जयापीड विनयादित्य

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कशिमर, जन्मस्थाल

जयापीड विनयादित्य (लगभग 770-801 ई.) कश्मीर के कार्कोट कायस्थ क्षत्रिय वंश के ललितादित्य मुक्तापीड का पौत्र और व्रजादित्य बप्पियक का पुत्र जयापीड विनयादित्य के नाम से भी प्रसिद्ध था। वह अपने पितामह ललितादित्य की भाँति ही कुशल सेनानायक था। कल्हण के अनुसार उसने अपने राज्य के प्रारंभिक वर्षों में ही पूर्व की ओर अभियान किया, पंच गौड़ों को पराजित करके पुंड्रवर्धन् के नरेश जयंत को उनका अधीश्वर बनाया और कश्मीर को लौटते हुए कान्यकुब्ज के नरेश (संभवत: इंद्रराज) को पराजित किया। उत्तरी भारत की अव्यवस्थित राजनीतिक स्थिति में ऐसी विजय असंभव नहीं थी। कुछ विद्वान् इसके समर्थन में मध्यदेश के कुछ स्थानों से प्राप्त श्री ज. प्रताप के सिक्कों का उल्लेख करते हैं जिन्हें वे जयापीड के सिक्के मानते हैं। किंतु कल्हण के विवरण में कुछ बातें अद्भुत और कथा जैसी हैं। जयापीड की अनुपस्थिति में उसके बहनोई जज ने सिंहासन पर अधिकार कर लिया था किंतु जयपीड के लौटने पर उसके साथ युद्ध में जज्ज मारा गया। कल्हण का कथन है कि कुछ समय बाद जयापीड फिर विजय के लिए निकला। उसका संघर्ष पूर्वी भारत के नरेश भीमसेन और नेपाल के शासक अरमुडि से हुआ। उसका अंतिम युद्ध स्त्रीराज्य के साथ था। ये नाम और ये युद्ध ऐतिहासिक जैसे नहीं लगते किंतु लेवी नाम के विद्वान् इनका नितांत निराधार नहीं मानते। राज्यकाल के अंत की ओर अपने उत्पीड़क करों के कारण जयापीड जनसाधारण में अप्रिय हो गया था। ब्राह्मणों के एक षड्यंत्र के फलस्वरूप शासन के 31वें वर्ष में उसका अंत हुआ।

जयापीड स्वयं कवि था। उसकी रचना के उद्धरण सुभाषित ग्रंथों में मिलते हैं। उसका शासनकाल उसका संरक्षण पानेवाले कवियों के कारण प्रसिद्ध हैं। इनके नाम हैं मनोरथ, शंखदत्त, चटक, संधिमत् और कुट्टनीमतम् के रचयिता दामोदरगुप्त। काव्यशास्त्र में अलंकार परंपरा के सर्वप्रसिद्ध समर्थक उद्भट जयापीड के सभारत्न थे। रीति को काव्य की आत्मा माननेवाले दूसरे प्रसिद्ध काव्यशास्त्री वामन भी जयापीड के ही दरबार में थे। जयापीड ने दो नए शासनविभाग बनाए - न्याय के लिए धर्माधिकरण और अभियान के कारण राजधानी से दूर रहने पर सुविधा के लिए एक गतिशील कोष अथवा चलगंज। जयापीड ने जयपुर और द्वारवती नाम के दो नगरों की स्थापना की। जयपुर में उसने बुद्ध की तीन प्रतिमाएँ, एक विशाल विहार एवं जयादेवी तथा चतुरात्मन् केशव के मंदिर बनवाए।