चेतावनी रा चूंगटिया

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चेतावनी रा चूंगटिया 
कवि ठाकुर केसरी सिंह बारहठ (1903)
प्रथम प्रकाशन भारत
देश भारत
भाषा डिंगल (राजस्थानी)
विषय
प्रकाशक शोध-पत्रिका
प्रकाशन तीथि 1953
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चेतावनी रा चूंगटिया (अथवा चेतावणी रा चुंगट्या) 1903 में, ठाकुर केसरी सिंह बारहठ द्वारा रचित एक राष्ट्रवादी डिंगल कविता है। इसमें महाराणा फतेह सिंह को संबोधित करते हुए उन्हें मेवाड़ की परंपराओं को कायम रखने और दिल्ली दरबार में शामिल नहीं होने का आह्वान किया गया है। [1] इन दोहों का महाराणा पर वांछित प्रभाव पड़ा जिन्होंने दिल्ली में उपस्थित होने के बावजूद दरबार में शामिल नहीं होने का निर्णय लिया। [2] [3] यह कविता 13 सोरठों से निर्मित है और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान निर्मित महान साहित्यिक रचनाओं में से एक है।[4] [5] [6]

पृष्ठभूमि[संपादित करें]

स्रोत: [7] [8] [9]

आमंत्रण[संपादित करें]

लॉर्ड और लेडी कर्जन का दिल्ली दरबार में आगमन, 1903

दिल्ली दरबार 1903 का आयोजन राजा एडवर्ड सप्तम और रानी एलेक्जेंड्रा के भारत के सम्राट और सम्राज्ञी के रूप में उत्तराधिकारी बनने का जश्न मनाने के लिए आयोजित किया गया था। इसी समय, ब्रिटिश भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित कर दी गई थी। लॉर्ड कर्जन ने दरबार में उपस्थित होने के लिए उदयपुर (मेवाड़) के महाराणा के अतिरिक्त लगभग सभी राजाओं, नवाबों, सामंतों और जागीरदारों की सहमति प्राप्त कर ली थी।

प्रत्युत्तर में जयपुर, जोधपुर, किशनगढ़, सिरोही, कोटा, बीकानेर आदि के महाराजाओं ने निमंत्रण की सराहना करते हुए हर्ष और आभार व्यक्त किया। हालांकि, उदयपुर ने 1818 की मेवाड़ राज्य और ब्रिटिश की संधि का हवाला देते हुए इस निमंत्रण को ठंडे बस्ते में डाल दिया।। लॉर्ड कर्जन महाराणा को दिल्ली दरबार में शामिल होने के लिए मनाने गए, जिसे अंततः उन्होंने कुछ शर्तों के साथ स्वीकार कर लिया: भारत के मूल शासकों में पहला स्थान, शाही जुलूस में शामिल होने से छूट, और उनकी प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए आसन की व्यवस्था। [10]

दिल्ली दरबार में शामिल होने के विषय में महाराणा की मुख्य चिंता उनकी अन्य सभी भारतीय शासकों पर उनकी प्रधानता के दावे का संभावित समझौता होना था। इस प्रकार, ब्रिटिश सरकार से यह आश्वासन दिया गया था कि "उनकी गरिमा पर उचित विचार किया जाएगा" और उनका स्थान भारत के सभी शासकों के बीच प्रथम पंक्ति में होगा।

मंत्रणा[संपादित करें]

मेवाड़ राज्य में सरदारों और अन्य जनों की राय महाराणा के फैसले के खिलाफ थी। मेवाड़ राज्य के बाहर के भी कई सरदारों को इस खबर से निराशा हुई। उनमें से कुछ लोग इकट्ठे हुए और ठाकुर केसरी सिंह बारहठ से इस दुर्दशा का समाधान खोजने का अनुरोध किया।

देवपुरा (शाहपुरा) के केसरी सिंह बारहठ, जो पहले फतेह सिंह के पहले मुख्य सलाहकार भी रेह चुके थे, उन्होने खरवा के राव गोपाल सिंह के साथ महाराणा के दिल्ली जाने के विषय पर मंत्रणा की। खाटू के ठाकुर हरि सिंह, जोबनेर के ठाकुर करण सिंह, राव उमराव सिंह, खंडेला के सज्जन सिंह और मलसीसर के ठाकुर भूर सिंह भी इस वार्ता में शामिल हुए। सभी इस बात पर सहमत थे कि मेवाड़ की शान को कायम रखने के लिए फतेहसिंह को राणा की परम्पराओं, गौरव और सम्मान की याद पुनरस्मरण कराना चाहिए। ये चर्चा जयपुर में मलसीसर ठाकुर की हवेली में हुई।

राव गोपाल सिंह ने सुझाव दिया कि राजपूताना के इतिहास में इस तरह के महत्वपूर्ण समय में चारणों ने हमेशा सही मार्गदर्शन दिया है। अत: यह कार्य केसरी सिंह को सौंपा गया, जिन्होंने तेरह सोरठों युक्त एक कविता की रचना की, जिसे सुनकर वहां उपस्थित सभी लोग बहुत प्रभावित हुए। वे इन सोरठों की प्रभावशीलता के बारे में निश्चित थे कि यदि महाराणा को समय पर यह पहुंचाए जाए, तो वे दरबार में भाग लेने का विचार त्याग देंगे।

इन सोरठों का उद्देश्य महाराणा को यह बताना था कि दरबार में शामिल होना उनकी गरिमा के लिए अपमानजनक है और उनकी भारत के राजपूतों और हिंदुओं के बीच प्रतिष्ठा के लिए हानिकारक होगा।

दिल्ली दरबार-1903[संपादित करें]

राव गोपाल सिंह खरवा ने इन सोरठों को, जिन्हें चेतावनी रा चुंगटिया कहा गया, उदयपुर में फतेह सिंह को पहुंचाने की जिम्मेदारी ली थी। हालांकि, जब तक वह पहुंचे, फतेह सिंह ट्रेन से रवाना हो चुके थे। इसके बावजूद, केसरी सिंह के छोटे भाई जोरावर सिंह तैयार थे और दिल्ली के रास्ते में सरेरी (भीलवाड़ा) या नसीराबाद रेलवे स्टेशन (अजमेर) पर महाराणा के हाथों में यह सोरठे सौंपे गए। [11]

राव गोपाल सिंह अपने भतीजे खेत सिंह को लिखे पत्र में लिखते हैं, "क्षात्र-शक्ति का भक्त बारहठ केशरीसिंहजी ए दोहा बणा कर महाराणा साहेब की सेवा में भेज्या। उण बगत महाराणा साहेब स्पेशल ट्रेन द्वारा उदयपुर सूं रवाना हो चुक्या हा। ये दोहा नसीराबाद की स्टेशन पर श्री दरबार के नजर हुआ, उण बगत फरमायो बतावे है कि यदि ये दूहा उदयपुर में ही मिल जाता तो म्है दिल्ली के लिए रवाना ही नहीं होता, परंतु अब तो दिल्ली पहुंच कर ही इस पर विचार करहां।"

विमर्श[संपादित करें]

ऐसा माना जाता है कि फतेह सिंह अँग्रेजी सरकार के दबाव में दिल्ली आ गए, लेकिन केसरी सिंह के लिखे सोरठों को पढ़ने का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। कवि ने महाराणा को उनके पूर्वजों की गौरवशाली परंपराओं का स्मरण कराया, जिन्होंने कभी किसी सत्ता के सामने समर्पण नहीं किया और न ही किसी को 'नज़र' अदा की, बल्कि अपने नाम और पहचान को बनाए रखने के लिए निरंतर संघर्ष किया। इस रचना ने महाराणा पर अपने वंश की यशस्वी परम्पराओं का उल्लंघन करने का आरोप लगाया। [12] इन सोरठों ने लोगों की इच्छाओं को स्पष्ट रूप से इंगित किया था।

कानोता के ठाकुर नारायण सिंह के पुत्र, प्रसिद्ध भारतीय डायरिस्ट अमर सिंह ने शाही कैडेट के रूप में दिल्ली दरबार में भाग लिया था। वे अपनी डायरी में लिखते हैं उन्होने सर प्रताप, ईडर के महाराजा और जोधपुर के रीजेंट, को आधी रात को जगाया और महाराणा के दरबार में भाग लेने से इनकार करने की सूचना दी; जिन्होंने, बदले में, वाइसराय के सचिव लॉरेंस को इस स्थिति से अवगत कराया और उन्हें चेतावनी दी कि यदि महाराणा पर अनुचित दबाव डाला गया या जवाबी कार्रवाई की गई, तो मामला और बिगड़ जाएगा। उन्होंने याद दिलाया कि उस समय सभी रियासतों की सेना दिल्ली में रुकी हुई थी और उनकी पूरी सहानुभूति महाराणा के साथ है। लॉर्ड कर्जन ने यह जानने के बाद अनिच्छा से परिणाम को स्वीकार कर लिया।

दिल्ली आने के बाद से, फतेह सिंह अपने शिविर में रुके हुए थे, फटकार लगाने वाले उन सोरठों ( चेतवनी रा चुंगत्या) ने उनके मन में हलचल पैदा की और उन्हें अपने फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित किया। कानोता के ठाकुर नारायण सिंह और अलवर के महाराजा जय सिंह ने भेष बदलकर उनके शिविर में आए और अपना समर्थन जताया। उन्होंने हर मील पर घोड़ों के साथ दिल्ली से चित्तौड़ तक की उनकी यात्रा की व्यवस्था का विवरण दिया: उनकी दिल्ली से बसवा तक की यात्रा अलवर राज्य द्वारा संभाली जाएगी, बसवा से जहाजपुर जयपुर राज्य द्वारा, और जहाजपुर से चित्तौड़ तक गोपाल सिंह खरवा द्वारा संभाली जाएगी। पीछे सर प्रताप दिल्ली में रहकर सब कुछ संभाल लेंगे।

इन शब्दों ने फतेह सिंह के संकल्प को और मजबूत किया। महाराणा ने अपने बीमार होने की घोषणा की और एक विशेष ट्रेन के माध्यम से उदयपुर लौट आए। [13] [10]

चेतावणी रा चुंगट्या[संपादित करें]

डिंगल [14] अनुवाद
पग-पग भ्रम्या पहाड़, धरा छोड़ राख्यो धरम,

महाराणा'र मेवाड़, हिरदै बसिया हिन्द रै ।

भूमि छोड़कर पहाड़ों में भटके, लेकिन धर्म नहीं त्यागा।

इसलिए महाराणा और मेवाड़, हिदुस्तान के हृदय में बसे हैं।

घणा घालिया घमसांण, राण सदा रहिया निडर,

पेखंता फ़रमाण, हलचल किम फ़तमल हुवै !

दुर्गम बाधाओं को सहते हुए और भयंकर युद्ध लड़ते हुए, मेवाड़ के महाराणा हमेशा निडर रहे।

पर ऐ फतेहसिंह, इस छोटे से फरमान से तुम्हारे मन में हलचल कैसे मच गई?

गिरद गजां घमसांण, नहचै धर माई नहीं,

मावै किम महाराण, गज दोसे रा गिरद में !

हजारों हाथियों और असंख्य सैनिकों के साथ युद्ध में जो उतरते थे कि उनके लिए पृथ्वी कम पड़ जाती थी।

तब कैसे 200 गज के दिल्ली दरबार में महाराणा समा सकेंगे?

ओरां ने आसाण, हाँका हरवळ हालणों,

किम हालै कुल राण, हरवळ साहाँ हाँकिया !

औरों के लिए यह आसान है कि उन्हें युद्ध में हाँक के ले जाया जाए।

लेकिन उन्हें कैसे हाँका जा सकता है, जिनके पूर्वजों ने बादशाही सेनाओं को हाँक के खदेड़ा था?

नरियंद सह नज़रांण, झुक करसी सरसी जिको,

पसरैलों किम पाण, पाण छतां थारो फ़ता !

अन्य राजा तो झुककर और हाथ फैलाकर नज़राना पेश कर लेंगे;

पर ऐ फतेह सिंह, तुम्हारे हाथ भी कैसे पसरेंगे, जो आज तक न किसी के आगे फैले और न झुके?

सिर झुकिया सहसांह, सींहासण जिण साम्हनै,

रळणो पंगत-राह, फ़ाबै किम तोने फ़ता !

वो सिसोदिया सिंहासन जिसके सामने बादशाहों के भी सिर झुके थे।

लेकिन आज झुकते हुए राजाओं की श्रेणी में शामिल होना, तुम्हें कैसे फबेगा फतेहसिंह ?

सकल चढ़ावै सीस, दान धरम जिण रौ दियो,

सो खिताब बखशीश, लैवण किम ललचावसी !

वे महाराणा जिनके दान-धर्म को को भी लोग शीस चढ़ाकर स्वीकार करते थे।

फिर कैसे उस महाराणा ने उपाधियों और पुरस्कारों के लोभ को अपने मन में आने दिया ?

देखेला हिंदवाण, निज सूरज दिश नेह सूं,

पण "तारा" परवाण, निरख निशाण न्हाकशी ।

सम्पूर्ण भारत की जनता अपने हिंदुआ सुरज (महाराणा) को स्नेह की दृष्टि से देखेगा,

लेकिन तुम्हारे सीने पर ब्रिटिश सरकार का "सितारा" ( स्टार ऑफ इंडिया की उपाधि) पाकर उनकी निगाहें शर्म से झुक जाएंगी।

देखे अंजस दीह, मुळकेलो मन ही मनां,

दम्भी गढ़ दल्लीह, शीश नमंता सीसवद ।

वह देखेगा और जश्न मनाएगा, और मन ही मन मुस्करा उठेगा;

दिल्ली का वह दंभी किला, जब सिसोदिया उसके सामने सिर नवाएगा।

अंत बेर आखीह, पातळ जै लांबा पहल,

राणा सर राखी, जिणारी शाखी शिर जटा ।

अंत में प्रताप ने जो निषेधाज्ञा दी; कभी झुकना नहीं, दिल्ली के सिंहासन को कर न देना, और केश नहीं काटना;

सभी महाराणाओं ने इस प्रतिज्ञा का पालन किया, जिसका प्रमाण उनके सिरों पर लंबी जटा थी।

“कठिण जमानो” कौल, बाँधे नर हीमत बिना,

बीराँ हंदो बोल, पातल साँगे पेखियो ।

कठिन समय है ये; साहस और हिम्मत बांधे बिना कोई भी अपने वचन का पालन नहीं कर सकता।

प्रताप और सांगा ऐसे वीर थे जिनकी परीक्षा हुई, जिन्होंने अपने वचनों को निभाया।

अब लग सारां आस, राणा रीत कुल राखसी,

रहो सहाय सुख-रास, एकलिंग प्रभु आप रै ।

अब सारी आस आपसे है, कि राणा अपने कुल की रीत को निभाएंगे।

भगवान एकलिंग आपकी सहायता करें और सुख-रास देवें।

मान मोद सीसोद, राजनित बळ राखणो,

गवरमिंटरी गोद, फ़ळ मीठा दीठा फ़ता !

सिसोदिया, अपनी मान-मर्यादा को कायम रख, राजनीतिक बल के साथ रहना;

हे फतेह सिंह, इन अँग्रेजी सरकारों की गोद में बैठने का फल कभी मीठा देखा?

मूल्यांकन और प्रतिक्रियाएँ[संपादित करें]

स्रोत: [7]

महाराणा के दिल्ली से वापस लौटने यह घटना बड़ी सुर्खियों के साथ समाचार पत्रों में व्यापक रूप से प्रकाशित हुई थी। इस घटना को पूरे भारत में गति पकड़ रहे राष्ट्रवादी आंदोलनों के संदर्भ में देखा गया। [15] सोरठों के अनुसार, दिल्ली-दरबार में उनकी उपस्थिति देश के उन करोड़ों हिंदुओं के लिए अपमान की बात होती जिन्होंने मेवाड़ के महाराणा को हिंदू धर्म के रक्षक के रूप में देखते थे। मेवाड़ के प्रति ऐसा वैचारिक निहितार्थ अनन्य था। [16]

प्रसिद्ध इतिहासकार रघुबीर सिंह गहलोत चेतावणी रा चुंगट्या के प्रभाव का मूल्यांकन करते हुए लिखते हैं-

'……. . राजस्थान पर अंग्रेजों का पंजा इतना सुदृढ़ता पूर्वक जम चुका था और वह निरंतर इतना अधिक जकड़ता जा रहा था कि उनके साथ अपनी जान झौंकने वाले उन्हें वहाँ न मिले किन्तु उनका यह निरन्तर बढ़ता हुआ रोष और विरोध अन्त में बारहठ केसरीसिंह की वाणी में फूट ही पड़ा। जब वे दिल्ली के लिए रवाना हुए, तब बारहठ केसरी सिंह से रहा न गया, राजपूत नरेशों में प्रमुख पूज्य हिन्दुआ सूरज को भी उन्होने चेतावणी का चुंगट्या ले ही लिया और गरजती हुई हुंकार से उसने प्रताप और राज सिंहके उस वंशज से पूछा।  इस चेतावनी ने फतेहसिंह के सुप्त गौरव को जगा दिया। दिल्ली पंहुच कर भी वह दरबार में नहीं गया; वहाँ उसकी कुर्सी खाली ही रही। तिलमिला देने वाली इस तीव्र उपेक्षा के बाद भी महाराणा फतेहसिंह को कुछ भी कहने-सुनने की लार्ड कर्जन को हिम्मत नहीं हुई, जिससे अंग्रेजों के कठोर शासन के विरुद्ध राजस्थानी नरेशों के हृदयों में अब धीरे-धीरे प्रतिक्रिया की भावना उत्पन्न होने लगी और वहाँ के साधारण जन समाज में भी एक नूतन साहस का संचार हुआ।

डॉ. कन्हैयालाल राजपुरोहित लिखते हैं-

जिस समय दिल्ली का दरबार हो रहा था, मेवाड़ के महाराणा की कुर्सी खाली पड़ी थी। महाराणा की स्पेशल ट्रेन उदयपुर की ओर बढ़ रही थी। कर्जन खून का घूंट पीकर रह गया। साम्राज्यवादी दंभ पर भारतीय स्वाभिमान की यह करारी चोट थी। केसरीसिंह के मार्मिक उद्धारों ने यह चमत्कार कर दिखाया था। चेतावणी रा चूंगट्या वस्तुतः राजस्थान की आत्मा की पुकार थी जिसे अनसुनी करना संभव नहीं था।

हैदराबाद के निजाम मीर उस्मान अली खान दिसंबर 1911 में दिल्ली दरबार में ब्रिटिश सम्राट और साम्राज्ञी को नज़र पेश करते हुए।

दिल्ली दरबार-1911[संपादित करें]

यहाँ तक कि 1911 के दिल्ली दरबार में भी, महाराणा फतेह सिंह जार्ज पंचम के दरबार और शाही जुलूस में शामिल नहीं हुए थे। वह सलीमगढ़ रेलवे स्टेशन पर सम्राट से मिले और वहीं से उदयपुर लौट आए। [17] निमेज मर्डर केस (आरा षडयंत्र) के दौरान, जिसके मुख्य आरोपी जोरावर सिंह बारहठ थे, एक आरोपी सोमदत्त की गवाही ने क्रांतिकारियों की योजना का खुलासा किया। इससे ज्ञात हुआ कि केसरी सिंह बारहठ और गोपाल सिंह खरवा ने एक बार फिर महाराणा को दरबार में जाने से रोकने के उपाय किए। [18]

आरोपी सोमदत्त उर्फ त्रिवेणीदास लहिरी ने अपने बयान में खुलासा किया- 'मेवाड़ के सरदारों की ओर से महाराणा के नाम का एक गुमनाम पत्र तैयार किया गया जिसकी शुद्ध लिपि मेरे द्वारा करवाई गई। पत्र में लिखा गया कि महाराणा सूर्यवंशी हैं, उन्होंने कभी मुगलों के आगे सिर नहीं झुकाया। महाराणा को फिरंगी के सन्मुख झुकने के बनिस्पत आत्महत्या कर लेना उचित होगा।'

केसरी-प्रताप चरित्र[संपादित करें]

प्रख्यात कवि और अलवर महाराजा के विश्वस्त विश्वासपात्र ठाकुर अक्षयसिंह रतनूं ने इस ऐतिहासिक घटना का वर्णन अपने काव्य-ग्रंथ 'केसरी-प्रताप चरित्र' में विस्तार से किया है। यह काव्य कृति चारण साहित्य शोध संस्थान (अजमेर) द्वारा 1989 में प्रकाशित की गई। [19] [20]

चेतावनी रा चुंगत्या (समाचार पत्र)[संपादित करें]

चेतावणी रा चूंगट्या नाम से कोटा से पाक्षिक रूप से हिंदी में प्रकाशित होने वाला एक समाचार पत्र भी है। [21] [22]

यह भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

अग्रिम पठन[संपादित करें]

संदर्भ[संपादित करें]

  1. "75 Years of Independence A poet family sowed seeds of revolution in Rajasthan". ETV Bharat News (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2023-01-05. Kesari Singh surprised the British colonial forces with his Chetavani Ra Chungatya, a famous historical work composed in Raag Sorath. It was a clarion call for revolution and many youths got influenced by his lyrics.
  2. Hindi Chhandolakshan. Vani Prakashan. विषयान्तर होते हुए भी इन सोरठों का ऐतिहासिक महत्व रोचक है । वर्ष १९०३ ई० में सम्राट एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण का दरबार दिल्ली में हुआ । वायसराय लार्ड कर्जन की महत्वाकांक्षा थी कि वे स्वयं सम्राट के प्रतिनिधि स्वरूप दिल्ली दरबार में सिंहासन पर बैठकर सभी देशी राजे रजवाड़ो से नजर कबूल करे और शाही जलूस में उन्हे अपने हाथी के पीछे रखें । शंका केवल उदयपुर के महाराणा फतेहसिंह की अस्वीकृति की थी, जिनके वंश ने कभी मुगल बादशाहों के सामने भी हार नहीं मानी थी । किन्तु कर्जन का कल्पनातीत विनम्रतापूर्ण निमंत्रण पाकर महाराणा ने स्वीकृति दे दी। इधर स्वतंत्रता के पुजारी एक चारण ने अपना धर्म निभाया । उसने महाराणा को कुल मर्यादा और क्षात्रधर्म का स्मरण दिलाते हुए १३ ओजस्वी सौराष्ट्री दोहे (सोरठे) रचे जो महाराणा को तब मिले जब उनकी स्पेशल ट्रेन चित्तौड़ से रवाना हो चुकी थी । चारण के दोहों का वांछित फल हुआ । महाराणा चेत गए । दिल्ली पंहुचकर वे न दरबार में शामिल हुए न जलूस में। डिंगल भाषा के ये दोहे 'चेतावणी का चूँगट्या' के नाम से प्रसिद्ध हैं । 'चाँद' पत्रिका के नवंबर १९२९ अंक में राजस्थान केसरी ठाकुर केशरी सिंह जी ने इनका उल्लेख किया है ।
  3. Datta, Amaresh (1987). Encyclopaedia of Indian Literature: A-Devo (अंग्रेज़ी में). Sahitya Akademi. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-260-1803-1. He is more known in Rajasthani literature for his Chetavani ra Chungatya (13 couplets) addressed to Maharana Fatehsimha on the occasion of the ruler's departure from Udaipur to attend the coronation Darbar of Delhi in 1903. It is said that the couplets had the desired effect on the Maharana and he made up his mind not to attend the function.
  4. Mahotsav, Amrit. "Chetawani ra Chungatia by Kesari Singh Barhath". Azadi Ka Amrit Mahotsav, Ministry of Culture, Government of India (English में). अभिगमन तिथि 2023-01-07.सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  5. George, K. M. (1992). Modern Indian Literature, an Anthology: Surveys and poems (अंग्रेज़ी में). Sahitya Akademi. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7201-324-0. It was in 1903 that a coronation darbar was held at Delhi on the occasion of the King Emperor ascending the throne of England. Maharana Fateha Singh of Udaipur was also invited to the darbar, but he refused to accept a lower seat and returned without attending. A poet named Kesari Singh Sauda had addressed some couplets to him which were handed over to him when he was heading towards Delhi in a saloon of his special train. The couplets were meant to censure him for his decision to attend.
  6. Pangadiya, b l (1964). Rajasthan Men Savtantrata Sangram. सशस्त्र क्रान्ति की इस लहर में राजस्थान में सबसे बड़ा योग ठाकुर केशरी सिंह बारहट और उनके परिवार का था। सन्‌ 1872 में शाहपुरा (भीलवाड़ा) के निकट अपनी पैतृक जागीर के गाँव देवपुरा में उत्पन्न श्री बारहठ अनेक भारतीय भाषाश्रों के ज्ञाता, डिंगल के उत्कृष्ट कवि और महान्‌ देशभक्त थे। उन्होंने राजस्थात के राजाओं एवं जागीरदारों में राष्ट्रीय भावना भरने का प्रयत्त किया और उन्हें अपने गौरवपुर्ण श्रतीत का स्मरण कराया । सन्‌ 1903 में लॉड कर्जन के दरवार में भाग लेने के लिये मेवाड़ के महाराणा फतहसिंह जब दिल्‍ली के लिये रवाना हुये तो बारहट के “चेतावनी के चूगटिया” से प्रभावित होकर वे दरवार में भाग लिये बिता ही उदयपुर लौट आये ।
  7. Gupta, Dr Mohan Lal. Revolutionary Thakur Kesari Singh Barhath: क्रांतिकारी ठाकुर केसरीसिंह बारहठ. Shubhda Prakashan.
  8. Jain (historien).), Phoolchand; Kapoor, Mast Ram (1999). Svatantratā senānī granthamālā. Concept Publishing Company. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7022-751-9.
  9. Saxena, K. S. (1971). The Political Movements and Awakening in Rajasthan, 1857 to 1947 (अंग्रेज़ी में). S. Chand.
  10. Paliwal, D. L. (1971). Mewar and the British, 1857-1921 A.D.: A History of the Relations of the Mewar State with the British Government of India from 1857 to 1921 A.D. (अंग्रेज़ी में). Bafna Prakashan. पपृ॰ 229–231. When he started for Delhi the poet Kesari Singh Barahat presented some verses entitled "Chetavani ra Chungatia" (urges to wake) to the Maharana reminding him of the glorious and heroic traditions of his ancestors, who never submitted to any power nor paid 'Nazar' to any king, but carried constant struggle to uphold their glory and fame. The poem created a marked impression on the Maharana's mind and revived the sense of his ancestral glory in him....to the extreme vexation of the G. O. I., the Maharana left Delhi even before the first ceremony of the State Entry was accomplished.
  11. Kaul, Raj Kumar; Jaidev (1993). Social Awareness in Modern Indian Literature (अंग्रेज़ी में). Indian Institute of Advanced Study. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-85952-01-7. Only the action of one raja upset the British apple cart a little in Delhi . The man behind the actor, behind the raja, was the same : Barhat Kesarisingh . His historic 'Chetavani Ra Chungtiya ' addressed to Maharana Fatehsingh of Udaipur, turned the tide . The Maharana had set out for Delhi by a special train and Kesarisingh handed in his thirteen sorathas titled ' Chetavani Ra Chungtiya ' ( The Pinches of Admonition ) to him at Sareri, a small wayside railway station . They changed his mind and the Maharana returned to Udaipur without attending the durbar. Thus the original sin this House had committed in 1818 was partially washed off after eighty-five years!
  12. Jain, Pratibha; Śarmā, Saṅgītā (2004). Honour, Status & Polity (अंग्रेज़ी में). Rawat Publications. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7033-859-8. It is widely believed that Maharana Fateh Singh was dissuaded from attending the durbar in 1903 by the stinging verses of a poem “ Chetavani ra Chungtia " composed by Barhat Kesari Singh . The poem was presented to him first as he was preparing to leave for the Imperial Assemblage .
  13. Sharma, Nidhi (2000). Transition from Feudalism to Democracy: A Study of the Integration of Princely States of Rajasthan, 1947-50 AD (अंग्रेज़ी में). Aalekh Publishers. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-87359-06-7. After receiving a verse ‘Chetawani Ra Chungatiya’ from Kesari Singh Barhat en-route to Delhi rebuking him for surrendering to the British for political gains, Maharana Fateh Singh did not attend the Durbar even after reaching Delhi, feigning illness.
  14. Yadav, Kripal Chandra; Arya, Krishan Singh (1988). Arya Samaj and the Freedom Movement: 1875-1918 (अंग्रेज़ी में). Manohar Publications. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-85054-41-4. Kesari Singh Barhat wrote the following 13 couplets (known as Chetawani ra chungatya) which exhorted Maharana Fateh Singh of Udaipur not to attend the Delhi Durbar 1903. They had the desired affect; and the Maharana returned from Delhi without attending the Durbar.
  15. Kamal, K. L. (1969). Party Politics in an Indian State: A Study of the Main Political Parties in Rajasthan (अंग्रेज़ी में). S. Chand. Reference may also be made to other leaders whose consistent efforts led to political and mass awakening. Kesari Singh Bareth was a revolutionary and a poet. His ‘Chetavani ka Chungatia’ (Pinches to warn and wake) kindled the fire of nationalism in the heart of the ruler of Mewar, Maharaja Fateh Singh, resulting in his refusal to attend the Delhi Durbar.
  16. Bhargava, Naresh Kumar (1995). Democratization in Feudal System: A Sociological Study of Political Parties (अंग्रेज़ी में). Himanshu Publications. पृ॰ 27. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-85167-93-0.
  17. Hooja, Rima (2006). A History of Rajasthan (अंग्रेज़ी में). Rupa & Company. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-291-0890-6. In the tradition of his Charan ancestors, Kesari Singh had composed stirring verses that evoked the glorious past of the ruling house of Mewar, and of the numerous ancestors of the Guhila-Sisodia clan who had, over the centuries, refused to bow to others.....The moving poetry played its part, and when the Maharana arrived at Delhi, he merely met the King-Emperor at Salimgarh railway station and returned to Udaipur without either joining the royal procession or attending the durbar. However, British predominance over matters was a reality that could not fade by merely ignoring it — as Fateh Singh continued to face over the coming decades!
  18. Gupta, Dr. Mohan Lal (2017). Freedom Struggle and Integration of Rajasthan (Hindi में). Shubhda Prakashan. ई. 1911 में एक बार फिर महाराणा को दिल्ली दरबार में बुलाया गया तो खरवा के ठाकुर राव गोपालसिंह और ठाकुर केसरीसिंह ने उन्हें पत्र लिखकर धिक्कारा। महाराणा एक बार फिर दिल्ली दरबार में शामिल नहीं हुए।सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  19. Shekhawat, Madan Singh (2013-09-25). "Shekhawat Madan Singh of Jhajhar: चेतावनी के चूंटक्या -रचना की एतिहासिक पृष्ठ भूमि". Shekhawat Madan Singh of Jhajhar. अभिगमन तिथि 2022-10-18. महाराजा अलवर के परम विश्वास पात्र अक्षय सिंह जी रत्नू ने इस एतिहासिक प्रसंग का अपने "केसरी-प्रताप चरित्र " नामक काव्य में विस्तार से वर्णन किया है। इस से आम लोगों में प्रचलित तथा कुछ तथाकथित प्रगतिशील लेखकों व अवसरवादियों द्वारा प्रचलित इस भ्रांत धारणा का भी खंडन होगा कि राजस्थान के रजवाड़े राष्ट्रिय विचारधारा से शून्य और अंग्रेजों के हिमायती थे।
  20. Ratnū, Akshayasiṃha (1989). Akshaya kesarī, pratāpa caritra. Cāraṇa Sāhitya Śodha Saṃsthāna.
  21. Annual Report of the Registrar of Newspapers for India (अंग्रेज़ी में). Office of the Registrar of Newspapers. 2003. पृ॰ 300.
  22. Newspapers, India Office of the Registrar of (2003). Press in India: Annual Report of the Registrar of Newspapers for India (अंग्रेज़ी में). Ministry of Information and Broadcasting, Government of India. पृ॰ 300.
  23. Gupta, Dr Mohan Lal. Revolutionary Thakur Kesari Singh Barhath: क्रांतिकारी ठाकुर केसरीसिंह बारहठ. Shubhda Prakashan.